उत्तर प्रदेश के किसी छोटे शहर की बड़ी-सी ड्योढ़ी में बसे परिवार की कहानी | बाहर हुक्म चलाते रोबीले दादा, अंदर राज करती दादी | दादी के दुलारे और दादा से कतरानेवाले बाबू | साया- सी फिरती, सबकी सुख -सुविधाओ की संचालक माई | कभी -कभी बुआ का अपने पति के साथ पीहर आ जाना | इस परिवार में बड़ी हो रही एक नई पीढ़ी-बड़ी बहन और छोटा भाई | भाई जो अपनी पढाई के दौरान बड़े शहर और वहां से विलायत पहुँच जाता है और बहन को ड्योढ़ी के बाहर की दुनिया में निकाल लाता है | बहन और भाई दोनों ही न्यूरोसिस की हद तक माई को चाहते है , उसे भी ड्योढ़ी की पकड़ से छुड़ा लेना चाहते है |
बेहद सादगी से लिखी गई इस कहानी में उभरता है आजादी के बाद भी औपनिवेशिक मूल्यों के तहत पनपता मध्यवर्गीय जीवन, उसके दुःख-सुख, और सबसे अधिक औरत की जिंदगी | बगैर किसी भी प्रकार की आत्म-दया के |
असल में अपने देखे और समझे के प्रति शक को लेकर माई की शुरुआत होती है | माई को मुक्त कराने की धुन में बहन और भाई उसको उसके रूप और सन्दर्भ में देख ही नहीं पाते | उनके लिए-उनकी नई पीढ़ी के सोच के मुताबिक़-माई एक बेचारी भर है | वे उसके अंदर की रज्जो को, उसकी शक्ति को, उसके आदर्शो को -उसकी 'आग' को देख ही नहीं पाते | अब जबकि बहन कुछ-कुछ यह बात समझने लगी है, उसके लिए जरुरी हो जाता है की वह माई की नैरेटर बने |
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