पुस्तक के विषय में
'सरस्वती' के यशस्वी संपादक, महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी नवजागरण के शलाका पुरुष और युग-निर्माता साहित्यकार थे । उन्होंने बीसवीं शताब्दी मे भारतेन्दु द्वारा प्रवर्तित नवजागरण की चेतना को व्यापकता और गहराई दी । एक ओर उन्होंने आधुनिक विज्ञान विषयक अनेक लेख लिखकर हिंदी जाति में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार किया तो दूसरी और 'संपत्ति शास्त्र' जैसा विशाल ग्रंथ लिखकर अंग्रेजी राज के आर्थिक शोषण के प्रति सामान्य जनता को सचेत किया । काव्य के क्षेत्र में पुराने रीतिवाद का उन्मूलन तथा ब्रज भाषा के स्थान पर गद्य की तरह ही खडी बोली का प्रचलन द्विवेदी जी के ही प्रयास का परिणाम है । उन्होंने हिंदी भाषा का संस्कार करके उसका एक मानक रूप स्थिर किया । 'सरस्वती' के माध्यम से उन्होंने हिंदी लेखकों का ऐसा व्यापक वर्ग तैयार किया जिससे ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में लेखन-कार्य संभव हो सका । इसीलिए बीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्य के आरंभिक दो दशकों को 'द्विवेदी युग' के नाम से याद किया जाता है ।
संपादक, रामबक्ष (जन्म : 1951) जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं । इनकी कुछ चर्चित पुस्तकें-'प्रेमचंद', 'प्रेमचंद और भारतीय किसान', 'द्रादूदयाल', 'समकालीन हिंदी आलोचक और आलोचना' हैं ।
इस पुस्तकमाला के प्रधान संपादक, नामवर सिंह (जन्म : 1927) हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष हैं । वे लगभग दो दशकों तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मे हिंदी के प्रोफेसर रहे और पच्चीस वर्षों तक उन्होंने 'आलोचना' पत्रिका का संपादन किया । प्रकाशित पुस्तकें एक दर्जन से ऊपर हैं, जिनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं: 'इतिहास और आलोचना', 'कविता के नये प्रतिमान', 'छायावाद', 'कहानी नई कहानी' और 'दूसरी परम्परा की खोज' ।
भूमिका
आधुनिक हिंदी भाषा और साहित्य के निर्माताओं में आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है । बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दो दशकों के साहित्य के निर्माण में उनकी भूमिका सवोंपरि है । आचार्य द्विवेदी के गौरव का मूलाधार ''सरस्वती'' पत्रिका का संपादन है । जनवरी 1900 ई. में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से इंडियन प्रेस प्रयाग द्वारा इस पत्रिका का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ । इसका संपादन कार्य एक '' संपादन समिति '' को सौंपा गया,जिसमें बाच कार्तिकप्रसाद खत्री ,पं० किशोरीलाल गोस्वामी, बा. जगत्राथदास बी.ए.बा. राधाकृष्णदास और बद श्यामसुन्दर दास बी.ए. शामिल थे । एक वर्ष तक इस समिति ने 'सरस्वती '' का संपादन किया । अगले दो वर्षों तक अकेले बाबू श्यामसुन्दर दास बी० ए० ने संपादन कार्य किया । जनवरी 1903 से आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी इस गौरवशाली पत्रिका के संपादक नियुक्त हुए ।
दस पत्रिका के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए प्रवेशांक में घोषित किया गया था कि, 'इस पत्रिका में कौन-कौन से विषय रहेंगे,यह केवल इसी से अनुमान करना चाहिए कि इसका नाम सरस्वती है । इसमें गद्य, पद्य, काव्य, नाटक, उपन्यास, चम्पू इतिहास, जीवनचरित्र, पंच, हास्य, परिहास कौतुक, पुरावृत्त विज्ञान, शिल्प, कला-कौशल आदि साहित्य के मानवीय विषयों का यथावकाश समावेश रहेगा और आगत ग्रंथादिकों की यथोचित समालोचना की जायेगी । यह हम निज मुख से नहीं कह सकते कि भाषा में यह पत्रिका अपने ढंग की प्रथम होगी । ' दरअसल आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की लगन और अथक प्रयासों से यह पत्रिका '' अपने ढंग की प्रथम' तथा हिंदी की प्रतिनिधि पत्रिका बन गयी थी; इसमें कोई सन्देह नहीं ।
''सरस्वती '' पत्रिका के द्वारा द्विवेदीजी ने काव्य भाषा के रूप में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया । भारतेंदु युग के लेखक गद्य खड़ी बोली में तथा कविताएं ब्रजभाषा में लिखा करते थे । इस द्वैत को उन्होंने स्वीकार कर लिया था । द्विदीजी ने सैद्धांतिक रूप से इस द्वैत का खंडन किया तथा खड़ी बोली में कविता लिखने को प्रोत्साहन देकर व्यावहारिक रूप में इस द्वैत को मिटाया ।
इस पत्रिका के द्रारा उन्होंने हिंदी भाषा का परिष्कार किया तथा उसके व्याकरण सम्मत रूप को स्थिर किया । यहां तक कि अनेक लेखकों ने द्विवेदीजी से भाषा लिखनी सीखी । उस युग के अनेक लेखकों ने लिखित रूप में द्विवेदीजी के इस ऋण को स्वीकार किया है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने '' हिंदी साहित्य का इतिहास'' में द्विवेदीजी के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा है, ''यदि द्विवेदीजी न उठ खड़े होते तो जैसी अव्यवस्थित, व्याकरण विरुद्ध और ऊटपटांग भाषा चारों ओर दिखायी पड़ती थी, उसकी परंपरा जल्दी न रुकती । उनके प्रभाव से लेखक सावधान हो गये और जिनमें भाषा की समझ और योग्यता थी उन्होंने अपना सुधार किया । '' (हिंदी साहित्य का इतिहास, पू० 528)
फिर सरस्वती पत्रिका के द्वारा उन्होंने हिंदी को अनेक लेखक, कवि, आलोचक और अनुवादक दिये । कई नये लेखकों की आरंभिक रचनाओं को प्रकाशित करने का श्रेय ''सरस्वती'' पत्रिका को है । मैथिलीशरण गुप्त, बदरीनाथ भट्ट, कामताप्रसाद गुरु, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचंद, लोचनप्रसाद पाण्डेय आदि लेखक '' सरस्वती'' पत्रिका के द्वारा हिंदी संसार से परिचित हुए । मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं की मुख्य विषय-वस्तु की प्रेरणा द्विवेदीजी दिया करते थे । किसी भी संपादक के लिए यह कम गौरव की बात नहीं है ।
आचार्य द्विवेदी ने हिंदी में मौलिक रचनाओं को तो प्रोत्साहित किया ही था, परंतु वे लेखकों को मौलिक रचनाओं के साथ साथ अनुवाद के लिए भी प्रेरित करते थे । '' सरस्वती'' में उन्होंने अनूदित रचनाओं को भी बहुत सम्मानपूर्वक प्रकाशित किया । अनुवाद के द्वारा वे अपने पाठकों को अन्य भाषाओं के साहित्य औरचिंतन से परिचित करवाना चाहते थे । अपनी संपादकीय टिप्पणियों में उन्होंने अन्य भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री का भी बेहिचक सार-संक्षेप प्रस्तुत किया है । स्वयं द्विवेदीजी ने ''बेकन विचार रत्नावली'' (बेकन), "स्वाधीनता'' (जान स्तुअर्ट मिल), शिक्षा (हर्बर्ट स्पेससे आदि अंग्रेजी पुस्तकों के साथ साथ कई संस्कृत और मराठी रचनाओं के अनुवाद किये । दरअसल द्विवेदीजी हिंदी को सिर्फ हिंदी भाषी प्रांतों तक सीमित नहीं रखना चाहते थे, वे उसका अखिल भारतीय स्वरूप विकसित करना चाहते थे । इसके लिए अनुवाद सबसे उपयोगी माध्यम हो सकता है । हिंदी के विकास में अनुवादों की भूमिका को आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने संभवतया पहली बार पहचाना । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी साहित्य को मनोरंजन का साधन नहीं मानते थे । उन्होंने साहित्य और साहित्यकार के सामने उच्चतर आदर्श रखा । वे ज्ञान के प्रचार-प्रसारको साहित्य का मुख्य कर्म मानते थे । इसी उद्देश्य के लिए ''सरस्वती'' का प्रकाशन हुआ था । इस उद्देश्य से द्विवेदीजी सहमत थे । इसलिए उन्होंने इसमें शुद्ध साहित्य के प्रकाशन के साथ साथ अपने समय की गंभीर समस्याओं से संबंधित मौलिक सामग्री को भी प्रकाशित किया । उसमें इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति, अर्थशास्त्र धर्म पुराण विज्ञान आदि से संबंधित सामग्री की भरमार रहती थी । डा० रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि ''सरस्वती'' ''ज्ञान की पत्रिका'' थी । स्वयं द्विवेदीजी ने साहित्यिक लेखों के अलावा ''संपत्तिशास्त्र'' जैसे विषय पर मौलिक पुस्तक लिखने का बीड़ा उठाया । द्विवेदीजी मानते थे कि साहित्यकारों में इस संसारको जानने की जिज्ञासा रहनी चाहिए, इसलिए वे नये नये विषयों पर खोजपूर्ण निबंध लिखने की प्रेरणा दिया करते थे । यदि किसी अन्य भाषा में नवीन जानकारियों से भरी हुई खोज प्रकाशित होती थी तो द्विवेदीजी उसे ससम्मान ''सरस्वती'' में भी उद्धृत करते थे । उनकी सामाजिक दृष्टि की टकराहट आगे चलकर छायावादी कविता से हुई । उनको लगने लगा कि वर्तमान (छायावादी) कविता अपने इस उद्देश्य से भटक गयी है ।
द्विवेदीजी का लेखन औरउनका रचनाकाल 1920 ई. से पूर्व का रहा है । हालांकि उन्होंने बाद में भी कुछ छिटपुट लेखन किया है, परंतु उनकी दृष्टि इससे पूर्व स्थिर हो गयी लगती है । उनकी रचनात्मक ऊर्जा का सर्वश्रेष्ठ रूप तक अभिव्यक्त हो चुका था । 1920 ई. हिंदी साहित्य के इतिहास में निर्णायक मो़ड़ लाने वाला वर्ष है । इसके महत्व पर प्रकाश डालते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, ''सन् 1920 ई. भारतवर्ष के लिए युगांतरले आने वाला वर्ष है । इस वर्ष भारतवर्षका चित्र पुराने संस्कारों को झाड़कर नवीन मार्ग के अनुसम्गन में प्रवृत्त हुआ था । नवीन आशा और नवीन आकांक्षा के प्रति जैसा अडिग विश्वास इस समय दिखायी दिया, वह शताब्दियों से अपिरिचित-सा हो गया था । ' इस वर्ष के बाद स्वाधीनता आदोलन नये चरण में प्रवेश करता है । इसके बाद स्वाधीनता आदोलन के केंद्र हिंदी भाषी प्रांत बन गये । महात्मा गां धी के नेतृत्व में चलने वाले असहयोग आदोलन के प्रभाव से बुद्धिजीवी इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचे कि बिना अंगेजों के यहां से निकाले हम देशोद्धार नहीं कर सकते । इसलिए हमारा मुख्य उद्देश्य देशोद्धार नहीं,वरन् देशमुक्ति का होना चाहिए । देशमुक्ति की यह आवाज राजनीतिक क्षेत्र के साथ साथ सांस्कृतिक क्षेत्र में भी सुनायी देने लगी । देश की अंग्रेजों से मुक्ति के साथ साथ समाज की रूढ़ियों से मुक्ति, व्यक्ति की धर्म के बंधन से मुक्ति, नारी की पुरुष से मुक्ति, कविता से छंद की मुक्ति की धारणा भी आयी । परंतु यह सब बाद में हुआ । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के रचनाकाल के बाद यह सब घटित हुआ ।
दरअसल आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की पत्रिका में जिस 'शिक्षित वर्ग'' की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति हुई उस वर्ग की आरंभ में ब्रिटिश सिंह से कोई शिकायत नहीं थी । यह वर्ग तो ब्रिटिश सामाज्य की न्यायप्रियता और प्रजापालकता का गहरा हामी थी । इसलिए इस वर्ग की मान्यता थी कि ''अंग्रेजी अमलदारी में रहते हुए देशोद्धार की संभावनाएं सर्वाधिक है । जनवरी 1950 ई. की ''सरस्वती में नागरी प्रचारिणी सभा के क्रियाकलापों की आलोचना करते हुए द्विवेदीजी ने अंग्रेजी सरकारका आदर्श सामने रखा-'अंग्रेजी गवर्नमेंट विदेशी है । पर उसने भी अपने कायों की आलोचना करने का द्वार खोल रखा है । खुले-खजाने लोग वाइसराय और प्राइम मिनिस्टर तक दो कामों का खंडन-मंडन करते है । इससे गवर्नमेंट की उदारता और न्यायनिष्ठा जाहिर होती है ।'' 1905 ई. तक द्विवेदीजी ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने वाले राजाओं, नवाबों और क्रांतिकारियों की आलोचना की । जनवरी 1904 ई. की ' सरस्वती' में द्विदीजी ने पं० दत्तात्रेय बलवंत पारसनीय के आधार पर रानी लस्मीबाई के जीवन पर लेख लिखकर सिद्ध किया कि '' 1857 ई० के बलवे में अंग्रेजों का जो वध झांसी में हुआ था ,उससे रानी लक्ष्मीबाई का भी संबंध न था ।'' अप्रैल 1904 के एक लेख में उन्होंने शिवाजी को अंग्रेजों का परम मित्र और हितैषी बताया । अक्तूबर 1904 के एक लेख में कानपुर में हुए सन् 57 के ''बलवे'' का जिक्र है । इसमें उन्होंने तात्या टोपे और नाना शाहब को 'नृशंस हत्यारा' तक कहा ।
ब्रिटिश सरकारकी न्यायप्रियता और प्रजापालकता के हिमायती होते हुए भी द्विवेदीजी में देश भक्ति का अभाव नहीं था । देश प्रेम उनमें तब भी था । 1906 ई. के बाद द्विवेदीजी ने अपनी इन गलतियों को सुधारा । इसके बाद उन्होंने अंग्रेज सरकारकी तारीफ करना कम कर दिया । यहां तक कि, बाद में उन्होंने आवश्यकता एड्ने पर अंग्रेजों की आलोचना भी की । दिसंबर 1906 ई० में ''मुर्शिदाबाद'' पर लिखते हुए उन्होंने लिखा, '' अंग्रेज और कुछ हिंदुस्तानी लेखकों ने भी सिराजुद्दौला को काम-कर्दम का कीड़ा, निर्दयता का समुद्र, दुर्व्यसनों का शिरोमणि, अर्थ-लोलुप और नरपिशाच आदि मधुरिमामय विशेषणों से विभूषित किया है । पर बाबू अक्षय कुमार मैत्रेय ने बंगला में सिराजुद्दौला का जीवनचरित लिखकर उसकी इस कलंक-कालिमा को धोकर प्राय: बिल्कुल साफ कर दिया है । इस किताब को पढ़ने से यह धारणा होती है कि सिराजुद्दौला के समान सहनशील, राजनीतिज्ञ, बात का सच्चा, निर्भय, शांतिप्रिय और रक्तपात द्वैषी शायद ही और कोई राजा या बादशाह हुआ हो । प्राय: सब कहीं अंग्रेजों ही के लोभ, प्रतिज्ञा-भंजन, अन्यायपरक, प्रतिहिंसक स्वभाव, अनाचार, विश्वासघात आदि का परिचय मिलता है । इस पुस्तक में यह सब बात खूब दृढ़ता से साबित की गयी है कि कलकत्ते के अंधकूप अर्थात् कालकोठरी या ब्लैक होल की हत्या की कहानी बे-सिर-पैर का एक औपन्यासिक गठन मात्र है । ''ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कि स्वयं द्विवेदीजी ने कलकत्ता की कालकोठरी की कथा को प्रामाणिक मानते हुए ''सरस्वती'' में प्रकाशित किया था ।
1906 ई० में परिलक्षित जीवन-दृष्टि संबंधी परिवर्तन के बावजूद द्विवेदीजी इस मत के कायल नहीं थे कि देश प्रेम का अर्थ अंगेजी राज का विरोध करना होता है । उन्होंने हमेशा यह दृष्टिकोण सामने रखा कि अंगेजी राज की बिना चिंता किये हुए,उसके बारे में अपनी राय भीतर रखते हुए, जहां तक संभव हो, बिना अंगेजी सरकार से टकराये हुए अपना विकास करना चाहिए। हमें अपने देश व समाज की कमियों को दूर करना चाहिए-इस तरह सामाजिक उद्धार का कार्य करना चाहिए । इसलिए मुख्य समस्या यह नहीं है कि ब्रिटिश सरकार क्या कर रही है? वरन् यह है कि हम देशवासी स्वयं अपनी भलाई के लिए क्या कर रहे हैं? यदि हम अपना काम-देश सेवा-ठीक से कर रहे हैं, तो यह पर्याप्त है । अग्रेजों की जो बातें हमारे पक्ष में जाती हों, उनको उद्धृत करना चाहिए, उन बातों की तारीफ करनी चाहिए । जो बातें हमारे प्रतिकूल है, उनकी चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है । उन बातों में अपने दिमाग को उलझा देना समय और श्रम का अपव्यय है । इससे हमारी सक्रियता बाधित हो सकती है । अपने समय की राजनीति की चर्चा करते समय मूलतया उनका यह दृष्टिकोण रहा है । प्राच्य विद्याविद् अग्रेजों के कार्यों की द्विवेदीजी ने हमेशा तारीफ की है । आलोचनाओं के बिंदुयों की ओर संकेत करते हुए भी उन्होंने गीता प्रेम के कारण वारेन हेस्टिंग्स की तारीफ की । यहां तक कि ''शासन-सुधारों की रिपोर्ट'' की आलोचना भी द्विवेदीजी ने इसी भाव में की है 'आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ''संपत्तिशास्त्र'' पर पुस्तक लिखकर प्रकारांतर से अंग्रेजों के शोषण की आलोचना की । इसमें उन्होंने बताया कि ''गवर्नमेंट ही गोया जमींदार है।'' इस तरह खेती की यह आय ही अंग्रेजों के शोषण का मुख्य आधार है । शेष आय तो इसमें जोड़ती है । इस पुस्तक में द्विवेदीजी ने किसानों और जमींदारों के परस्पर हित-विरोध की चर्चा नहीं की ,वरन् इस बात पर बल दिया कि जमींदारों को शिक्षित और उदार होना चाहिए, ताकि देश में खेती का विकास हो सके । वे जमींदारी प्रथाके भीतर ही खेती में औद्योगिक उन्नति से लाभ उठा लेने के पक्षपाती थे ।
आचार्य द्विवेदी ने प्राचीन इतिहास ,पुराण ,वेद-शास्त्र ,सामाजिक रूढ़ियों और परंपराओ का गहन अध्ययन किया । साथ ही विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र, उद्योग-धन्धों की जानकारी उपलब्ध करने-करवाने में भी रुचि दिखायी । प्राचीन भारतीय परंपरा और आधुनिक यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का तालमेल बिठाने की भी उन्होंने कोशिश की । इन सब चीजों के मूल में देश-दशा के ज्ञान की लालसा काम कर रही थी । इसलिए उन्होंने अपने लेखन को ''विविध विषयों'' की ओर मोड़ा ।
यदि उनके रचना-कर्म के केंद्र बिंदु को खोजा जाय तो कहा जा सकता है कि समकालीन भारत के अधःपतन की चेतना से उत्पन्न पीड़ाबोध उनकी रचनाओं का मर्म है । इस देश में हो रही'' अस्वाभाविक लीला ''देखकर उन्हे'' आश्चर्य भी होता है और दु:ख भी ।'' अपने ही देश के सुशिक्षित कहे जाने वाले लोग यदि कोई ऐसा कार्य करते हैं, तब उन्हें बहुत पीड़ा होती है ।'' आदर पात्रों के नाम का निरादर' शीर्षक टिप्पणी में उन्होंने पीड़ा भरी बेचैनी से ऐसे लोगों को फटकारते हुए लिखा है, ''इसी तरह कुछ लोग कांग्रेस को न तो कांग्रेस ही कहते हैं ,न जातीय महासभा ही कहते हैं । वे उसे कंगरस कहते हैं । कंगरस ही नहीं, ''बाबुओं की कंगरस'' । जैसे बाबू लोग कोई बहुत ही तुच्छ, नीच, अधम या पतित पदार्थ हों । ये लोग, नहीं सोचते कि आखिर इस ''बाबू" शब्द के अंतर्गत हमारा भी तो समावेश होता है । आपको कोई महामहिम, परम-माहेश्वर, पतितपावन आदि विशेषणों से तो याद करता ही नहीं । आप भी तो बाबू ही कहाते हैं । फिर आप कांगेस को बाबुओं की कांग्रेस क्यों कहते हैं? आप भी तो बाबू है । फिर क्या कंगरस या कांग्रेस आपकी न हुई । बाबू कहाने वाले सुरेन्द्रनाथ, भूपेन्द्रनाथ,बैकुण्ठनाथ और मोतीलाल आदि क्या आपके बराबर भी सम्मान-पात्र नहीं? औरक्या कांग्रेस में केवल बाबू ही बाबू शामिल होते हैं । तिलक ,मालवीय ,गोखले ,गांधी ,लाजपतराय ,श्रीनिवास शासी, आलार, आयंगर-क्या ये सभी बाबू कहाते हैं? फिर बाबुओं की कांग्रेस कैसे हुई । कंगरस यदि लडकों का खेल है और यदि उससे कुछ भी लाभ नहीं हुआ तो कृपा करके बताइये आप ही ने भारत का कितना उद्धारकर दिखाया । ''यह पीड़ा भरा स्वर उनके लगभग प्रत्येक निबंध या टिप्पणी में पाया जाता है ।
महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोरको नोबेल पुरस्कार मिला । द्विवेदी इससे अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने ''सरस्वती'' में टिप्पणी लिखी । इस टिप्पणी को लिखते लिखते उनकी पीड़ा फिर जाग्रत हो गयी। '' इन्हीं लोकोत्तर कवि और अद्वितीय साहित्य-सेवी रवीन्द्रनाथ के देशबन्धु कनाडा में धंसने नहीं पाते और पशुवत तुच्छ समझे जाकर नटाल औरट्रांसवाल के जेलों में हूंसे और हंटरों से पीटे जा रहे है ।'' जाहिर है कि यह ''पीड़ा'' देश प्रेम की गहन भावना के बिना संभव नहीं है। स्रियों की दशा, धार्मिक उन्माद, सामाजिक कुरीतियां, अशिक्षा-अज्ञान, जनता का शोषण व अपमान के दृश्यों को देखकर उनका यह पीड़ा-बोध अत्यंत विचलित हो उठता है। ''सरस्वती'' की संपादकीय टिप्पणियों में इस स्वर को बखूबी पहचाना जा सकता है।
विषय-सूची
संपादकीय वक्तव्य
नौ
बारह
1
मेरी जीवन-रेखा
2
मौलिकता का मूल्य
10
3
साहित्य
12
4
पुस्तक प्रकाशन
15
5
कापीराइट ऐक्ट
22
6
नया कापीराइट ऐक्ट
25
7
वेद
28
8
वैदिक रचना करने वाली स्रियां
35
9
ब्राह्मण-मन्त्र
36
बौद्धाचार्य शीलभद्र
38
11
भगवदगीता-रहस्य
41
गीता में अन्य शास्त्रों के सिद्धान्तों का समन्वय
46
13
ब्राह्मणों की समुद्र यात्रा
49
14
धर्म्मान्ध्य
51
आर्यसमाज का कोप
56
16
पड़े लिखो का पाण्डित्य
61
17
सम्पत्तिशास्र की भूमिका
66
18
सम्पत्ति का वितरण
73
19
देश की बात
79
20
मिस्टर गांधी का आत्म-गौरव और स्वदेशाभिमान
83
21
आदरपात्रों के नाम का निरादर
85
निष्क्रिय प्रतिरोध का परिणाम
87
23
शासन-सुधारों के विषय में रिपोर्ट
92
24
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
99
बाबू अरविन्द घोष
104
26
भारतवर्ष ही योरप का शिक्षक है
107
27
एक मुसलमान विद्वान का संस्कृत-प्रेम
108
सर विलियम जोन्स ने कैसे संस्कृत सीखी
109
29
बनारस के संस्कृत-कालेज की कुछ पुरानी बातें
113
30
पुराने अंगरेज अधिकारियों के संस्कृत पढ़ने का फल
115
31
वारेन हेस्टिंग्स और श्रीमद्भगवद्गीता
120
32
भारतवर्ष का कर्ज
121
33
टिकस पर टीका
122
34
उदारता में उफान
124
सरकार की पसन्द के पत्र
126
गवर्नमेन्ट की की हुई साहित्य-समालोचना
128
37
सरस्वती और सरकारी गजट
130
शिक्षा और सरकार
134
39
प्राथमिक शिक्षा के विस्तार की आयोजना
135
40
शिक्षा प्रचार के लिए गवर्नमेन्ट का खर्च
136
रेलों का खर्च और शिक्षा प्रचार
137
42
पुलिस और शिक्षा का खर्च
138
43
पुलिस में कुत्तों की भरती
139
44
देशी भाषाओं के द्वारा शिक्षा
140
45
भारत में रोमन-लिपि के प्रचारका प्रयत्न
142
आयुर्वेदिक चिकित्सा और गवर्नमेन्ट
144
47
हाईकोर्ट के जजों की तनख्वाहें
146
48
विलायत और भारत के बड़े राज-कर्मचारियों का वेतन
147
विज्ञानाचार्य वसु का विज्ञान मन्दिर
149
50
विज्ञानाचार्य वसु की नई खोज
152
कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर को एक लाख बीस हजार का इनाम
153
52
कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर
154
53
समाचार-पत्रों का विराट रूप
157
54
साहबी-हिन्दी
160
55
कौंसिल में हिन्दी
167
युद्ध, बीमारी और प्राकृतिक दुर्घटनाओं से नर-संहार
178
57
प्लेग से नर-नाश
180
58
प्लेग निवारण की योजना
181
59
कुनैन
183
60
भारतवर्ष में अन्धों के लिए स्कूल
184
भारत कला-परिषद्
186
62
सर भाण्डारकर का विद्यालय
187
63
पूने की गवेषणा-शाला
189
64
उस्मानिया विश्वविद्यालय
190
65
बनारस का हिन्दू-विश्वविद्यालय-एक
191
बनारस का हिन्दू-विश्वविद्यालय-दो
193
67
बनारस के हिन्दू-विश्वविद्यालय का जमा-खर्च
194
68
हिन्दू-विश्वविद्यालय और हिन्दी
195
69
खुदाबख्श लाइब्रेरी
196
70
संसार के कुछ पुराने पुस्तकालय
199
71
दुनिया में सबसे बड़ा कोश
201
72
स्मिथ साहब का भारतीय इतिहास
203
महाभारत का नया संस्करण
205
74
दैनिक प्रताप
206
75
पुस्तकों और पत्रों का वार्षिक विवरण
207
76
बंगाल और बिहार की भाषा
208
77
लेखकों को पेन्शन
210
78
तुलस्तुयी
211
''दृश्य-दर्शन' की भूमिका
212
80
एक नई किताब की भूमिका
213
81
बोल-चाल की हिन्दी में कविता
216
82
हिन्दी-साहित्य में डाकेज़नी
218
रोजगारी स्रियां
220
84
स्रियों के राजनैतिक अधिकार
221
बाइबल का प्रचार
222
86
अंगूठे के चिहों के प्रथम प्रयोक्ता
223
पुस्तकों का समर्पण
224
88
तारीख से दिन निकालने की रीति
225
परिशिष्ट-एक
227
परिशिष्ट-दो
228
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