सुविख्यात बांग्ला उपन्यासकार ताराशंकर बंधोपाध्याय की यह पुस्तक कथावस्तु और रचना-शिल्प की दृष्टि से एक अनूठी और मार्मिक कथाकृति है |
माता-पितविहीन नीरजा नामक एक बालिका का जैसा चरित्र- चित्रण यहाँ हुआ है , वह सिर्फ तारा बाबू जैसे कथाकार ही कर सकते है | पशुवत मनुष्यो के लोभ, कुत्सा और समाज की कुरूपताओ से अनथक संघर्ष करते हुए नीरजा मानो तेजोद्दीप्त भारतीय नारी का प्रतीक बनकर उभरती है , जिसमे परदुःख-कातरता भी है और उसके लिए आत्मोत्सर्ग की भावना भी | एक ओर वह अनाचार से जूझने के लिए जलती हुए मशाल है, तो दूसरी ओर वह उसके अन्तर में प्रेम की अंतः सलिला प्रवाहित हो रही है | नारी की आत्मनिर्भरता उसके जीवन का मूलमंत्र है, जिसे वह सम्मानपूर्वक जीने की पहली शर्त मानती है | वस्तुतः तारा बाबू ने इस उपन्यास में स्थितियों और परिवेश को नाटकीयता प्रदान करके विलक्षण प्रभाव उत्पन्न किया है |
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