श्रीभगवान् ने कहा (भगवद्गीता कथारूप) चतुर्थ खण्ड, उत्तरार्ध श्रद्धालु पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है । इसके पूर्व के छः खण्डों को पढ़ कर भक्तों ने अत्यन्त प्रसन्नता प्रकट की तथा उनके प्रोत्साहन के कारण ही यह अगली पुस्तक प्रकाशित हो सकी । हमारा नियम है कि केवल उन्हीं श्लोकों की व्याख्या लिखी जाये, जिन श्लोकों पर श्रील प्रभुपाद ने तात्पर्य लिखे हैं। चूंकि इस चौथे अध्याय में प्रत्येक श्लोक पर श्रील प्रभुपाद ने तात्पर्य लिखा है, अतः इस अध्याय में 12 श्लोक होने के कारण तात्पर्य भी 42 ही हैं। चूंकि चतुर्थ खण्ड, पूर्वार्ध में श्लोक संख्या 1 से लेकर 20 तक की व्याख्या है, अतः उससे अगली इस पुस्तक में श्लोक संख्या 21 से लेकर अन्तिम श्लोक अर्थात् श्लोक संख्या 42 तक की व्याख्या है, जिसको नाम दिया गया है- चतुर्थ खण्ड, उत्तरार्ध ।
इस पुस्तक में जिन श्लोकों की व्याख्या हुयी है, उनमें मुख्यतया विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन है। लेखक ने इन यज्ञों की अत्यन्त गहरायी से व्याख्या करके निष्कर्ष निकाला है कि प्रत्येक यज्ञ कृष्णभावनामृत की एक विशेष विधि है। इन समस्त यज्ञों का वर्णन करने के बाद श्रीकृष्ण भी यह कहते हैं कि इन समस्त प्रकार के यज्ञों की समाप्ति कृष्णभावनाभावित ज्ञान में ही होती है। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये एक सरत तथा सीधा उपाय है श्रीकृष्ण की शिष्य परम्परा में आये हुये किसी महात्मा की सेवा करके, उन्हें प्रणाम करके उनसे श्रीकृष्ण-तत्त्व की जिज्ञासा करना । इसके पश्चात् श्रीकृष्ण ने ऐसे ज्ञान का माहात्म्य बतलाया है कि व्यक्ति इस ज्ञान को प्राप्त करके इस भौतिक संसार में उसी प्रकार सुरिक्षत हो जाता है, जिस प्रकार व्यक्ति समुद्र के बीच में स्थित जहाज में बैठा हुआ सुरक्षित होता है । अन्त में श्रीकृष्ण अर्जुन को आदेश देते हैं कि वे इस ज्ञान की तलवार के द्वारा अपने समस्त संशयों को काट कर कृष्णभावनाभावित वन कर युद्ध करने के लिए तैयार हो जायें। भगवद्गीता को समझने के लिए यह जानना अत्यन्त आवश्यक है कि गीता के वक्ता श्रीकृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं, वरन् स्वयं परम पुरुष भगवान् हैं, तथा उनके कार्यकलाप दिव्य हैं ।
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