श्रीभगवान् ने कहा (भगवद्गीता कथारूप) तृतीय खण्ड, उत्तरार्ध श्रद्धालु पाटकों के समक्ष प्रस्तुत है। इसके पूर्व के चार खण्डों को पढ़कर भक्तों ने अत्यन प्रसन्नता प्रकट की तथा उनके प्रोत्साहन के कारण ही यह अगली पुस्तक प्रकाशित हो सकी है। गीता के तृतीय अध्याय के श्लोक संख्या 20 तक के लेख पिछले खण्ड में छप चुके हैं। अब श्लोक संख्या 21 से अध्याय के अन्तिम श्लोक अर्थात् श्लोक संख्या 43 तक श्रील प्रभुपाद ने प्रत्येक श्लोक में तात्पर्य दिये हैं, अतः इस पुस्तक में लेखों की संख्या 23 है।
तृतीय अध्याय के उत्तरार्ध में भगवान् ने श्रेष्ठ व्यक्ति की जिम्मेदारी का वर्णन किया है, जिसमें भगवान् कहते हैं कि यदि वह सावधानीपूर्वक कर्म नहीं करेगा तो उसकी देखा-देखी सामान्य लोग भी उसी के अनुसार आचरण करेंगे तथा इस प्रकार मानव समाज की बड़ी हानि होगी। फिर भगवान् स्वयं अपने विषय में कहते हैं कि यह उनकी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि उन्हें इस प्रकार के कर्म करने चाहिये जिनको करने से मानव समाज लाभान्वित हो। देखने में तो लगता है कि जिस प्रकार सामान्य लोग कर्म करते हैं, उसी प्रकार आत्मज्ञानी भी कर्म कर रहा है, परन्तु अन्तर यह है कि सामान्य लोग तो अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिये कर्म करते हैं, जबकि आत्मज्ञानी व्यक्ति अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिये नहीं, बल्कि सामान्य लोगों को कर्म में लगाये रखने के लिये कर्म कर रहा है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को चाहिये कि अज्ञानियों की बुद्धि में भेद उत्पन्न न करके स्वयं भक्तिभाव से कर्म करते हुये उन्हें भी कृष्णभावनाभावित कमों में लगाये। जो लोग अज्ञानी हैं तथा भवरोग से ग्रसित हैं, उन्हें कर्म करने से न रोका जाये, क्योंकि कर्म की योजना के अनुसार उन्हें धीरे-धीरे ज्ञान की प्राप्ति होगी, जिसके द्वारा वे श्रीकृष्ण की शरण में आयेंगे।
लेखक ने श्रीकृष्ण और उनके भक्तों की कृपा से श्लोकों की जो कुछ भी व्याख्या लिखी है, वह भक्तों के समक्ष है। यदि श्रीकृष्ण के भक्तगण इसी प्रकार प्रोत्साहन देते रहेंगे तो श्रील प्रभुपाद की कृपा से लेखक आगे भी इस कार्य को जारी रख सकेगा।
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