आशा उप्रेती: कुमाऊँनी गृहों के अन्दर एवम् बाहर पूजा, संस्कार कर्म तथा गृह-सज्जा के लिए प्रयुक्त ऐपण पट्ट आदि के लोककला रूप विधानों में विशेष प्रकार के प्रतीकों का प्रयोग होता रहा है। इन रूपविधानों की सामग्री व माध्यम और जिस प्रकार इन रूपविधानों का सृजन होता है वह अपने आप में अनोखा है। कुमाऊँ में कर्म संस्कार अथवा पूजा अनुष्ठान के समय महिलाएँ जो पारम्पारिक गीत गाती हैं, इन गीतों में ऐसे कई सम्प्रत्ययों का प्रयोग होता है जिनकी सारूप्यता ऐपण आदि प्रतीक चिह्नों के साथ है।
आधुनिकीकरण के साथ-साथ बदलती हुई जीवनशैली ने ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दी हैं कि न केवल पारम्पारिक प्रतीकात्मक रूप विधान समाप्त होते जा रहे हैं बल्कि नई पीढ़ी भी धीरे-धीरे इनसे दूर होती जा रही है। पहले सज्जा के लिए प्रयुक्त यह प्रतीकात्मक रूप विधान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को समय-समय पर होने वाले धार्मिक अथवा संस्कार कर्मों के दौरान प्राप्त होती रहती थी।
जिस परिवेश (अलमोड़ा, कुमाऊँ तथा दिल्ली) और समाज से कितनी ही प्रतिभाएं अपनी विधा के उच्चतम शिखर तक जाने में कामयाब रही हों, वहां समाज के अन्य अनेक सदस्य भी अपनी तरह का यादगार योगदान देने में पीछे नहीं रहते। उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास होता है। ऐसे सदस्य बहुत आगे नहीं दिखते और बहुत देर से अपने काम को लेकर सामने आते हैं। श्रीमती आशा उप्रेती की यह किताब उस जगह को भरने की कोशिश है जो छोटे छोटे प्रयासों के बावजूद पूरी नहीं भरी जा सकी है। आगे भी अभी और खाली पड़ी जगह को भरने और निखारने की जरूरत बनी रहेगी। अपनी सांस्कृतिक जिम्मेदारी का भान सभी को होना ही चाहिये।
अल्मोड़ा में सन् 1991 के जून माह में कुछ प्रौढ़ महिला कलाकारों एवं कला मर्मज्ञों की कुमाऊँ पारम्परिक लोक कला ऐपण, बरबूँद, मालीविजन, पट्टे आदि तथा हस्त-शिल्प सज्जा पर केन्द्रित आयामों और साथ ही इस परम्परा के भविष्य में निर्वाह से जुड़ी समस्या के सम्बन्ध में एक विचार गोष्ठी हुई। मुख्य तौर पर पारम्परिक लोक-कलाओं के संरक्षण एवं संवर्धन तथा व्यवसायीकरण के कारण एवं प्रतीकात्मक रूप विधानों के क्षय पर चर्चा हुई।
मेरे इस प्रयास का प्रमुख कारण स्तोत्र यह चर्चा ही रही क्योंकि कला संस्कृति से जुड़ी परम्परा का निर्वाध रूप से जीवन्त रहना उसके संवाहकों पर बहुत निर्भर करता है।
कुमाऊँनी गृहों के अन्दर एवम् बाहर पूजा, संस्कार कर्म तथा गृहसज्जा के लिए प्रयुक्त ऐपण पट्ट आदि के लोककला रूप विधानों में विशेष प्रकार के प्रतीकों का प्रयोग होता रहा है। इसी प्रकार पिछौड़े अंगवस्त्र और गृहोपयोगी वस्तुओं की सज्जा में भी विशेष प्रकार के रूप विधान प्रयोग में लाये जाते रहे है। इन रूपविधानों की सामग्री व माध्यम और जिस प्रकार इन रूपविधानों का सृजन होता है वह अपने आप में अनोखा है। आधुनिकीकरण के साथ-साथ बदलती हुई जीवनशैली ने ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दी हैं कि न केवल पारम्पारिक प्रतीकात्मकरूपविधान समाप्त होते जा रहे हैं बल्कि नई पीढ़ी भी धीरे-धीरे इनसे दूर होती जा रही है। पहले सज्जा के लिए प्रयुक्त यह प्रतीकात्मक रूप विधान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को समय-समय पर होने वाले धार्मिक अथवा संस्कार कर्मों के दौरान प्राप्त होती रहती थी।
घर की ज्येष्ठ महिलाएँ जब इन प्रतीकात्मक रूपविधानों का सृजन करती थीं तो उनकी सहायता घर की अथवा पड़ोस की तरूण महिलाएँ करती थी। धीरे-धीरे ये युवतियाँ भी प्रतीकात्मक रूपविधानों के सृजन के लिये प्रयुक्त सामग्री और माध्यमों का प्रयोग और इनके सृजन की विधि सीख लेती थीं। आज की तरूण युवतियाँ, संस्कृति निरपेक्ष स्कूली शिक्षा अथवा अवकाश के समय रेडियो, टी.वी., मोबाईल, पत्रिकाओं आदि द्वारा प्रस्तुत मनोरंजन की प्रस्तुतियों में व्यस्त हो गई हैं। इस कारण उनके पास अपनी सांस्कृतिक धरोहर को गृहण करने के लिए कोई अवसर ही नही रहता।
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