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क्रिया शारीर: Kriya Sharir (Human Physiology) Vol-1

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Item Code: HBF697
Author: SIMANT SOURAV
Publisher: Chaukhambha Publications
Language: English and Hindi
Edition: 2024
ISBN: 9788197639012
Pages: 333 (B/W Illustrations)
Cover: PAPERBACK
Other Details 9.5x7.5 inch
Weight 510 gm
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Book Description
प्रस्तावना

आयुर्वेद शास्र जीवन का विज्ञान है। इसकी उत्पति अब से 5000 वर्ष पूर्व मानी जाती है। आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से मानी जाती है जिसका परम्परा द्वारा अनुवर्तन होकर भगवान पुनर्वसु आत्रेय को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् अग्निवेश को आयुर्वेद की प्राप्ति हुआ तथा उन्होंने इसे तन्व रूप में प्रचारित एवं प्रसारित किया। चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता इस विद्या के प्रधान प्रन्य है। जिसका विषय क्रमशः कार्यचिकित्सा तथा शल्यचिकित्सा है।

आयुर्वेद का उद्देश्य स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य का रक्षण तथा रोगी के विकार का प्रशमन करना है। यथा- प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्नास्वयम् रक्षणं आतुरस्य विकार प्रशमनं च ॥ (च.सू. 30)

स्वस्थ रहने के लिए यह आवश्यक है कि शरीर के विभित्र यंत्र तया प्रत्यंग अपना कार्य स्वाभाविक रूप से करते रहे। शरीर के विभित्र अंगों के स्वाभाविक कार्य का अध्ययन जिस शास्र में किया जाता है उसे शरीर क्रिया विज्ञान कहा जाता है। आयुर्वेद शास्त्र का शरीर के विभित्र क्रियाओं (Physiology) के सन्दर्भ में अपना स्वतन्त्र सिद्धान्त है जिसके आधार पर शरीर के विभित्र क्रियाओं का वर्णन किया गया है। इसके लिए आचार्य सुश्रुत ने निम्न कहा है-

दोष धातु मल मूलं हि शरीरं (मु.मू. 15/3)

वात पित्तश्लेष्माण एवं देह सम्भवहेतवः । तैरेवात्यापन्नैरधोमध्मेऽध्वंसन्त्रि विष्टैः शरीरमिदं धार्यतेऽगार मिव स्थूणाभिस्तिसृभिरतच त्रिंस्यूणमाहुरेके। त एव च व्यापन्नाः प्रलयहेतवः । (सु.मू. 21/03)

अर्थात् वात पित्त तथा कफ ये तीनों ही शरीर की उत्पत्ति के कारण है। इन्हीं अकुपित तथा नीचे मध्य और ऊपर यथाक्रम से रहने वाले वात, पित्त तथा कफ से यह शरीर धारण किया जाता है जिस प्रकार तीन खम्भों से मकान धारण किया जाता है इसलिए कई आचार्य इस शरीर को विस्यूल कहते हैं। मिथ्या आहार-विहार से प्रकुपित हुए ये ही वातादि दोष शरीर के विनाश में कारण होते है।

उत्साह उच्छवास निश्वास तथा विभिन्न प्रकार की गतियाँ प्राकृत वात के कर्म है। पाचन, परिवर्तन, दर्शन, उष्मा आदि प्राकृत पित के कर्म है जबकि स्नेह बन्धन, स्थिरता, छया धृति आदि प्राकृत कफ के कर्म है। धातुओं के विशेष कर्म यचा रस प्रीणन का रक्त जीवन कार्य, मांस शरीर लेपन, मेद स्नेहन, मज्जा धारण अस्थि पूरण तया शुक्र से गर्भ उत्पत्ति कहा गया है। इसी प्रकार पुरीष शरीर का उपस्तम्भन, वायु एवं अग्नि का धारण, मूत्र वस्ति पूर तथा शरीर में आर्द्रता तथा स्वेद का कार्य शरीर में क्लेद तथा त्वचा सुकुमारता करना है। उपरोक्त दोष धातु तया मल के प्राकृत कार्य, इनके विकृत होने पर इनका कार्य का वर्णन संहिताओं में किया गया है। जिसका अध्ययन एक क्रम में शरीर क्रिया के अन्तर्गत किया जाता है।

आयुर्वेद सिद्धान्त के अनुसार सभी मनुष्य की अपनी विशेष प्रकृति होती है जिसका भी निर्धारण दोषों की उत्कटता के आधार पर शुक्र शोणित संयोग के समय होता है। विभिन्न प्रकृति यथा वातज, पित्तज, कफज तया समप्रकृति में शारीरिक रचना की दृष्टि से, शारीरिक क्रिया की दृष्टि तथा मानस के अनुसार इनके लक्षण विशेष का वर्णन शास्त्रों में किया गया है। यदि पुरुष अपनी प्रकृति के अनुसार आहार विहार का पालन करता है तो वह अपने स्वास्थ्य को बनाये रखेगा।

प्रस्तुत पुस्तक एन सी आई एस एम नई दिल्ली के प्रथम व्यवसायिक के अन्तर्गत अध्ययनरत शरीर क्रिया विषय के नवीन पाठ्यक्रम पर आधारित है। नये पाठ्यक्रम में आयोग द्वारा विषय वस्तु का लेक्चर तथा अंक निर्धारित है। इस पुस्तक की रचना उपरोक्त विषय को ध्यान में रखकर किया गया है। जिससे यह छात्रों के बीच अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सके। प्रत्येक अध्याय के अन्त में प्रश्नों का संग्रह किया गया है। पुस्तक में यदि किसी भी प्रकार की प्रिटिंग या टाइपिंग में गलती रह गयी हो तो इसके लिए लेखक क्षमा प्रार्थी है। यदि पुस्तक छारों तथा अध्यापकों के बीच लोकप्रिय होती है तो मैं यह मानूगा कि मेरा पुस्तक लिखना सफल हुआ।

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