प्रकाशकीय
प्रस्तुत पुस्तक के लेखक से हिन्दी के पाठक भलीभांति परिचित हैं। उनकी 'भागवत-कथा', 'महाभारत-सार' और 'बाल्मीकि-कृत राम-कथा' पुस्तकें 'मण्डल' से प्रकाशित हुई हैं और उनकी पाठकों ने मुक्त कण्ठ से सराहना की है। इनमें 'भागवत-कथा' तो इतनी लोकप्रिय हुई है कि उसके अबतक आठ संस्करण हो चुके हैं। कहने की आवश्यकता नहीं की लेखक की सभी पुस्तकें बड़ी ही सजीव भाषा और शैली में लिखी गई हैं।
हमें हर्ष है कि इस श्रृंखला में एक और नई तथा शक्तिशाली कड़ी जुड़ रही है। इस पुस्तक में लेखक ने श्रीकृष्ण की जीवन-गाथा दी है। राम और कृष्ण हमारे देश की वे विभूतियां हैं, जिनकी भक्ति-धारा हमारे सम्पूर्ण देश में ही नहीं, विश्व के अन्य अनेक देशों में भी प्रवाहित है और जिसमें अवगाहन करके सभी शान्ति का अनुभव करते हैं।
पुस्तक उपन्यास की भांति रोचक है। भाषा उसकी इतनी सरल और शैली इतनी सजीव है कि एक बार पुस्तक हाथ में उठा लेने पर बिना समाप्त किये छोड़ी नहीं जा सकती।
हमें विश्वास है कि लेखक की अन्य पुस्तकों की भांति यह पुस्तक भी सभी वर्गों और सभी क्षेत्रों के पाठकों को सहज ग्राह्य होगी।
दो शब्द
संसार में जब-जब अन्याय और अत्याचारों का प्रचार प्रचुर प्रमाण में होता है, तब-तब दुष्टों के दमन और सज्जनों के परित्राण के लिए विश्वनियन्ता को विश्व में अवतार लेना पड़ता है, ऐसी भारतीय संस्कृति की मान्यता है। इसी परम्परा में आविर्भूत वराह, नृसिंह, वामन, राम और कृष्ण की कथा पुराणों तथा रामायण आदि प्राचीन ग्रन्थों में विस्तृत रूप से वर्णित की गई है । मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराम की भांति ही योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी कंस आदि राक्षसों का संहार कर अत्याचार से त्रस्त प्रजा की रक्षा की। श्रीराम का चरित्र जहां मानव-मात्र के लिए आदर्श और अनुकरणीय है, वहां श्रीकृष्ण के वचन और उपदेश सर्वथा आचरण में लाने योग्य हैं। इनके दुर्गम चरित्र में बहुत-से लोगों को शंका-समाधान करने का अवसर मिलता है, पर इन्होंने समय-समय पर विशेषत: महाभारत के समय कुरुक्षेत्र में अपने सुहृद अर्जुन को जो उपदेश दिया है, वह गीता-ज्ञान के रूप में समस्त विश्व में अनुपमेय माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र वस्तुत: दुर्गम है। जन्म लेते ही माता-पिता को तत्काल कर्तव्य का उपदेश दिया, शिशु-अवस्था में पूतना, तृणावर्त उरादि भयंकर राक्षसों को पछाड़ा, बाल्यावस्था में अघासुर, बकासुर आदि अनेक दुष्टों का दमन किया, कालिय नाग का दहन किया, गोवर्धन उठाया, इन्द्र के गर्व को चूर किया और कंस तथा उसके साथियों का भरी सभा में संहार किया। किशोर अवस्था में विद्याध्ययन कर गुरु-पुत्र को ढूंढकर लाये और जरासन्ध की विपुल सेना को सत्रह बार हराया। युवावस्था में नई नगरी द्वारिका समुद्र के बीच में बसाई और अनेक दुर्जनों का मान-मर्दन कर पूर्ण ऐश्वर्य का प्रदर्शन किया। प्रौढ़ावस्था में दुर्दान्त कौरवों के कुटिल चक्र से समय-समय पर पाण्डवों का परित्राण किया। चतुर्थ अवस्था में महाभारत के समय अर्जुन को कर्तव्य का उपदेश दिया और पृथ्वी के बढ़े हुए भार को दूर किया । इस प्रकार बार-बार अनुपम ऐश्वर्य का प्रदर्शन किया, जिसका अनुकरण सर्वथाअसम्भव है, किन्तु उनका कृतित्व तथा उपदेश प्रत्येक मानव के लिए जीवन-संघर्ष में प्रतिक्षण शुद्ध और सरल मार्ग का प्रदर्शन करता है। भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र पूर्णतया कर्मठता का प्रतीक है। उन्होंने बाल्यकाल से अन्तिम क्षण तक कर्म की उपासना की है। कभी प्रमाद के वशीभूत होकर विश्राम का अवलम्बन नही लिया। अपने उपदेश में अर्जुन को यही तो बताया है, ''यद्यपि मेरा कोई कर्तव्य नहीं है तो भी लोक-संग्रह के लिए मैं निरन्तर आलस्य-रहित होकर कर्म करता हूं।''
श्रीमद्भागवत महापुराण, महाभारत तथा अन्य पुराणों में भी श्रीकृष्ण के चरित का स्थान-स्थान पर विस्तार से वर्णन किया गया है। उसको सार-रूप में संकलित कर 'कृष्ण-कथा' पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत की गई है। इस प्रयास की सफलता श्रीकृष्ण-वचनामृत से लाभ उठाने पर ही निर्भर है।
अनुक्रम
1
पृथ्वी की व्यथा
11
2
कंस की क्रूरता
13
3
श्रीकृष्ण का जन्म
15
4
शिशु-लीला
22
5
बाल-लीला
26
6
ब्रह्मा का मति-भ्रम
31
7
धेनुकासुर-वध
35
8
कालिय दहन
9
प्रलम्ब
40
10
अरिष्टासुर
41
ऋषि-पत्नियों को उपदेश
12
गोवर्द्धन-धारण
43
रास-रहस्य
46
14
केशी
47
अक्रूर का ब्रज-गमन और कंस-वध
49
16
उद्धव की ब्रज-यात्रा
57
17
अक्रूर का हस्तिनापुर गमन
61
18
जरासन्ध की मधुरा पर चढ़ाई
63
19
रुक्मिणी-हरण
68
20
स्यमन्तक मणि
74
21
द्रौपदी का स्वयंवर
77
श्रीकृष्ण का कालिन्दी और नाग्नजिती से विवाह
82
23
पारिजात
84
24
युधिष्ठिर का राज्याभिषेक
86
25
अर्जुन का उलूपी, चित्रांगदा और सुभद्रा से विवाह
88
खाण्डव वन-दहन
90
27
अनिरुद्ध का उषा के साथ विवाह
92
28
राजा नृग का उद्धार
94
29
पौण्ड्रक-वध
96
30
कौरव दर्प-हरण
97
पाण्डवों का राजसूय-यज्ञ
98
32
शाल्व और दन्तवक्र-वध
109
33
पाण्डवों को वनवास
111
34
सुदामा चरित
114
कुरुक्षेत्र में नन्दबाबा और यदुवंशियों का मिलन
119
36
विदेह-यात्रा
124
37
अज्ञातवास
126
38
राजाओं को निमंत्रण
127
39
संजय का सन्धि-प्रस्ताव
130
विदुर की सम्मति
132
श्रीकृष्ण का प्रस्ताव
136
42
श्रीकृष्ण और कर्ण
147
कुरुक्षेत्र के लिए प्रस्थान
150
44
गीता-ज्ञान
151
45
द्रोणाचार्य द्वारा चक्रव्यूह की रचना
165
द्रोणाचार्य के साथ छल
175
कर्ण द्या-क्षेत्र में
181
48
कर्ण का मारा जाना
188
दुर्योधन को चुनौती
193
50
भीम और दुर्योधन का गदा-युद्ध
196
51
श्रीकृष्ण का सम्बोधन
198
52
दुर्योधन का प्राण-त्याग
200
53
अश्वत्थामा की पराजय
202
54
श्रीकृष्ण और विदुर के उपदेश
203
55
206
56
भीष्म पितामह द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति
208
भीष्म का पाण्डवों को उपदेश और प्राण-त्याग
211
58
यदुवंशियों को ब्रह्मशाप
213
59
श्रीकृष्ण-उद्धव-संवाद
216
60
यदुवंशियों का नाश
254
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