ग्रन्थ परिचय
वेदों में प्रतिपादित यज्ञ-यागादियों के प्रायोगिक अनुष्ठान की विधि कल्पसूत्रों में वर्णित हैं। 'कल्प' अर्थात् नियम अथवा सूचना। 'कल्पशास्त्र' के चार भाग हैं औतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्बसूत्र। श्रौतसूत्रों में यज्ञ-यागों की गृहासूत्रों में संस्कारों की धर्मसूत्रों में नीति की और शुल्ब सूत्रों में वेदि, अग्निचिति, मण्डप इत्यादियों का विन्यास करने की, जानकारी सूत्र रूप में दी है।
यजुर्वेद के दो विभाग हैं- शुक्ल और कृष्ण। शुक्लयजुर्वेद की दो शाखाएँ- माध्यन्दिन एवं काण्व इस समय उपलब्ध हैं। इन दोनों शाखाओं का 'कात्यायन श्रौतसूत्र' एवं 'कात्यायन- शुल्बसूत्र' हैं। आचार्य कात्यायन ने संहिता एवं ब्राह्मण ग्रन्थों में वर्णित श्रीतयज्ञ- यागादिकों की पद्धति को सूत्रबद्ध किया है, वहीं ग्रन्थरत्न 'कात्यायनश्रौतसूत्र' के नाम से सुविख्यात है।
महर्षि कात्यायन प्रणीत 'कात्यायन श्रौतसूत्र' में सप्त हविर्यज्ञ संस्था, सप्त पाकयज्ञ संस्था तथा सप्त सोमयज्ञ, संस्था का यथाविधि प्रतिपादन छब्बीस अध्यायों में किया गया है। प्रथमाध्याय में अधिकार का निरूपण, याग का स्वरूप निरूपण एवं यज्ञ विषयक लक्षण वर्णित हैं। द्वितीय एवं तृतीयाध्याय में दर्शपूर्णमास याग का निरूपण, चतुर्थाध्याय में पिण्डपितृयज्ञ, आधान और अग्निहोत्र का निरूपण, पञ्चमाध्याय में चातुर्मास्ययाग, मित्रविन्देष्टि तथा दर्विहोम का निरूपण, षष्ठाध्याय में निरूढपशुबन्ध का विवेचन सप्त-अष्ट-नव एवं दशमाध्याय में सोमयाग का निरूपण, एकादशाध्याय में ज्योतिष्टोमसम्बन्धिब्रह्मत्व निरूपण, द्वादशाध्याय में द्वादशाह यज्ञ का विवेचन, त्रयोदशाध्याय में गवामयन निरूपण, चतुर्दशाध्याय में वाजपेय यज्ञ का प्रतिपादन, पञ्चदशाध्याय में राजसूय यज्ञ का विवेचन, षोडश-सप्तदश एवं अष्टादशाध्याय में अग्निचयन का प्रतिपादन, एकोनविंशाध्याय में सौत्रामणी पशुयाग का निरूपण, विंशाध्याय में अश्वमेध यज्ञ का निरूपण, एकविंशाध्याय में पुरूषमेध याग, सर्वमेध याग एवं पितृमेध याग का निरूपण, द्वाविंशाध्याय एवं त्रयोविंशाध्याय में एकांह याग तथा अहीन याग का निरूपण, चतुर्विंशाध्याय में सत्रयाग का निरूपण, पञ्चविंशाध्याय में प्रायश्चित्तादि अनुष्ठान का निरूपण तथा षड्विंशाध्याय में प्रवग्र्यादि अनुष्ठान का विवेचन किया गया है।
कात्यायन श्रौतसूत्र के हिन्दी व्याख्या का उद्देश्य आचार्य श्रीविद्याधरशर्मा के 'सरलावृत्ति' को केन्द्र में रखकर शास्त्रसम्मत हिन्दी व्याख्या की गई है तथा ग्रन्थारम्भ में विस्तृत भूमिका-प्रस्तावना, एवं अन्त में परिशिष्ट रूप में अक्षरानुसारिसूत्रानुक्रमणी दी गई है, जिससे विद्यार्थियों एवं सुधीजनों को श्रौतयज्ञ का स्वरूप, रहस्य और उपयोगिता सरलता से समझ में आ जाए।
आत्मनिवेदन
इस समय महर्षि कात्यायन प्रणीत कात्यायन श्रौत सूत्र का सरल संस्कृत भाषा में गंभीर भावों से परिपूर्ण, विद्वानों के लिए परममंगलदायक अनेक आचार्यों के भाष्य प्रकाशित हैं। कुछ विद्वानों के भाष्य उपलब्ध हैं, कुछ के नहीं। मैं आचार्य विद्याधर जी का सरल बोधगम्य भाष्य पढ़कर अत्यन्त प्रभावित हुआ। अपने पूज्यपाद् गुरुवर डॉ. केशवप्रसाद जी मिश्र वेदाचार्य एम. ए. पीएच. डी. के अर्थ भरे उपदेशों से प्रभावित होकर बालकों को यज्ञ का स्वरूप, रहस्य एवं उपयोगिता सरलता से समझ में आ जाए, यह विचार लेकर इस विशालकाय ग्रन्थ का हिन्दी भाषा में व्याख्या करने का संकल्प लिया। यद्यपि मेरे जैसे आचार्य के लिए यह कार्य अत्यन्त कठिन है। कवि कुलगुरू कालिदास की यह उक्ति भी सामने आती है।
Foreword
'Shrauta' and 'Smarta' are two types of vedic rituals. Agnihotra, Darshapurnamasa, Chaturmasya, Aagrayaneshti and Sautramani etc. are some of the Yaga performed under 'Shraut' whereas Vishnu, Rudra, Chandi Yaga etc. and other ceremonies of Hindus are performed under 'Smart'. God 'Vishnu' has prominent place in 'yajna'. Human life is successful subject to proper observance of prescribed duties. To have no desire, one has to follow the 'yajna' as described in the 'Srimadbhagwata', viz.
भूमिका
वेद-पदार्थ विचार
वेद शब्द विद् धातु से निष्पन्न होता है। धर्मादि पुरुषार्थ चतुष्टयोपाय का ज्ञान जिस शब्द राशि से हो, वह शब्दराशि ही वेद है। अतएव कहा गया है कि "इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायो यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः" यह बात सायणाचार्य कृष्णयजुर्वेद की भाष्य भूमिका में स्पष्ट कर चुके हैं। यह भी कहा गया है कि:-
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुद्ध्यते।
एतं विन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्यवेदता ।।
प्रत्यक्षादि प्रमाणों से जिस वस्तु का ज्ञान नहीं हो पाता है, उस ज्ञान को तथा स्वर्गादि श्रेयः साधनीभूत कल्याण को जो शब्द राशि ज्ञान करावे वह ही वेद है। "मन्त्रब्राह्मणात्मकः शब्दराशिर्वेदः" प्राचीन आचार्यों, ग्रन्थकारों एवं ऋषियों ने इसी शब्द समुदाय को वेद नाम से ज्ञान कराया है। अनेक शास्त्रों में विद्याशब्द से भी वेद का ज्ञान कराया गया है। त्रयी शब्द भी वेद के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
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