कामयानी
कामयानी अपने प्रकाशन से लेकार आज तक की अवधि में सर्वाधिक चर्चित ओर विवादास्पद पुस्तक रही है। लेकिन सारी अतिरेकी प्रशंसाओं तथा आलोचनाओं को आत्मसता करके वह न केवल अपने स्थान पर निश्चल है बल्कि सुधी आलोचकों की दृष्टि में उत्तरोत्तर प्रासंगिक होती जा रही है।
कामयानी की कथा मूलत: एक फैंटेसी है, जिसका उपयोग प्रसादजी ने अपने समय की सामाजिक राष्ट्रवादी वास्तविकता के विश्लेषण कामयानी में प्रस्तुत हुआ है, वह आज भी उतना ही सच है जितना प्रसादजी के जमाने में था। मुक्तिबोध के शब्दों में, ``कामायनी में वर्णित सभ्यता-प्रयासों के पीछे, प्रसादजी का अपना जीवनानुभव, अपने युग की वास्तविक परिस्थिति, अपने समय की सामाजिक दशा बोल रही है।'' संक्षेप में, कामयानी एक ऐसा महाकाव्य है, जो आज के मानव-जीवन को उसके समस्त परिवेश और परिस्थिति के साथ प्रस्तुत करता है।
जीवन परिचय
जयशंकर प्रसाद
जन्म : 30 जनवरी 1890, वाराणसी (उ.प्र.) । स्कूली शिक्षा मात्र आठवीं कक्षा तक । तत्पश्चात् घर पर ही संस्कृत, अंग्रेजी, पालि और प्राकृत भाषाओं का अध्ययन । इसके बाद भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन, साहित्य और पुराण-कथाओं का एकनिष्ठ स्वाध्याय । पिता देवीप्रसाद तंबाकू और सुँघनी का व्यवसाय करते थे और वाराणसी में इनका परिवार 'सुँघनी साहू' के नाम से प्रसिद्ध था । पिता के साथ बचपन से ही अनेक ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों की यात्राएँ की |
छायावादी कविता के चार प्रमुख उन्नायकों में से एक । एक महान लेखक के रूप में। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करुणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन । 48 वर्षो के छोटे-से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएँ ।
14 जनवरी 1937 को वाराणसी में निधन ।
आमुख
आर्य-साहित्य में मानवों के आदिपुरुष मनु का इतिहास वेदों से लेकर पुराण और इतिहासों में बिखरा हुआ मिलता है । श्रद्धा और मनु के सहयोग से मानवता के विकास की कथा को, रूपक के आवरण में, चाहे पिल्ले काल में मान लेने का वैसा ही प्रयत्न हुआ हो जैसा कि सभी वैदिक इतिहासों के साथ निरुक्त के द्वारा किया गया, किन्तु मन्वन्तर के अर्थात् मानवता के नवयुग के प्रवर्त्तक के रूप में मनु की कथा आर्थो की अनुभूति में दृढ़ता से मानी गई है; इसलिए वैवस्वत मनु को ऐतिहासिक पुरुष ही मानना उचित है । प्राय: लोग गाथा और इतिहास में मिथ्या और सत्य का व्यवधान मानते है । किन्तु सत्य मिथ्या से अघिक विचित्र होता है । आदिम चुग के मनुष्यों के प्रत्येक दल ने नोन्मेष के अरुणोदय में जो भावपूर्ण इतिवृत संग्रहीत किये थे, उन्हें आज गाथा या पौराणिक उपाख्यान कहकर उपख्यान कह कर अलग करदिया जाता है; क्योंकि उन चरित्रों के साथ भावनाओं का भी बीच-बीच में संबंध लगा हुआ-सा दीखता है । घटनाएँ कहीं-कहीं अतिरंजित-सी अं मन पड़ती हैं । तथ्थ-संग्रहकारिणी तर्कबुद्धि को ऐसी घटनाओं में रूपक का अरोप कर लेने की सुविधा हो जाती है । किन्तु उनमें भी कुछ सत्यांश घटना से सम्बद्ध है, ऐसा तो मानना ही पड़ेगा । आज के मनुष्य के समीप तो उसकी सीमा वर्तमान संस्कृति का -क्रमपूर्ण इतिहास ही होता है; परन्तु उसके इतिहास की सीमाजहाँ सें प्रारम्भ होती है, ठीक उसी के पहिले सामूहिक चेतना की दृढ़ दद्रु और गहरे रंगों की रेखाओं से, बीती हुई और भी पहिले बातों काउल्लेख स्मृति-पट पर अमिट रहता है; परन्तु कुछ अतिरंजित-सा । वे घटनाएँ विचित्रता सेपूर्ण जान पड़ती है । संभवत: इसीलिए हमको अपनी प्रचीन श्रुतियों कानिरुक्त के द्रारा अर्थ करना पड़ा; जिससे कि उन अर्थो का अपनी वर्तमान रुचि से सामंजस्य किया जाय ।
यदि श्रद्धा और मनु अर्थात् मनन के सहयोग से मानवता का विकास रूपक है, तो भी बड़ा ही भावमय और श्लाध्य है । यह मुनुष्यता का मनौवैज्ञानिक इतिहास बनने में समर्थ हो सकता है । आज हम सत्य का अर्थ घटना कर लेते है । तब भी उसके तिथि-क्रम मात्र से संतुष्ट न होकर, मनोवैज्ञानिक अन्वेषण कै द्वारा इतिहास की घटना के भीतर कुछ देखना
चाहते है । उसके मूल में क्या रहस्य है? आत्मा की अनुभूति! ही, उसी भाव के रूप-ग्रहण की चेष्टा सत्य या घटना बनकर प्रत्यक्ष होती है । फिर वे सत्य घटनाएँ स्थूल और क्षणिक होकर मिथ्या और अभाव में परिणत हो जाती है । किन्तु सूक्ष्म अनुभूति या भाव 1 चिरंतन सत्य के रूप में प्रतिष्ठित रहता है, जिसके द्वारा युग-युग के पुरुषों की और पुरुषार्थो की
अभिव्यक्ति होती रहती है ।
जल-प्लावन भारतीय इतिहास में एक ऐसी प्राचीन घटना है, जिसने मनु को देवों से विलक्षण, मानवों की एक भिन्न संस्कृति प्रतिष्ठित करने का अवसर दिया । वह इतिहास ही है । ' मनवे वै प्रातः' इत्यादि से इस घटना का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण के आठवें अध्याय में मिलता है । देवगण के उच्छंखल स्वभाव, निर्बाध आत्मतुष्टि में अन्तिम अध्याय लगा और मानवीय भाव अर्थात् श्रद्धा और मनन का समन्वय होकर प्राणी को एक नये युग की सूचना मिली । इस मन्वन्तर के प्रवर्त्तक मनु हुए । मनु भारतीय इतिहास के आदिपुरुष है । राम, कृष्ण और बुद्ध इन्हीं के वंशज हैं । शतपथ
ब्राह्ण में उन्हें श्रद्धादेव कहा गया है ''श्रद्धादेवो वै मनु:' । भागवत में इन्हीं वैवस्वत मनु और श्रद्धा से मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है ।
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