प्रस्तुत गजल-संग्रह वर्तमान व्यवस्था के प्रति जनाक्रोशमय प्रतिक्रिया ही है। वर्तमान काल में बाजारवाद का प्रभूत प्रभाव सृजित सम्बन्धों से लेकर राजनैतिक सिद्धांत-हीनता तक देखा जा सकता है। एक प्रकार की अनैतिक आक्रमकता आज के हमारे सत्ता-तंत्र में हैं, जबकि विजयी व्यक्ति या वर्ग को अपेक्षाकृत विनम्र ही होना चाहिए। बाजारवादी जीवन दृष्टि ने आज हमारी सारी ही सिद्धांतनिष्ठा को स्पंज बनकर सोख लिया है। पूँजी ने हमारे दीन-ईमान तक को आज एक बाजारू वस्तु बना दिया है। चरित्र-निर्माण पर अब कई पीढ़ी के लिए वही कैरियर निर्माण हेतु कार्यकुशलता प्राथमिक वस्तु बन गई है।
अस्तु ऐसी विषम परिस्थिति में डॉ. धर्मचन्द्र विद्यांलकार जैसे सजग और संवेदनशील साहित्यकार ने इन गजलों में वर्तमान व्यवस्था की विद्रूप विसंगतियों पर जमकर प्रहार किया है! भारतीय समाज का एक प्रकार से जो मानसिक विभाजन वर्तमान सत्ता-व्यवस्था ने मत मजहब के आधार पर किया है, उसका भी प्रबल प्रतिनिधि इस गजल संग्रह में उन्होंने किया है! धर्मचन्द्र विद्यालंकार की गजलों में जहाँ पर भाषा में ताजगी और रवानी है; वहीं पर उनका विचार बोध भी भावबोध से मिलकर एकाकार हो गया है। यदि मुक्ति बोध के शब्दों में कहा जाए तो कबीरा खड़ा बीच बाजार में ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान का मणि-कांचन सुयोग ही है। साम्राज्यवाद का भी यहां पर प्रखरता के साथ प्रतिरोध भी किया गया है।
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