ज्योतिष-रत्नाकर
होराशास्त्र से सम्बन्धित यह ग्रन्थ ज्योतिषशास्त्र के मुख्य-मुख्य आचार्यों के मतों को लेकर लिखा गया है । १०५५ पृष्ठों के इस बृहदाकार कथ में ज्योतिष के सभी विषय सरल रीति से समझाये गए हैं ।
ग्रन्थ दो भागों में विभाजित है किन्तु दोनों भाग एक ही जिल्द में आ गये हैं । सम्पूर्ण गन्ध के तीन प्रवाह हैं । प्रथम भाग में गणित प्रवाह और ज्योतिष रहस्य प्रवाह दिए गए हैं, द्वितीय भाग में व्यावहारिक प्रवाह हैं । तीनों प्रवाह ३४ अध्यायों और ३५७ धाराओं में विभाजित हैं ।
विषय की दृष्टि से - सम्पूर्ण ग्रन्थ के ३४ अध्यायों में संवत्सर, दिन, मास आदि कालज्ञान कराने के साथ-साथ नक्षत्र, ग्रह, राशि, लग्न भाव, दशा, अरिष्ट मृत्यु विद्या, विवाह, सम्पत्ति, व्यवसाय, धर्म, आयु अष्टकवर्ग, जन्मलग्न योग, रोग, अवस्था, महादशा, अन्तरदशा, गोचर, मुहूर्त आदि ज्योतिष-शास्त्र के महत्त्वपूर्ण विषयों पर शास्त्र के आधार पर आधुनिक ढंग से विचार किया गया है । द्वितीय प्रवाह में १५ से २२ तक के अध्यायों को तरंग नाम देकर मनुष्य के जीवन पर ज्योतिषशास्त्रानुसार विचार प्रकट किए गए हैं । प्रथम तरंग में अरिष्ट, द्वितीय में परिवार, तृतीय में विद्या, चतुर्थ में विवाह, पंचम में संतान, षष्ठ में व्यवसाय, सप्तम में धर्म और अष्टम में आयु सम्बन्धी विवेचन हुआ है । जीवन के तरंगों का एवंविध अंकन इस गन्ध का विशेष योगदान है ।
व्याख्या-शैली सरल है । ६२ चक्रों के समावेश से सुगम शैली को सुगमतर बना दिया गया है । परिशिष्ट में कतिपय प्रख्यात महापुरुषों की तथा बालक, बालिका, महिलाओं की १३ कुण्डलियाँ हैं जो व्यावहारिक ज्योतिषज्ञान में अतीव उपयोगी सिद्ध होंगी ।
भूमिका
प्राचीन विद्वानों ने ज्योतिष को साधारणत: दो भागों में बांटा है : सिद्धान्त-ज्योतिष और फलित-ज्योतिष । जिस भाग के द्वारा ग्रह, नक्षत्र आदि की गति एवं संस्थान आदि प्रकृति का निश्चय किया जाता है उसे सिद्धान्त-ज्योतिष कहते हैं । जिस भाग के द्वारा ग्रह, नक्षत्र आदि की गति को देखकर प्राणियों की अवस्था और शुभ अशुभ का निर्णय किया जाता है उसे फलित-ज्योतिष कहते हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में सिद्धान्त और फलित दोनों का समावेश मिलता है । ग्रन्थ के दो भाग हैं जो कि पाठक की सुविधा के लिये एक ही जिल्द में रखे गये हैं प्रथम भाग में जन्म पल का पूरा प्रावधान है; द्वितीय भाग में कुण्डलियों के उदाहरण से फल दर्शाया गया है । सिद्धान्त और फलित का समन्वय करके दोनों भाग ड्तरेतर पूरक हो जाते हैं ।
ज्योतिष एक महत्वपूर्ण उपयोगी विषय है । वेद के छ: अंगों में ज्योतिष चतुर्थ अंग है जिसे नेत्र कहा गया है; अन्य अंगों में शिक्षा नासिका है, व्याकरण मुख है, निरुक्त कान है, कल्प हाथ है, छन्द चरण है । यह विद्या भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है । लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की कृति वेदाङ्गज्योतिष से इसकी प्राचीनता का पर्याप्त परिचय मिलता है । वैदिक कालीन महर्षियों को तारामण्डल की गतिविधियों का पूर्ण ज्ञान था इसमें सन्देह नहीं है ।
ब्राह्मण ग्रन्यों में ज्योतिष सम्बन्धी प्रसङ्ग बिखरे पड़े हैं । साम ब्राह्मण के छान्दोग्य- भाग (प्रपाठक ७, खण्ड १ प्रवाक् २) में नारद-सनत्कुमार संवाद है जिसमें चौदह विद्याओं का उल्लेख है । इनमें १३ वीं नक्षत्र विद्या है ।
सूर्य -सिद्धान्त सिद्धान्तज्योतिष का आर्ष ग्रन्थ है । इसमें सिद्धान्त-ज्योतिष की प्राय: सभी बातें पाई जाती हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ( ३.४.६) में सूर्य, पृथ्वी, दिन तथा रात्रि के सम्बन्ध में जो चर्चा मिलती है उससे ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में भी भारतवासी ग्रहों और ताराओं के भेद को भली-भांति जानते थे ।
फलित-ज्योतिष में विश्वास न रखने वाले कतिपय विद्वान् सिद्धान्त-ज्योतिष की अपेक्षा फलित-ज्योतिष को अर्वाचीन एवं मिथ्या कहते हैं, किन्तु रामायण एवं महाभारत के परिशीलन से हमें विदित होता है कि उस सुदूर काल में भी फलित ज्योतिष का बहुत प्रचार था । महाभारत (अनुशासन पर्व अध्याय ६४) में समस्त नक्षत्रों की सूची दी गई है और बतलाया गया है कि भिन्न-भिन्न नक्षत्र पर दान देने से भिन्न-भिन्न प्रकार का पुण्य होता है । भीष्म पर्व में उत्तरायण और दक्षिणायन में मृत्यु हो जाने के फल कहे हैं । वहीं २७ नक्षत्रों के २७ भिन्न-भिन्न देवताओं का वर्णन है और देवताओं के स्वभावानुसार नक्षत्रों के गुण-अवगुण का निरूपण किया गया है । महाभारत के उद्योग पर्व( अध्याय १४६) में ग्रहों और नक्षत्रों के अशुभ योग विस्तारपूर्वक कहे हैं । वहीं जब श्रीकृष्ण ने कर्ण से भेंट की तब कर्ण ने ग्रहस्थिति का इस प्रकार वर्णन किया है उग्र ग्रह शनैश्चर -रोहिणी नक्षत्र में मंगल को पीड़ा दे रहा है । ज्येष्ठा नक्षत्र से मंगल वक्र होकर अनुराधा नक्षत्र से मिलना चाहता है । महापात संज्ञक ग्रह चित्रा नक्षत्र को पीड़ा दे रहा है । चन्द्र के चिह्न बदल गये हैं और राहु सूर्य को ग्रसना चाहते हैं ।
भीष्म पर्व में पुन: हम अनिष्टकारी ग्रह-स्थिति देखते हैं : १४,१५ और १६ दिनों के पक्ष होते हैं किन्तु १३ दिनों का पक्ष इसी समय आया है । इससे भी अधिक विपरीत बात यह है कि एक ही मास में चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण का योग है । वह भी त्रयोदशी के दिन । महाभारत के इन तथा अन्य प्रसंगों से ज्ञात होता है कि नाना प्रकार के उत्थान(दुर्भिक्ष आदि) ग्रहों की चाल पर अवलम्बित माने जाते थे । लोगों का विश्वास था कि व्यक्ति के सुख-दुख जन्म-मरण आदि भी ग्रहों तथा नक्षत्रों की गति से सम्बद्ध हैं । आधुनिक वैज्ञानिक तारागण के प्रभाव से परिचित हैं । समुद्र में ज्वार-भाटा का कारण चन्द्रमा का प्रभाव है । जिस प्रकार चन्द्रमा समुद्र के जल में उथल-पुथल कर देता है उसी प्रकार बह शरीर के रुधिर प्रभाव में भी अपना प्रभाव डालकर दुर्बल मनुष्य को रोगी बना देता है ।
सूर्य और चन्द्रमा का प्रभाव मानव तक ही सीमित नहीं अपितु वनस्पतियों पर भी पड़ता है । पुष्प प्रात: खिलते हैं, सायं सिमिट जाते हैं । श्वेत कुमुद रात को खिलता है, दिन में सिमिट जाता है । रक्त कुमुद दिन में खिलते हैं, रात को सिमिट जाते हैं । तारागणों का प्रभाव पशुओं पर भी पड़ता है । बिल्ली की नेत्र-पूतली चन्द्रकला के अनुसार घटती बढ़ती रहती है । कुत्ते की कामवासना आश्विन-कार्त्तिक मासों में बढ़ती है । बहुतेरे पशु-पक्षी, कुत्तों, बिल्लियों, सियारों, कौओं के मन एवं शरीर पर तारागण का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ता है किं वे अपनी नाना प्रकार की बोलियो से मनुष्य को पूर्व ही सूचित कर देते हैं कि अमुक अमुक घटनायें होने को हैं ।
ज्योतिष के अठारह प्रवर्तक माने गये हैं- ( १) सूर्य, ( २) ब्रह्मा, ( ३) व्यास,(४) वसिष्ठ, ( ५) अति, ( ६) पराशर, ( ७) कश्यप, ( ८) नारद, ( ९) गर्ग,( १०) मरीचि, ( ११) मुनि, ( १२) अंगिरस, ( १३) लोमश, ( १४) पौलिश, ( १५) व्यवन, ( १६) यवन, ( १७) मनु, ( १८) शौनक । इनमें एक यवन नाम है । यवनों में इस विद्या का विशेष प्रचार होने से कतिपय विद्वान् समझ बैठे हैं कि यह विद्या भारत में विदेश से आई शै किन्तु तथ्य इसके विपरीत है । कतिपय विदेशी शब्दों के प्रयोग से कोई विद्या विदेश की नहीं हो जाती । अरबी भाषा के साहित्य से ज्ञात होता है कि कई भारतीय ज्योतिर्विद् बगदाद की राजसभा में आये थे और उन्होंने अरब देश में ज्योतिष का प्रचार किया था । इसी प्रकार अन्य देशों में भी ज्योतिषशास्त्रियो का आवागमन होता रहा होगा । इन प्रवासियों के कारण यदि कुछ विदेशी शब्द हमारी भाषा में जुड़ गये तो इससे हमारी विचार-पद्धति पर विदेशी प्रभाव का होना सिद्ध नहीं होता है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ भारत देशान्तर्गत बिहार प्रदेश निवासी श्री देवकीनन्दन सिंह की कृति है । यह ग्रन्थ ज्योतिष शास्त्र के मुख्य मुख्य आचार्यो के मतों को लेकर आधुनिक ढंग से लिखा गया है । सम्पूर्ण पुस्तक की व्याख्या हिन्दी भाषा में सरल रीति से की गई है । होरा शास्त्र से सम्बन्धित यह ग्रम्य पाठक के लिये अवश्य ही उपयोगी सिद्ध होगा-हमारा विश्वास है ।
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