सन् 1965 हिन्दी भाषा के लिए बहुत ही महत्व का वर्ष था। ठीक उसी वर्ष मार्च में मुझे भारत सरकार के निमंत्रण पर एक माह भारत भ्रमण का अवसर मिला था। सौभाग्य की बात यह थी कि वर्षा में विनोबा जो के दर्शन हुए। उस समय वे मौन व्रत में थे। इस लिए लिखकर लगभग आधे घंटे विचार-विनिमय किया। जब मैंने अपने योग्य सेवा की बात पूछी तो उन्होंने लिखा कि यदि तुम नागरी लिपि में जापानी भाषा सिखाने की पुस्तक लिखोगे तो भारत व जापान के लिए बहुत ही बड़ी सेवा करोगे। 12 वर्ष बाद मुझे यह वादा पूर्ण करने का अवसर मिल गया है। यह सुअवसर दिलाने के लिए मैं श्री यशपाल जी जैन को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
जापानी भाषा एक विचित्र भाषा है। गठन की दृष्टि से यह कोरियाई, मंगोली, मंचू और तुर्की भाषाओं से मिलती जुलती है। पर जापानी भाषा पर चीनी भाषा का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। जापानी लिपि चीनी लिपि से बनाई गई है और अब जापानी भाषा चीनी चित्र लिपि और जापानी लिपि को मिलाकर लिखी जाती है। दूसरी ओर चीन से होते हुए भारत का प्रभाव भी कम नहीं। बौद्ध धर्म का अध्ययन करते हुए जापानी श्रमणों ने संस्कृत सीखी। जापानी वर्ण- माला का क्रम ठीक संस्कृत वर्णमाला के अनुकरण पर बना है। वाक्य विन्यास व उच्चारण की दृष्टि से भी हिन्दी और जापानी खूब मिलती जुलती हैं। फिर भी हिन्दी भाषा रूप विचार की दृष्टि से भारत-यूरोपीय भाषा की विशेषता रखतो है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि हिन्दी और जापानी दोनों भाषाओं के अध्ययन से हम एशिया और यूरोप को बाँधने का बड़ा महत्त्व का काम कर सकते हैं।
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