ईश्वर की अनन्य भक्ति में डूबकर मनुष्य बाह्य चेतना को समेटकर अपने अंतर की गहराइयों में उतरता चला जाता है। ऐसे में उसके साथ कोई कैसा भी व्यवहार करे उसकी कोई प्रतिक्रिया उसके अंदर नहीं होती। उसकी अंतरमुखी चेतना जब उसे उस परमसत्ता से मिला देती है तो वह अनन्त सुख के सागर में निमग्न रहता है। ऐसे भक्त के योग क्षेम का भार स्वयं सृष्टि नियंता पर जा पड़ता है। प्रस्तुत 'जड़ भरत' की कथा इसी तथ्य को दर्शाती है।
'अंत मता सो गता' वाली उक्ति भी इस कथा से चरितार्थ होती है। मृत्यु के अंतिम क्षणों में मनुष्य की प्रवृत्ति जहां और जिधर होती है उसी के अनुरूप उसे अगला जन्म मिलता है। महाराज भरत की प्रवृत्ति गृह त्याग के अनन्तर भी शरीर छोड़ते समय मृग शावक में रह गई, इसीलिए उन्हें मृग का शरीर धारण करना पड़ा।
तत्त्वज्ञान के बिना आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति तो दूर प्रवेश भी संभव नहीं। राजा रहगण तत्त्वज्ञान न होने के कारण ही 'जड़ भरत' जैसी महान आत्मा को पहचान नहीं पाते और साधारण कहार की तरह उन्हें पालकी में जोतते हैं जबकि रहृगण स्वयं भगवान कपिल के पास ज्ञान की प्राप्ति की अभिलाषा से जा रहे थे। अंततः जड़ भरत के मुंह से तत्त्वज्ञान की बातें सुनकर उनका हृदय परिवर्तन होता है और वह उनके चरणों में गिर जाते हैं।
यह पौराणिक कथा अध्यात्म पथ के राही के साहस, धैर्य, सामर्थ्य, आशा और विश्वास को अडिग आधार प्रदान करे, इस शुभाकांक्षा के साथ हम इसे एक सचित्र लघु पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं।
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