पुस्तक के विषय में
बुद्धि भावना और कर्म के जागरण का तात्पर्य एक बेहतर मनुष्य के अन्वेषण और विकास से है। बेहतर बनने की सम्भावना मनुष्य में पहले से निहित है। यदि तुम आशावादी सकारात्मक और सृजनात्मक बने रह सको अपने विचारों और भावनाओं में संतुलन और सामजंस्य बनाये रख सको तो तुम्हारे व्यक्तित्व का कायाकल्प हो जाएगा तुम्हारे पुराने व्यक्तित्व की राख से एक नया प्रकाशमान् व्यक्तित्व प्रकट होगा वह नया व्यक्तित्व एक योगी का होगा। यही वह योग यात्रा है जिसके बारे में स्वामी शिवानन्द जी कहा करते थे और यही वह योग- यात्रा है। जिस पर स्वामी सत्यानन्द जी ने हम सब को अग्रसर किया है।
सन् 2009 से स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती के जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ है और मुंगेर में योगदृष्टि सत्संग शृंखला के अन्तर्गत योग के विभिन्न पक्षों पर दिये गये प्रबोधक व्याख्यान स्वामीजी की इसी नयी जीवनशैली के अंग हैं।
बुद्धि, भावना और कर्म का समग्र योग, स्वामीजी द्वारा गंगा दर्शन में अक्टूबर 2010 में दिये सत्संगों का विषय था । इन सत्संगों में स्वामीजी ने सरस एवं सुबोध शैली में समझाया कि किस प्रकार इन प्रतिभाओं की प्रकृति को समझकर और एक क्रमबद्ध प्रणाली द्वारा इन्हें परिष्कृत एवं रूपान्तरित कर, हम अपने मन और भावनाओं में सामंजस्य ला सकते हैं और अपने कर्मों के प्रति नवीन दृष्टिकोण अपना सकते हैं । ऐसी स्थिति में हमारे व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास सुलभता से हो सकता है।
स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती
'एक यात्री था जो अनन्त काल से यात्रा करता आ रहा था उसकी यात्रा का उद्देश्य अपने नगर पहुँचना था पर वह नगर कत दूर था। यात्री धीरे- धीरे अपने पगों को अपने गन्तव्य की ओर बढ़ाते चलता था। नगर का नाम था ब्रह्मपुरी और यात्री का नाम था श्रीमान् आत्माराम सन् 2009 से स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती के जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ है और मुंगेर में योगदृष्टि सत्संग शृंखला के अन्तर्गत योग के विभिन्न पक्षों पर दिये गये प्रबोधक व्याख्यान स्वामीजी की इसी नयी जीवनशैली के अंग हैं।
हिमालय पर्वतों के सुरम्य, एकान्तमय वातावरण में गहन चिंतन करने के बाद स्वामीजी ने गंगा दर्शन लौटकर जून 2010 की योगदृष्टि सत्संग शृंखला में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति-मार्ग को अपने सत्संगों का विषय चुना। उनके विवेचन की शुरुआत एक प्रतीकात्मक कथा से होती है जिसका मुख्य नायक, आत्माराम, अपने गन्तव्य, ब्रह्मपुरी की ओर यात्रा कर रहा है। इस कथा को आधार बनाकर स्वामीजी ने बहुत सुन्दर ढंग से प्रवृत्ति तथा निवृत्ति मार्ग के मुख्य लक्षणों, साधनाओं और लक्ष्यों का निरूपण किया है। सांसारिक जीवन जीते हुए भी किस प्रकार सुख, सामंजस्य और संतुष्टि का अनुभव किया जा सकता है; जीवन के किस मोड़ पर साधक वास्तविक रूप से आध्यात्मिक मार्ग पर आता है; और साधक की इस यात्रा में मार्गदर्शक की क्या भूमिका होती है-आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्धित इन सभी आधारभूत प्रश्नों का उत्तर इन सत्संगों में निहित है।
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