पुस्तक के बारे में
न मेधया
विलायती प्रभाव में जनमी उन्नीसवीं सदी की भारतीय मानस-मनीषा के सन्दर्भ में श्री रामकृष्ण परमहंस की नैसर्गिक प्रतिभा की निजता को उजागर करती है प्रस्तुत कृति 'न मेधया' । वाचिक शिक्षा की निर्मिति और वाचिक शिक्षा-परम्परा के सिद्ध आचार्य श्री रामकृष्ण की विद्या का मूल्य मूर्धन्य आधुनिक बौद्धिकों की औपचारिक विद्या की तुलना में बहुत ऊँचा रहा है । जन-जन को आलोक-स्पर्श देनेवाली परमहंस की वाचिक शिक्षा के सामने आधुनिक औपचारिक शिक्षा का लोक-मूल्य बहुत छोटा था । इस मार्मिक सत्य के सटीक बोध का ही परिणाम था कि अपने समय के शीर्ष बौद्धिक ब्रह्मानन्द केशवचन्द्र सेन की बौद्धिकता अपढ़ परमहंस के समक्ष नत हो गयी थी ।
श्री रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक लीला-चर्या के जागतिक सरोकार को यह पुस्तक वैचारिक विधि से रेखांकित करती है । परमहंस के लीला-प्रसंग के मार्मिक तथ्यों के आधार पर लेखक ने इस सत्य को उजागर किया है कि श्री रामकृष्ण की लीला-चर्या मनुष्य मात्र की यातना के प्रति सदा संवेदनशील रहती थी ।
भारतीय ज्ञानपीठ का लोकप्रिय प्रकाशन 'कल्पतरु की उत्सव लीला' के लेखक कृष्ण बिहारी मिश्र की परमहंस-प्रसंग पर केन्द्रित यह दूसरी पुस्तक है । मिश्रजी इस पुस्तक को 'कल्पतरु की उत्सव लीला' का पूरक अध्याय मानते हैं । ' कल्पतरु की उत्सव लीला ' का रचना-विन्यास सर्जनशील है । यह पुस्तक श्री रामकृष्ण की भूमिका का मूल्यांकन आधुनिक विचार- कोण से करती है, और परमहंस-लीला की प्रासंगिकता को रेखांकित करती है । ज्ञानपीठ आश्वस्त है, विभिन्न आधुनिक विचार-बिन्दुओं पर केन्द्रित कृष्ण बिहारी मिश्र का यह विमर्श आधुनिक विवेक द्वारा समर्थित- समादृत होगा । उन्नीसवीं सदी के तथाकथित नवजागरण को निरखने-परखने की एक नयी वैचारिक खिड़की खोलती है यह पुस्तक-'न मेधया' ।
लेखक के विषय में
कृष्ण बिहारी मिश्र
जन्म : 1 जुलाई, 1936 बलिहार, बलिया (उ.प्र.)
शिक्षा : एम. ए. (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) एवं
पी-एच. डी. (कलकत्ता विश्वविद्यालय) ।
1996 में बंगवासी मार्निंग कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से सेवा- निवृत्त । देश - विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों, शिक्षण-संस्थानों के सारस्वत प्रसंगों में सक्रिय भूमिका ।
प्रमुख कृतियाँ : ' हिन्दी पत्रकारिता : जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण- भूमि', 'पत्रकारिता : इतिहास और प्रश्न ', ' हिन्दी पत्रकारिता : जातीय अस्मिता की जागरण- भूमिका', 'गणेश शंकर विद्यार्थी', 'हिन्दी पत्रकारिता : राजस्थानी आयोजन की कृती भूमिका '(पत्रकारिता); 'अराजक उल्लास, 'बेहया का जंगल ', 'मकान उठ रहे हैं', 'आँगन की तलाश', 'गैरैया ससुराल गयी' (ललित निबन्ध); ' आस्था और मूल्यों का संक्रमण ', 'आलोक पंथा', 'सम्बुद्धि', 'परम्परा का पुरुषार्थ', 'माटी महिमा का सनातन राग '(विचारप्रधान निबन्ध); 'नेह के नाते अनेक ' (संस्मरण); ' कल्पतरु की उत्सव लीला ' और ' न मेधया '(परमहंस रामकृष्णदेव के लीला-प्रसंग पर केन्द्रित)। अनेक कृतियों का सम्पादन; 'भगवान बुद्ध '(यूनू की अँग्रेजी पुस्तक का अनुवाद) ।
'माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय 'द्वारा डी. लिट. की मानद उपाधि । 'उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान' के 'साहित्य भूषण पुरस्कार', 'कल्पतरु की उत्सव लीला 'हेतु भारतीय ज्ञानपीठ के 'मूर्तिदेवी पुरस्कार' से सम्मानित।
भूमिका
तम:शान्तये
परमहंस श्री रामकृष्ण के लीला-प्रसंग में डूबने-तिरने का निमित्त बनी पं. विद्यानिवास मिश्र की प्रेरणा, जो पुष्ट भरोसा से जगी छोहभरी थी । और प्रच्छन्न उद्देश्य था, ' स्वान्तः तम: शान्तये'। यह दुर्निवार साध भीतर-बाहर के तमस् को चीन्हते-जूझते एक ऐसे दिव्य लीला-छन्द के रूपायन में डूब गयी, जो धरती-राग का अँजोर अपने नैसर्गिक अनर्गल विन्यास में गा रहा था । वह ' कल्पतरु की उत्सव लीला ' थी, जो उन्नीसवीं सदी के सांस्कृतिक अन्धड़ में जनमी थी और ठेठ गँवई अन्दाज में ज्योति बरसाते थिरकती रही सनातन विभा की स्वामिनी-'मुद्रा में । और कैसा अराजक जोम था परमहंस का, '' रख तेरा ब्राह्म समाज! मुझे बाबू नहीं सजना है । नरेन भी मेरे जैसे बउड़म को शिष्टाचार सिखाता है और तू भी सज-बज कर आने की बात कहता है । केशव जैसे पढ़वइये रईस की यह जगह है । मेरे जैसे देहाती उजबक के लिए अपनी माँ का अतोन ही ठीक है । माँ के आँगन में छोह के सिवा और क्या होता है शिष्टाचार! मेरे लायक यही है । और हुज्जती नरेन! रुला देता है साला अपनी हुज्जत से । विलायती शिष्टाचार सिखाता है...स्साला!'' शीर्ष ब्राह्म नायक देवेन्द्रनाथ ठाकुर से बतियाते अपना पक्ष स्पष्ट किया था ठाकुर ने । मन में जमा तमस् और सन्ताप हरनेवाली परमहंस की ललित झिड्की कैसा अँजोर रच देती है बात-की बात में!
और एक खिड़की खुली रोशनी की । रोशनी की कमाई निहाल कर देती है । वह तर्क से जनमे सघन तमस् में आस्था को बाती थी, जो परमहंस श्री रामकृष्ण की सहज साधना ने जलायी थी, जिसक आलोक संस्पर्श से लोक-चित्त की मरुआई जीवनप्रियता और आश्वस्ति पुनर्नवा हो उठी। श्री रामकृष्ण के सहज प्रातिभ ज्ञान का पोथी-प्रपंच से कोई सरोकार नहीं था । पोथी के माध्यम से कमाये ज्ञान की लघुता श्री रामकृष्ण के समक्ष दीन मुद्रा में खड़ी थी । श्री रामकृष्ण की नैसर्गिक प्रातिभ ज्योति ही उनकी लीला-चर्या का विन्यास निर्धारित करती थी, पोथी-प्रपंच में जनमी तर्क-बुद्धि से उनका कोई सरोकार नहीं था । ध्यातव्य है, बीसवीं शताब्दीके विश्वसमादृत लोकनायक महात्मा गाँधी भी अपने सत्य के संधान के लिए तर्क पर अन्तरात्मा की आवाज को, जो निःसन्देह सहज विवेक का ही अनुशासन था, वरीयता देते थे । इसलिए यह अस्वाभाविक नहीं था कि उनके असाधारण निर्णय और कर्म-पंथा की आकस्मिक घोषणा बौद्धिक धौरन्धरिकों को चकित कर देती थी, और सारे संशय के बावजूद उनकी तर्क-बुद्धि गाँधीजी के सत्य, उनकी अन्तरात्मा की आवाज के सामने निरुपाय हो जाती थी । अन्तत : गाँधी-मार्ग ही सत्य-मार्ग के रूप में सवीकृत होता था । परमहंस श्री रामकृष्ण की मनस्विता के बोल उनकी अन्तरात्मा के ही बोल थे, वह उनके सत्य की ज्योति थी, जिसके सामने मूर्धन्य बौद्धिकता की रोशनी मन्द पड़ गयी थी ।
परमहंस श्री रामकृष्ण के लीला लालित्य की ज्योति के मानवीय पक्ष की सांस्कृतिक भूमिका के मूल्यांकन की विनम्र प्रचेष्टा इस छोटी पुस्तक के माध्यम से लेखक ने की है । ' कल्पतरु की उत्सव लीला ' के रसज्ञों तथा सहृदय पाठकों की अपेक्षा- आकांक्षा की पूर्ति की ही यह चेष्टा है । इसलिए इसे ' कल्पतरु की उत्सव लीला ' का ही पूरक अध्याय मानना चाहिए । परमहंसदेव औपनिषदिक ऋषियों की तरह सत्य-साक्षात्कार के तर्क-वितर्क और वाद-प्रतिवाद को अपर्याप्त मानते थे । पर उनके प्रत्यय की महत्ता को उजागर करने के लिए बौद्धिक विमर्श का किंचित् सहारा लेना लेखक की लाचारी रही है, मूल प्रयोजन से जुड़ी अपरिहार्यता । परमहंसदेव के लीला-प्रसंग की अक्षर-प्रस्तुति करते मेरी मनोदशा एक भिन्न धरातल पर केन्द्रित हो गयी थी । स्वाभाविक था ' कल्पतरु की उत्सव लीला ' के संवेदनशील पाठकों के सन्दर्भ में कि वे ' परकाया प्रवेश ' और ' परचित्त प्रवेश ' का प्रश्न उठाते । और ऐसे संवेदनशील प्रसंग मुझे संकोच-नत करते रहे । सहज विनम्रता के साथ अपनी क्षीण क्षमता का संकेत करते जटिल प्रश्न का सरल उत्तर देता रहा । पर इस सचाई का आस्वाद मेरे भीतर कायम रहा था कि श्री रामकृष्ण परमहंस के लीला-प्रसंग की पुनर्रचना करते एक सर्वथा भिन्न आबोहवा मेरे मानस में जगी थी, जिसका सर्जन-कर्म के अन्य सन्दर्भों में पहले अनुभव नहीं हुआ था । यद्यपि सर्जन का प्रत्येक क्षण और प्रत्येक अवसर मुझे एक दिव्य आस्वाद से सम्पन्न करता रहा है, पर परमहंस-लीला का संस्पर्श सर्वथा भिन्न था । और उस रचना-साधना में सत्य का जो क्षीण कतरा, मेरी लघु पात्रता के अनुरूप, उपलब्ध हुआ, मुझे आश्वस्त करने के लिए अलम् था ।
'कल्पतरु की उत्सव लीला ' -की मेरो रचना-यात्रा वायवी लोक की यात्रा नहीं थी । अपने समय के प्रति एक जागरूक बोध अशिथिल था मेरे भीतर । यह चिन्ता-चेतना कि उन्नीसवीं शताब्दी के परमहंस के लीला-प्रसंग में व्यंजित अनुशासन का, इक्कीसवीं सदी के उपभोक्ता-सभ्यता के अन्धड़ से आहत मनुष्य की व्याकुल जीवन-चर्या के लिए क्या मूल्य-महत्त्व है । इसी विवेक ने 'कल्पतरु की उत्सव लीला ' का रूपायन किया है ।
परमहंस-लीला से जुड़े और सनातन मूल्यों पर केन्द्रित उस अनुशासन के विभिन्न कोणों को, साम्प्रतिक सन्दर्भ में, यह पुस्तक प्रस्तुत करती है । परमहंस श्री रामकृष्ण की लीला सनातन मूल्यों को आधुनिक ज्योति से दीपित करते थिरकती रही, सनातन आस्था ही परमहंस के लीला-प्रसंग में पुनर्नवा हुई है । इसे ही विनोबा भावे ने ' विचार क्रान्ति की अहिंसक प्रक्रिया ' कहा है। विचार-क्रान्ति की परमहंस- लीला भूमिका के मर्म-बिन्दुओं को स्पर्श करने की विनम्र प्रचेष्टा परमहंस देव की आधुनिक प्रासंगिकता को उजागर करने की ही चेष्टा है ।
मेरे प्रीतिभाजन श्री प्रमोद शाह ने शीर्षस्थ स्वरशिल्पी पं. जसराज को ' कल्पतरु की उत्सव लीला' की प्रति जोधपुर में सादर भेंट की थी । पुस्तक पढ़ने के बाद लेखक से मिलने-बतियाने की पण्डितजी के मन में सहज इच्छा जगी । एक वर्ष बाद पं. जसराज जी का कोलकाता आगमन हुआ तो उनके अत्यन्त प्रिय डॉ. शशि शेखर शाह आग्रहपूर्वक मुझे उसने मिलाने ले गये।' कल्पतरु की उत्सव लीला ' का प्रभाव ताजा था । उसी प्रसंग पर हमारी बतकही केन्द्रित हो गयी । घंटे-डेड़ घंटे हम उस भाव में डूबे रहे । बीच-बीच में पण्डितजी की आँखों से विगलित होकर उनका भाव बरसता रहा । और जब मुझे विदा करने मुख्य द्वार पर पहुँचे मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, '' आपको एक और पुस्तक लिखकर ठाकुर- पूजा की पूर्णाहुति करनी है । '' सहज विनय के साथ मैंने अपनी लाचारी की ओर इशारा किया, '' गहरी थकान महसूस कर रहा हूँ पंडीजी । '' '' मैं नहीं जानता । केवल इतना समझता हूँ कि मेरे हृदय की भाषा मेरे कंठ से फूट रही है । कोई मुझ से यह भाषा बोलवा रहा है । इतना ही । इसलिए यह सम्भव होकर रहेगा । '' पण्डितजी की आस्था का जवाब केवल मौन था । मगर ' न मेधया ' की प्रेस कापी जब तैयार हुई तो पं. जसराजजी की वह भाव मुद्रा मेरी आँखों के सामने खड़ी हो गयी । वह मुद्रा और वह मुहूर्त, जब वह सात्त्विक भाव मुखर हुआ था, मेरे लिए प्रणम्य और अविस्मरणीय है ।
मेरे विद्या-प्रकल्प के सहज रूपायन के लिए हर प्रकार का आनुकूल्य उपलब्ध कराने के लिए मेरे अनन्य मित्र स्व. रेवती लाल शाह का परिवार सदा संवेदनशील रहता है । श्री नन्दलाल शाह और श्री प्रमोद शाह मेरे अनुज प्रतिम हैं, जिनके प्रति मेरी मंगलेच्छा सुमुख रहती है और जिन्हें मेरे सुख की चिन्ता रहती है । इन्हीं के उद्योग से श्री विश्वम्भर दयाल सुरेका ने 'मनो विकास ट्रस्ट' से आनुकूल्य उपलब्ध कराया, जिसके लिए सहज भाव से आभारी हूँ । और चि. रामनाथ की व्यावहारिक भूमिका मेरे लिए सर्वाधिक मूल्यवान सम्बल है । मेरे ज्येष्ठ कुमार चि. कमलेश कृष्ण के सुझाव ने पुस्तक के विन्यास को सही दिशा दी है । प्रीतिभाजन श्री नन्दलाल सेठ की सेवा अविस्मरणीय है । इन आत्मीयजन के लिए अशेष आशीर्वाद । सहयोग की यह जमीन उर्वर बनी रहे ताकि मेरी विद्या-चर्या शिथिल न हो, यही काम्य है ।
मेरी संवेदना और प्रत्यय को ' न मेधया ' शीर्षक रम्य रचना ललित शिल्प में उजागर करती है। इसे परिशिष्ट रूप में इस पुस्तक में संकलित करने का हेतु सहृदय क्षम्य होगा ।
'कल्पतरु की उत्सव लीला ' के भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशन का आग्रह ज्ञानपीठ के आजीवन न्यासी श्री आलोक जैन ने किया था । इस पुस्तक के प्रकाशन के लिए भी श्री जैन ने सहज इच्छा और आग्रह प्रकट किया । भारतीय ज्ञानपीठ के न्यासी सम्मान्य श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी ने भी श्री रामकृष्ण परमहंस की महत् भूमिका पर केन्द्रित इस पुस्तक के प्रकाशन के. लिए ' कल्पतरु की उत्सव लीला' के प्रकाशन-प्रतिष्ठान को वरीयता दी । और इसके प्रकाशन में भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया और मुख्य प्रकाशनाधिकारी डॉ. गुलाबचन्द्र जैन ने गहरी रुचि प्रकट की, प्राथमिकता के साथ अल्प समय में पुस्तक को लोकार्पित किया, जो लेखक को काम्य था । इन सबके प्रति सहज आभार ।
अनुक्रम
1
तम: शान्तये (भूमिका)
7
खण्ड-एक
2
जातीय प्रत्यय : नवोन्मेष
17
3
अहिंसा-भित्तिक परमहंस की चित्तभूमि
40
4
रामकृष्ण की अध्यात्म-साधना : आधुनिक चेतना
की विधायक इंगिति
51
5
भोग-विक्षिप्त समय : परमहंस-साधना की प्रासंगिकता
63
खण्ड-दो
6
मूर्तिमान तितिक्षा : शारदामणि
81
समर्पण-निष्ठा का विग्रह : लाटू महाराज
92
8
बौद्धिकता का विधायक आयाम : मास्टर महाशय
103
9
ऋजुता का उज्ज्वल आधार : गिरीशचन्द्र घोष
113
10
अपरिग्रह की छाया-छवि : नाग महाशय
138
परिशिष्ट
11
155
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