राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान के शल्य विभागाध्यक्ष एवं प्रोफेसर पर पर रहते हुए, मैंने M.D. Shalya के छात्रों को नवीन शोधकर्म करने हेतु प्रेरणा दी। शोधकार्यों की कड़ी में अर्शरोग में क्षारसूत्र चिकित्सा तथा विर्वचिका, कदर, ददु, कटिशूल, गृधृसीवात, ग्रीवाशूल, स्कन्दशूल, जानूशूल प्रष्टशूल आदि विभिन्न रोगों में अग्निकर्म चिकित्सा और गृध्रसीवात तथा शिरा कौटिल्यता (Vari- cose vein) और विभिन्न रक्त विकारों में रक्तमोक्षण (शिरावेध) द्वारा चिकित्सा की गई। क्योंकि शल्य शास्त्र में शिरावेध तु अर्ध चिकित्सा कही गई है।
इसी प्रकार घातकार्बुद (Cancer) में भी शोधप्रक्रिया प्रारम्भ की गई है। जिसके परिणाम संतोषजनक रहे। अगस्त 2005 में मेरे सेवा निवृत होने के पश्चात् कुछ शोध कार्य बन्द हो गये। जो प्रारम्भ रहने चाहिये।
सवाईमाधोपुर में भारत विकास परिषद द्वारा 14 से 23 फरवरी 1996 में अर्श एवं भगन्दर रोग पर क्षार सूत्र चिकित्सा शिविर का आयोजन हुआ था।
इसमें शहर के सभी डॉक्टर और अन्य सज्जन मेम्बर थे। हमने अर्श भगन्दर रोगियों के शल्य कर्म किये, जो पूर्ण सफल थे। वहां के MD Doctor एक रोगी का पलंग पर लेटाकर लायें तथा कहा कि हमने सभी इलाज कर लिए है। यह रोग 4 माह से लेटा हुआ है। दर्द होता है। खड़ा या बैठा नहीं जाता। आत देखियें। मैंने निरीचण किया तथा देखकर गृध्रसी बात का निदान किया। अग्निकर्म हेतु लौह शलाका साथ में थी। सहयोगियों को अग्निकर्म की तैयारी करने को कहाँ। रोगी में पूर्वकर्म के पश्चात् प्रधानकर्म के अन्तर्गत अग्निकर्म शलाका से कटि, तथा गुल्फ सन्धि पर अग्निकर्म किया गया। बैन्डेज करने के बाद रोगी को मैने बैठने के लिए कहा। फिर उठने के लिए कहा, रोगी उठ गया, फीर चलने को कहा रोगी चलने लगा। फिर मैने कहा दौड़ जाओं, रोगी दौड़ने लगा। उपस्थित सभी लोगों ने कहा कि डॉक्टर साहब आप क्या मंत्र विद्या करते है। मैंने कहा यह आयुर्वेद की सफल अग्निकर्म चिकित्सा है। उस दिन से मेरी इस शल्यविद्या के प्रति अटूट श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी।
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