एक पाठक के नाते छुटपन में ही प्रयाग जी से मेरा परिचय हो चुका था। दिनमान' के पुराने अंकों, नवभारत टाइम्स' तथा 'जनसत्ता' में निबंध कविताओं के साथ कलाओं पर लिखे उनके आलेख - टिप्पणियां भी पढ़ता रहा था। दरअसल किस्से-कहानियों के साथ-साथ दृश्य-कलाओं/ चित्रों से एक सहज लगाव बचपन से रहा लेकिन इस लगाय को विस्तार देने, पुष्पित पल्लवित करने में प्रयाग जी और हिंदी में कला पर लिखनेवाले चंद वरिष्ठ लेखकों की बड़ी भूमिका रही बिहार (अब झारखंड) के एक छोटे-से कस्बे (भीरा) में 'दिनमान' धर्मयुग' 'संडे मेल साप्ताहिक', 'नवभारत टाइम्स' जैसी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कला-स्तंभों, आलेखों, समीक्षाओं, टिप्पणियों से ही कलाओं की दुनिया से शुरुआती परिचय हुआ (विडंबना है कि तब भी हिंदी में कलाओं पर लिखनेवाले इक्का-दुक्का थे, आज भी स्थिति कमोवेश यही है।
बाद में जब हिंदी साहित्य और कलाओं की दुनिया से गहरा लगाव हुआ तो यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि ये हिंदी के उन गिने-चुने लेखकों में हैं, जो कला पर पूरी आत्मीयता से निरंतर लिखते रहे हैं।
साल 1987 में छठी कक्षा में था तब जैसा कि अधिकांश बच्चों के साथ होता था, किशोरावस्था में पाठ्यक्रम की किताबों से अरुचि और इसके समानांतर कॉमिक्स, कहानियों की किताबें, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने का गहरा चस्का लग चुका था (बाद में यही चस्का कहानी-लेखन, पत्रकारिता और कलाओं की दुनिया की ओर ले गया)। उन्हीं दिनों मैंने किसी साप्ताहिक पत्रिका में वॉन गॉग का चित्र 'सूरजमुखी' देखा ('सूरजमुखी' श्रृंखला का एक चित्र) और इसके चटख रंग-रूपाकारों की उष्मा मेरे भीतर कहीं गहरे जा कर पेठ गयी। यह चित्र मैंने सैकड़ों बार देखा और 31 साल गुजर जाने के बाद भी मेरे जेहन में इसकी स्मृति उतनी ही ताजा है। उसके बाद मैंने जब भी सूरजमुखी का कोई फूल देखा, मुझे गोंग का वह चित्र याद आया। यह गॉग के जूनून और गहरे आत्मसंघर्ष से उपजी महान कला का ही जादू है कि मेरी स्मृति में सूरजमुखी अन प्रकृति द्वारा रचित कोई कर एक की कल्पना है।
गाँग के निधन के 100 बरस पूरे होने पर नवभारत 1900) के एक तिहाई रंगीन पृष्ठ में प्रयाग का थाइ को मैंने रस से कर पड़ा, रोमांचित हुआ यह आलेख इस संचयन के और कलाकार खंड में शामिल है) आलेख के जरिये यह भी जानकारी मिली बॉन गॉग एक अच्छे लेखक भी थे। प्रयाग जी ने लिखा था कई लोगों का है कि मॉन गॉग अगर चित्रकार न होते तो शायद यह एक उतने ही बड़े जितने बड़े वह चित्रकार थे। उनके पत्र और डायरियां भी उनके चित्रकार की तरह ही एक बेचैन आत्मा की कहानी कहते हैं।
बरसों बाद जब दिल्ली आ कर में 'नया ज्ञानोदय' के संपादकीय विभाग से जुड़ गया, एक दिन रचनाओं की डाक में अपने भाई थियो के नाम लिखे दोन गो के कुछ पत्रों का हिंदी अनुवाद आया। मूल पाठ का आस्वाद देता युवा क राजुला शाह का अनुवाद। इन पत्रों को बार-बार पढ़ कर गांग की लेखन प्रतिमा से विस्मित रह गया। गद्य का ऐसा सहज, सुंदर, बहुअर्थी ऐश्वर्य प्रयाग जी के 1990 में पढ़े आलेख की याद आयी।
प्रयाग जी ने इस आलेख में यह भी लिखा था- 'पिकासो और यॉन गॉग, दो ऐस कलाकार हैं, जिनकी ख्याति उन लोगों तक भी पहुंची है, जिन्होंने इनकी कलाकृतिय केवल किताबों और पत्र-पत्रिकाओं में देखी हैं।... दोनों एक 'किंवदन्ती' की तरह है। सच है, तब में भी उन्हीं लोगों में था, जो पत्र-पत्रिकाओं में छपे मूर्धन्य कलाकारों की कलाकृतियों के चित्र देख कर, उनकी कला पर लिखा पढ़ कर रोमांचित होते थे। इन महान कलाकारों की बेमिसाल प्रतिमा के बारे में कयास लगाते थे। यॉन गॉग के बाद अखबारों-पत्रिकाओं के जरिये जिस दूसरे चित्रकार से मेरा परिचय हुआ, ये थे-मकबूल फिदा हुसेन हुसेन के 'बिटविन स्पाइडर एंड द लॅप, मदर टेरेसा, 'घोड़ा' श्रृंखला के चित्र मैंने कई पत्रिकाओं में छपे देखे और उनके जरिए यह अहसास हुआ कि चित्रकला की दुनिया एक बड़ी और दिलचस्प दुनिया है। चित्र ही नहीं, अखवारों-पत्रिकाओं में सफेद दाढ़ीवाले रंगीले हुसेन के फोटोग्राफ देख कर लगता यह जरूर कमाल का आदमी होगा तब तक मैं एक स्थानीय अखबार में लिखने लगा था, सो यह इच्छा जगी कि किसी दिन में हुसेन का इंटरव्यू करूंगा। इंटरव्यू माने हुसेन से मिल कर खूब सारी बातें करूंगा (अफसोस यह हो नहीं पाया)।
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