पुस्तक के विषय में
समाधि में साधक मरता है स्वयं, और चूंकि वह स्वयं मृत्यु में प्रवेश करता है, वह जान लेता हऐ इस सत्य को कि मैं हूं अलग, शरीर है अलग। और एक बार यह पता चल जाए कि मैं हूं अलग, मृत्यु समाप्त हो गई। और एक बार यह पता चल जाए कि मैं हूं अलग, मृत्यु समाप्त हो गई। और एक बार यह पता चल जाए कि मैं हूं अलग, और जीवन का अनुभव शुरू हो गया। मृत्यु की समाप्ति और जीवन का अनुभव एक ही सीमा पर होते हैं, एक ही साथ होते हैं। जीवन को जाना कि मृत्यु गई, मृत्यु को जाना कि जीवन हुआ। अगर ठीक से समझें तो ये एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं। ये एक ही दिशा में इंगित करने वाले दो इशारे हैं।
मृत्यु का सत्य
कुछ सत्य तो हैं जो हमें गुजरकर ही पता चलते हैं । मृत्यु का सत्य तो हमें मृत्यु से गुजरकर ही पता चलेगा । लेकिन उसकी तैयारी, कि पता चल सके, वह हमें जिंदगी में करनी पड़ेगी । मरने की तैयारी भी जिंदगी में करनी पड़ती है । और जो आदमी जिंदगी में मरने की तैयारी नहीं कर पाता, वह बड़े गलत ढंग से मरता है । और गलत ढंग से जीना तो माफ किया जा सकता है, गलत ढंग से मरना कभी माफ नहीं किया जा सकता । क्योंकि वह चरम बिंदु है, वह अल्टीमेट है, वह आखिरी है, वह जिंदगी का सार-निष्कर्ष है । अगर जिंदगी में छोटी-मोटी भूलें यहां-वहां की हों तो चल सकता है
लेकिन आखिरी क्षण में तो भूल सदा के लिए घिर और स्थायी हो जाएगी । और मजा यह है कि जिंदगी की भूलों के लिए पश्चात्ताप किया जा सकता है और जिंदगी की भूलों के लिए माफी मांगी जा सकती है और जिंदगी की भूलों को सुधारा जा सकता है, मौत के बाद तो सुधारने का उपाय नहीं रहता और भूल का पश्चात्ताप भी नहीं रहता, रिपेंटेंस भी नहीं कर सकते, क्षमा भी नहीं मांग सकते, सुधार भी नहीं कर सकते । वह तो आखिरी सील लग जाती है । इसलिए गलत ढंग से जिंदगी माफ भी कर दी जाए गलत ढंग से मरना माफ नहीं किया जा सकता । और ध्यान रहे, जो आदमी गलत ढंग से जीया है, वह ठीक ढंग से मर कैसे सकता है ।
जिंदगी ही तो मरेगी, जिंदगी ही तो उस बिंदु पर पहुंचेगी जहां से वह विदा होगी । तो जो मै जिंदगी भर था, वही तो मैं अपने अंतिम क्षण में समग्र रूप से इकट्ठा होकर हो जाऊंगा । वह अकुमलेटिव होगा । आखिरी क्षण में मेरा सारा जिंदगी का सब कुछ इकट्ठा होकर मेरे साथ खड़ा हो जाएगा । मेरी पूरी जिंदगी मै मरते क्षण में होऊंगा । अगर हम इसको ऐसा कहें कि जिंदगी फैली हुई घटना है, मौत सघन है । अगर हम इसको ऐसा कहे कि जिंदगी बहुत लंबे फैलाव का विस्तार है और मृत्यु सारे विस्तार का इकट्ठा, संक्षिप्त संस्कार है -इकट्ठा हो जाना है । मृत्यु बहुत एटामिक है । एक कण में
सब इकट्ठा हो गया ।
इसलिए मृत्यु से बड़ी घटना नहीं है । पर मृत्यु एक ही बार घटेगी । इसका मतलब यह नहीं है कि आप और पहले नहीं मरे है । नहीं, वह बहुत बार घटी है । लेकिन एक जिंदगी में एक ही बार घटती
है । और एक जिंदगी में अगर आप सोए-सोए जीए तो वह नींद में ही घट जाती है । फिर दूसरी जिंदगी में वह नई होती है । फिर एक ही बार घटती है । और ध्यान रहे, जो आदमी इस जिंदगी मे होशपूर्वक मर सकता है- कांशस डेथ-वह आदमी दूसरी जिंदगी में होशपूर्वक जन्म लेता है । वह उसका दूसरा हिस्सा है ओंर जो होशपूर्वक मरता है-पार होशपूर्वक जन्म लेता हे, उसकी जिन्दगी किसी और तल पर चलने लगी वह पहली दफे ठीक से होशपूर्वक जिदगी के पूरे अर्थ को, प्रयोजन को, जिदगी की गहराई जोर ऊचाई को पकड पाता हे । जिदगी का पूरा सत्य उसके हाथ में आ पाता है ।
अनुक्रम
1
आयोजित मृत्यु अर्थात ध्यान और समाधि के प्रायोगिक रहस्य
2
आध्यात्मिक विश्व आदोलन-ताकि कुछ व्यक्ति प्रबुद्ध हो सकें
19
3
जीवन के मंदिर में द्वार है मृत्यु का
35
4
सजग मृत्यु और जाति-स्मरण के रहस्यों में प्रवेश
55
5
स्व हैं द्वार सर्व का निद्रा स्वप्न सम्मोहन ओर
81
6
मूर्च्छा से जागृति की ओर
105
7
मूर्च्छा में मृत्यु है और जागृति में जीवन
127
8
विचार नही वरन् मृत्यु के तथ्य का दर्शन
151
9
मैं मृत्यु सिखाता हूं
173
10
अंधकार से आलोक और मूर्च्छा से परम जागरण की ओर
197
11
संकल्पवान हो जाता है आत्मवान
223
12
नाटकीय जीवन के प्रति साक्षी चेतना का जागरण
249
13
सूक्ष्म शरीर, ध्यान-साधना एवं तंत्र-साधना के कुछ गुप्त आयाम
273
14
धर्म की महायात्रा मे स्वयं को दांव पर लगाने का साहस
301
15
संकल्प से साक्षी और साक्षी से आगे तथाता की परम उपलब्धि
327
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