प्रस्तुत पुस्तक राजा जनक को ज्ञान प्राप्त होने तथा उन के विदेह कहलाये जाने की सुप्रसिद्ध कथा को ही एक विशेष दृष्टिकोण से पुनः प्रस्तुत करती है। इसका उद्देश्य लोगों को इसके लिए प्रेरित करना है कि अपने समय के सच्चे तत्त्वदर्शी सद्गुरु से आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर विदेह या जीवन-मुक्त अवस्था में संसार के सभी कार्य करें। इस प्रकार वे राग-द्वेष से रहित होकर और अधिक कुशलतापूर्वक अपना कार्य कर सकेंगे।
साथ ही यह कथा यह भी दर्शाती है कि बहुत अधिक पढ़े लिखे, विद्वान कहलाये जाने वाले या परम्परा से चली आ रही किसी धार्मिक पीठ के स्वामी या महात्मा के रूप में प्रसिद्ध अधिकांश व्यक्ति परमात्मा का वास्तविक ज्ञान देने में प्रायः असमर्थ होते हैं। भले ही वे उसकी लम्बी चौड़ी व्याख्या कर लें पर क्रियात्मक रूप में न उन्हें स्वयं को ज्ञान होता है और न ही वे दूसरे को वह ज्ञान दे सकते हैं, जबकि अष्टाबक्र जैसे बालक के अन्दर या किसी भी सीधे-सादे व्यक्ति के अंदर यह क्षमता वर्तमान हो सकती है। इसलिए अपने समय के सच्चे तत्वदर्शी ज्ञानी की खोज कर विनय भाव से अपने आत्म-कल्याण के संबंध में प्रश्न करना चाहिए। यही इस पुस्तक को प्रकाशित करने का उद्देश्य है। आशा है पाठकों को इससे प्रेरणा मिलेगी और यह प्रकाशन उपयोगी सिद्ध होगा।
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