विदित हो कि नीति एक ऐसा शास्त्र है कि जिसको मनुष्यमात्र व्यवहार में लाता है, क्योंकि बिना इसके संसार में सुखपूर्वक निर्वाह नहीं हो सकता। यदि नीति का अवलम्बन न किया जाय, तो मनुष्य को अनेक सांसारिक घटनाओं के अनुकूल कृतकार्य होने में बड़ी कठिनता पड़े। जो लोग नीति के जानने वाले हैं, वे बड़े-बड़े दुस्तर और कठिन कार्यों को सहज में शीघ्र कर लेते हैं, परन्तु नीतिहीन मनुष्य छोटे-छोटे से कार्यों में भी मुग्ध होकर हानि उठाते हैं। नीति दो प्रकार की है- एक धर्म, दूसरी राजीनीति, और इन दोनों नीतियों के लिये भारतवर्ष प्राचीन समय से सुप्रसिद्ध है। सर्वसाधारण को राजनीति से प्रतिदिन काम पड़ता है। अतएव विदेशी विद्वानों ने भारत में आकर नीतिविद्या सीख ली और अपने देशों में जाकर उसका अनुकरण किया और अपनी-अपनी मातृभाषा में उसका अनुवाद करके देश को लाभ पहुँचाया ।
यद्यपि राजनीति के एक से एक अपूर्व ग्रंथ संस्कृत भाषा में पाये जाते हैं तथापि पण्डित विष्णुशर्मारचित पञ्चतन्त्र परम प्रसिद्ध है, क्योंकि उस ग्रंथ में नीतिकथा उत्तम प्रणाली से लिखी गई है कि जिसके पढ़ने में रुचि और समझने में सुगमता होती है। अन्य देशियों ने भी इसका बड़ा ही समादर किया कि अरबी, फारसी इत्यादि भाषाओं में इसका अनुवाद पाया जाता है। पण्डित नारायणजी ने उक्त पञ्चतन्त्र तथा अन्य-अन्य नीतिग्रन्थों से हितोपदेश नामक एक नवीन ग्रन्थ संगृहीत करके प्रकाशित किया, जो पञ्चतन्त्र की अपेक्षा अत्यन्त सरल और सुगम है और विद्वानों ने हितापदेश को "यथा नाम तथा गुणाः" समझ कर अत्यन्त आदर किया, यहाँ तक कि वर्तमान काल में भारतवर्षीय शिक्षा विभाग में इसका अधिक प्रचार हो रहा है। हितोपदेश के गुणवर्णन करने की कोई आवश्यकता नहीं है, कारण उसका गौरव विदित ही है और उक्त ग्रन्थ पर कई टीकाएँ प्रकाशित होने पर भी निर्णयसागर यंत्रालय के मालिक श्रीयुत तुकाराम जावजी महाशय ने मुझसे यह अनुरोध किया कि, हितोपदेश की भाषाटीका इस रीति पर की जाय कि जिससे पाठकों की समझ में विभक्त्यर्थ के साथ आशय भली-भाँति आ जाय।
अतएव मैं अपनी अल्पबुद्धि के अनुसार उसी रीति पर टीका करके पाठकगणों को समर्पण करता हूँ और विद्वानों से प्रार्थना करता हूँ कि जहाँ कहीं भ्रम से कुछ रह गया हो, उसे सुधार लेने की कृपा करें।
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