भूमिका
उपक्रम
प्राचीन भारतीय वाङग्य अपने कलेवर में जितना ही विशाल एवं विविध है, अंतरंग दृष्टि से वह उतना ही गहन तथा गंभीर है। मंत्रद्रष्टा अथवा क्रान्तदर्शी ऋषियों की अंतर-दृष्टि तथ्य-विश्लेषण से अधिक 'तत्व-चिन्तन' पर ही केन्द्रित रही है। उनके चिन्तन का बिषय चारों पुरुषाथों में से: अधिकतर 'धर्म एवं मोक्ष' ही रहा है। यद्यपि लौकिक जीवन का सम्बंध-सूत्र प्राय: 'अर्थ तथा काम' द्वारा ही संचालित होता है। फिर भी वहाँ पर धार्मिक अथवा 'आध्यात्मिक स्वर जितना मुखर है, उतम अन्यान्य' नही । सामाजिक स्तर पर उसका अधिकांश एकांगी' तथा एकदेशीय है । यदि कहीं पर दृष्टि प्रसार लक्षित होता भी है तो वह कीर्त्तिधबल उत्तुंग शैल-शिखरों पर ही अधिक टिका है, जनसंकुल तमसावृत्त उपत्यकाओं में कम ही रम सका है जिस कारण, उनके आधार पर सम्पूर्ण सामाजिक जीवन का विशद चित्र नहीं उभड़ पाता है। लौकिक जीवन का स्पष्ट. परिचय हमें वहाँ पर नहीं मिल पाता, केवल इतस्तत: उसका आभास मात्र मिलता है । उसमें से ऋषि तथा देव वर्ग के अतिरिक्त मनुष्य का जो रूप झलकता है वह अधिकतर व्यक्ति का न होकर विभूति का है: जन-साधारण से मिल 'कुलीन एवं संभ्रान्त' वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है । शेष दस्यु, दैत्य तथा म्लेच्छादि कोटि के कहला कर हेय अथवा तिरस्कृत ठहराये जाते हैं। यही नहीं, सभी युगों में 'दास-प्रथा' भी किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है ।'
ऐसे ग्रंथ जो लौकिक जीवन कै अधिक निकट हैं बहुत थोड़ी संख्या में सुलभ हैं । 'उनमें "गाथा सप्तशती'' का स्थान महत्त्वपूर्ण है, जहाँ मूलत: लोक जीवन का सहज हास-विलास, आह्मद-विषाद तथा रीति-नीति एवं आचार-विचार भी प्रचुर मात्रा में अभिव्यक्ति पा सका है। इसकी शेष बातें आनुषंगिक मात्र कै जिनका पृथक-महत्व है ।
आभार-प्रदर्शन
'हिन्दी गाथा सप्तशती' का प्रकाशन मेरे लिए एक साहस-प्रदर्शन कार्य है, इये मैं भलीभाँति जानता हूँ । परन्तु यदि उद्देश्य महान् है तो साहस से काम लेना ही चाहिए । लक्ष्य-मार्ग की बाधा अथवा कठिनाई को सोच कर कदम न उठा बैठ रहना न तो उपयोगी है, न वाछनीय। इसे इसी प्रेरणा का परिणाम समझना चाहिए । फिर मेरी अकेली शक्ति एवं सामर्थ्य की यह देन नहीं है । पूर्ववर्ती लेखको की प्राय: समस्त कृतियो ने किसी न किसी रूप में मुझे यक्षेष्ट सहायता पहुंचायी है । अतएव मैं उन सभी लेखको अथवा टीकाकारों से उपकृत हूँ । पाठांश की पाण्डुलिपि तैयार करने में चि० विनोद तथा चि० नित्यानन्द तिवारी ने अपना यत्किंचित् सहयोग दिया है जिसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं ।
डॉ० देवीप्रसन्न मैत्र तथा उनके परिवार ने समय-समय पर जिस आत्मीयता के साथ मुझे निरापद स्थान में काम करने की सुविधा प्रदान की है उसके लिए मैं उनका ऋणी हूँ । परन्तु स्नेहमयी 'ज्वालामुखी' का सक्रिय सहयोग यदि न मिला करे तो मेरे सभी ऐसे संकल्प मन के मन में ही रह जाया करें । अतएव जो सुख-दु:ख का साक्षी एवं भागीदार है उसे कैसे भुलाया जा सकता है ।
अन्त में मैं चि० मोहनदास एवं चि० विट्ठलदास के प्रति अपना आभार मानता हूँ जिन्होंने धैर्य तथा उत्साह के साथ इसे प्रकाशित किया है । मुद्रणा सम्बंधी भूलों के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ ।
विषय-सूची
1-23
1
प्रथम शतक
2
द्वितीय शतक
25
3
तृतीय शतक
49
4
चतुर्थ शतक
73
5
पंचम शतक
97
6
पष्ठ शंतक
121
7
सप्तम शतक
145
परिशिष्ट
(क) गाथानुक्रमणिकादि
169
(ख) कवि एवं कवयित्री
179
(ग) प्रमुख प्राकृत शब्द-सूची
189
8
शुद्धिपत्रम्
203
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