हिन्दी की अन्य विधाओं की तरह हिन्दी नाटक के जन्म और विकास की कहानी अर्वाचीन है। निश्चित ही, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी में इस विधा का वर्तमान रूप में सूत्रपात किया था। बकौल उनके, उनसे पूर्व जो दो-तीन नाटकनुमा नाटक लिखे गये थे उनमें न तो नई भाषा थी, न नई तकनीक, न नया कथ्य और न मंचीयता। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने 'नाटक' निबन्ध में इस बात को स्वीकार किया है। उन्होंने अंगरेजी और बंगला नाटकों की तुलना में हिन्दी नाटक को कहीं न ठहरता पाया और ऐसी स्थिति में उस समय हिन्दी नाटक के रंगमंच की उपस्थिति तो और भी अकल्पित थी। जब नाटक ही नहीं था तो उसका 'खेल' कैसे हो सकता था? भारतेन्दु ने इस अभाव को लक्षित करते हुए सबसे पहले नई भाषा और शैली में हिन्दी में नाटक लिखे और उसके बाद हिन्दी रंगमंच की स्थापना की थी।
भारतेन्दु ने नाटक और रंगमंच को एक साथ पनपाने के लिए जो मुहीम चलाई थी, वह आज नदारद है। नाटककार जब तक हिन्दी और रंगमंच को समान रूप से विकसित करने की दिशा में अग्रसर नहीं होंगे तब तक वह नाम से ही नाटक कहलायेगा। बिना रंगमंच का नाटक आधारहीन भवन की तरह होता है। नाटक और रंगमंच के बीच की इस दूरी का एक कारण नाटक में बढ़ती प्रतीकात्मकता है, तो दूसरा कारण वर्तमान दृश्य माध्यम है, जो दर्शक को घर बैठे मंच से अधिक आनन्द देता है। यदि नाटक से बुधितत्त्व की अधिकता निकाल दी जाय और मंच को दर्शक तक ले जाने का प्रयास किया जाय तभी नाटक और मंच की सहभागिता बढ़ सकती है।
इस पुस्तक में कुछ हिन्दी नाटकों को प्रतिनिधिरूप में चुनकर विवेचित किया गया है, जिससे भारतेन्दु से लेकर अब तक के कुछ प्रतिष्ठित नाटकों के चरित्र से हिन्दी नाटक के जिज्ञासुओं को परिचित कराया जा सके। इसमें इन हिन्दी नाटकों और इन नाटकों के पात्रों के चरित्र को विशेषतया उजागर किया गया है और ये चरित्र स्वयं अपने जनक नाटककारों को कर्तव्य कारकों की ओर प्रेरित करते हैं कि उन्हें हिन्दी नाटक को किस दिशा में ले जाना चाहिए।
हिन्दी की अन्य विधाओं की तरह हिन्दी नाटक के जन्म और विकास की कहानी अर्वाचीन है। निश्चित ही, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी में इस विधा का वर्तमान रूप में सूत्रपात किया था। बकौल उनके, उनसे पूर्व जो दो-तीन नाटकनुमा नाटक लिखे गये थे उनमें न तो नई भाषा थी, न नई तकनीक, न नया कथ्य और न मंचीयता । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने 'नाटक' निबन्ध में इस बात को स्वीकार किया है। उन्होंने अंगरेजी और बंगला नाटकों की तुलना में हिन्दी नाटक को कहीं न ठहरता पाया और ऐसी स्थिति में उस समय हिन्दी नाटक के रंगमंच की उपस्थिति तो और भी अकल्पित थी। जब नाटक ही नहीं था तो उसका 'खेल' कैसे हो सकता था? भारतेन्दु ने इस अभाव को लक्षित करते हुए सबसे पहले नई भाषा और शैली में हिन्दी में नाटक लिखे और उसके बाद हिन्दी रंगमंच की स्थापना की थी।
भारतेन्दु के समय तक नाटक और रंगमंच की स्थिति क्या थी, पहले इस पर थोड़ी बातचीत कर ली जाय तो ठीक रहेगा, क्योंकि उस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर, ही हम हिन्दी नाटक की आरम्भिक दशा और बाद में उसकी दिशा का मूल्यांकन ठीक ! तरह कर पायेंगे। हिन्दी नाटक की आरम्भिक दशा और दिशा तीन तरह की नाट्यपरम्पराओं की प्रेरणा से प्रभावित रही। स्वयं भारतेन्दु के प्रमाण से हम यह जान पाते हैं कि उस समय अंगरेजी, बंगला और पारसी नाटकों की परम्परा चल रही थी। अंगरेजी शासन और जीवनशैली की माँग को पूरा करने के लिए कलकत्ता में अंगरेजी नाटक खेले जाते थे, जिनके प्रभाववश बंगला में नाटक-लेखन और मंचन का आरम्भ हुआ। कलकत्ता के अंगरेजी शासक, अधिकारी, व्यापारी तथा अंगरेजी पढ़े-लिखे भारतीय अंगरेजी नाटक की रंगमंचीय प्रस्तुतियों से आनन्द लेते थे। बाद में अंगरेजी पढ़े भारतीय साहित्यकारों ने अंगरेजी ढंग के नाटक लिखने आरम्भ किये। आरम्भ में वे नाटक अंगरेजी और पारसी ढंग के थे, लेकिन बाद में उनके द्वारा नाटकों के लिए भारतीय पुराण और इतिहास से नाट्यविषय चुने गये। बंगला नाटक और रंगमंच अंगरेजी नाटक और रंगमंच के समानांतर चलते थे, इसलिए स्वाभाविक था कि अपनी भाषा, संस्कृति, इतिहास और भारतीयता के प्रेमवश अंगरेजी नाटक की तुलना में बंगला नाटक की दर्शक संख्या अधिक रहने लगी।
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