प्रस्तुत पुस्तक में हिमाचल प्रदेश में प्रचलित लोकनाट्य धाज्जा का सांस्कृतिक व सांगीतिक विवेचन किया गया है। अनेक गवेषकों ने लोकनाट्य धाज्जा को शिमला व सोलन जनपदों में समाज के निम्न वर्गों द्वारा मंचित करियाले को ही धाज्जा नाट्य कहकर भ्रमित करने जैसा प्रयास किया है। वास्तव में धाज्जा हिमाचल प्रदेश में बसे रविदासिया समाज का धार्मिक अनुष्ठानिक नाट्य है। इसका कथानक कंस वध मल्ल युद्ध को केन्द्र बनाकर संकलित किया गया है। श्रीमद्भागवत पुराण दशम स्कन्ध के अध्याय 36 से 44 तक में वर्णित प्रसंग का अपुष्ट एवं परिवर्तित स्वरूप धाज्जा नाट्य के मूल में उपलब्ध होता है। वर्ग विशेष व हिमाचल प्रदेश का मूल निवासी होने के कारण लोकनाट्य धाज्जा को सहज रूप से देखने व सुनने का अवसर लेखक को प्राप्त होता रहा है। फलस्वरूप धाज्जा नाट्य के समस्त पक्षों पर अधिकार पूर्वक लिख पाना सम्भव हो सका है। पुस्तक में हिमाचल प्रदेश में प्रचलित अन्य नाट्य परम्पराओं को भी उल्लेखित किया गया है, जिससे प्रबुद्ध पाठकों को स्वतः ही यह आभास होगा, कि लोकनाट्य धाज्जा की अपनी अलग पृष्ठ भूमि, पहचान वह कलापरक मानदण्ड है। पुस्तक को प्रमाणिक बनाने के लिए धाज्जा नाट्य की व्यवसायिक पारम्परिक मण्डलियों (नचारों) से महत्वपूर्ण तथ्यों व संस्मरणों का उपयोग किया गया। कुछ दुलर्भ छायाचित्र इस पुस्तक का विशेष आकर्षण है। सार रूप में धाज्जा नाट्य को रवीदासिया समाज की सांस्कृतिक धरोहर का गोपनीय दस्तावेज कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। आधुनिक प्रगति के इतने स्पष्ट चित्रों के साथ-साथ हि. प्र. की संस्कृति के विषय में जिज्ञासा होना स्वभाविक है। क्योंकि संस्कृत और सभ्यता का संतुलित मिश्रण ही समाज की यथार्थ उन्नति का द्योतक होता है। संस्कृति की इसी धरोहर को प्रकाश में लाने के उद्देश्य से प्रस्तुत पुस्तक एक लघु प्रयास है।
परमानन्द बंसल 14 मई 1962 को अर्को (सोलन) हि. प्र. में जन्म माता शान्ति देवी तथा पिता शिवराम जी से संगीत का संस्कार प्राप्त हुआ। अपनी रुचि को अध्ययन से जोड़ते हुए सितार की प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता तथा विधिवत् शिक्षा सेनिया घराने की बिदुषी प्रो. इन्द्राणी चक्रवर्ती से प्राप्त की। वर्ष 1984 में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में स्नातकोत्तर (एम. ए.) तद्भतर 1986 में एम. फिल तथा वर्ष 1999 में 'हिमाचली लोकनाट्य धाज्जा सांस्कृतिक एवं सांगीतिक पक्ष' विषय पर पी-एच. डी. की उपाधि ग्रहण की। वर्ष 1989 में हिमाचल प्रदेश उच्च शिक्षा चयन आयोग द्वारा प्रवक्ता (महाविद्यालय संवर्ग) के पद पर चयन होने के साथ-साथ विगत 16 वर्षों से संगीत के अध्यापन से जुड़े है। वर्ष 1983 से 1989 तक भारतीय डाक-तार विभाग में कार्यरत रहते हुए वर्ष 1985 (हैदराबाद) 1987 (पटना) में अखिल भारतीय डाक-तार सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा में (सितार वादन) में स्वर्ण पदक विजेता। वर्ष 1988 में डाक मण्डल शिमला द्वारा राजभाषा सम्मान से सम्मानित । सम्प्रति : हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय ललित कला संकाय में वरिष्ठ प्राध्यापक (सितार) के पद पर कार्यरत है।
भारतीय नाट्य कला अत्यन्त प्राचीन तथा समृद्ध ही नहीं अत्यन्त सम्मानित भी है। इसका धर्म से अत्यन्त निकट का सम्बन्ध रहा है। भारतीय संस्कृति का हर पक्ष कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में धार्मिक आस्थाओं से जुड़ा हुआ है। अतः यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि नाटक और रंगमंच धर्म की दृष्टि से प्राचीन विधाएं हैं। इसके अपने कलापरक और सौन्दर्यपरक मानदण्ड हैं तथा अपने ही ऐतिहासिक मूल्य हैं। किसी भी जनपद, प्रदेश, देश का यथार्थ इन्हीं से पैदा होकर इन्हीं में छिप जाता है। नाट्य कला विशेषकर लोकनाट्य का साधारण जनता से विशेष सम्बन्ध रहा है। जनमानस के द्वारा प्रशंसा एवं प्रेरणा पाकर नाटक के इस रूप की धारा अति प्राचीनकाल से प्रवाहित होकर आज तक बहती आ रही है। आदिमानव से आज के मानव तक की सच्ची कहानी रंगमंच की जुबानी ही प्रस्तुत की जा सकती है। कहते हैं कि सृष्टि के आदिमानव ने कैम्प फायर के चतुर्दिक बैठकर विश्व के इतिहास का निर्माण किया है और वहीं से नाट्य परम्परा की कहानी प्रारम्भ होती है।
नाट्य रूपक की परम्परा भरत से बहुत पूर्व वैदिक कर्मकाण्डों से प्रारम्भ हो गई थी और विद्वानों ने ऋग्वेद के अनेक सूक्तों की अभिनयपरता स्वीकार भी की है। व्यवस्थित भारतीय नाट्य विद्या के प्रवर्तक व्याख्याता और प्रस्तोता भरत रहे। उन्होंने नाट्य रचना, नाट्य मंडप और नाट्य प्रस्तुति इत्यादि के विभिन्न पक्षों पर इतनी विशुद्धता से विवेचन किया कि समस्त विश्व आज भी अत्यन्त श्रद्धा के साथ उनके सिद्धान्त को स्वीकारता है। इसके साथ ही प्राचीन कला एवं संस्कृति का प्रमाणबद्ध इतिहास निजी महत्त्व भी रखता है।
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