सुखी जीवन: A Happy Life

$11.25
$15
(25% off)
Quantity
Delivery Usually ships in 15 days
Item Code: NZD060
Publisher: Bharatiya Vidya Mandir, Kolkata
Author: माधोदास मूँधड़ा (Madhodas Mundhada)
Language: Hindi
Edition: 2013
ISBN: 9788189302436
Pages: 61
Cover: Hardcover
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 190 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description

पुस्तक के बारे में

माधोदास मूँधड़ा

25 फरवरी 1918-01 अप्रेल 1999

प्रवृत्तियों : देश के सुप्रसिद्ध उद्योगपति व कुशल प्रशासक । देशविदेश मे विशाल निर्माणकार्यों प्रदूषण निरोधक यन्त्रों एव अन्यान्य व्यवसायो मे सलग्न रहे । सामाजिक कार्यों में गहरी अभिरुचि एवं उदारतापूर्वक सहयोग मे सदा तत्पर रहते थे । शैक्षणिक, सांस्कृतिक महिला उत्थान, ग्राम-विकास, चिकित्सा आदि कार्यो मे विशेष अवदान । धर्म, दर्शन, कला, अध्यात्म आदि मे विशेष अभिरुचि ।

संस्थाओं से सम्बन्ध :

() भारतीय संस्कृति संसद, कोलकाता, (अग्रणी सांस्कृतिक सस्थान सन् 1955 से)

() श्रीमती सूरजदेवी गिरधरदास मूँधड़ा राजकीय सेटेलाइट हॉस्पिटल, बीकानेर ।

() भारतीय विद्या मदिर, बीकानेर ।

() गिरधरदास मूँधडा बाल भारती, बीकानेर ।

() प्रौढ शिक्षा केन्द्र, बीकानेर ।

() काली कमली पंचायत क्षेत्र, हरिद्वार ।

() माहेश्वरी सेवा सदन, कोलकाता ।

() माहेश्वरी भवन ट्रस्ट बोर्ड, कोलकाता ।

() महाप्रभुजी की बैठक, हरिद्वार

प्रकाशित कृतियाँ :

(1) रसो वै स: वर्ष 1992

(2) भारतीय तत्व चिन्तन एक में अनेक, वर्ष 1998

(3) सुखी जीवन, वर्ष 1999

प्राक्कथन

मैंने श्रद्धेय श्री माधोदास मूधड़ा विरचित कृति 'सुखी जीवन' का आद्यन्त पारायण किया । इसमें अट्ठारह निबन्धों के माध्यम से मानव अपने जीवन को किस प्रकार सुखी बना सकता है इराके उपाय बताए हैं।

मूलभूत तथ्य यह है कि अपने को सुखी या दुःखी बनाना मनुष्य के अपने हाथ मे है । बचपन में कभी एक कहानी पढ़ी थी। एक साधु एक गांव में रहता था। वह अपने हाथ से पकाता खाता था। एक) दिन उसने भोजन बनाया। अपने गांव के दो लोगों को उसने खाने पर निमन्त्रित किया। दाल चावल, साग-सब्जी उसने बनाये, चटनी भी बनाई। जब भोजन परोसने लगे तो और चीजें तो उसने बराबर-बराबर दोनों को दीं पर चटनी में भेदभाव कर दिया । एक को चटनी दी और दूसरे को नहीं दी। दूसरा सोचता रह गया कि उसे चटनी क्यों नहीं दी गई । पर वह कुछ बोला नहीं। दूसरा चटनी का स्वाद ले रहा था। उसने और मांगी। उसे वह भी दे दी गई । इधर दूसरा जलभुन कर खाक हो रहा था । जब भोजन समाप्त होने को था तो उससे न रहा गया । वह साधु से बोला कि उसने उसे चटनी क्यों नहीं दी। साधु बोला अच्छा तुम्हें लेनी है । उसने उसे चटनी परोस दी । जैसे ही उसने उसे मुह में रखा वह उसे सहन न कर सका और उसे भूक दिया। चटनी नीम के पत्तों की थी। उसे समझ नहीं आया कि कैसे उसका साथी उसे खा रहा है और कैसे उसे स्वाद आ रहा है। साधु ने उससे कहा कि मन की बात है । कड़वाहट में भी स्वाद का अनुभव हो सकता है । यही सकारात्मक प्रवृत्ति है ।

मन की सकारात्मक प्रवृत्ति मनुष्य को दुःख में भी सुख का बोध करा सकती है । सब कुछ मन के हाथ में है । इसीलिये प्रार्थना की गई-तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु । मेरा मन सत्संकल्पयुत्त हो, उसमें अच्छे विचार आयें । मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष (मुक्ति) का कारण है- मन एवं मनुष्याणां कारण बन्धमोक्षयो. । इसी मन में मित्रता, परोपकार, ऋजुता, दया आदि भावों का भी उदय हो सकता है और इसी मन में ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा आदि भावों का भी । इसीलिए मन की प्रवृत्ति ठीक रखने पर शास्त्रों ने बल दिया है । एक मात्र उपाय इसका उन्होंने धर्म बतलाया है । धर्म का अभिप्राय किसी सम्प्रदाय, मत या कर्मकाण्ड से नही है अपितु उस गुण-समुदाय से है जिस पर सब कुछ टिका है- धारणाद्धर्म इत्याहुर्धर्मों धारयते प्रजा: । इसके धृति (धैर्य), क्षमा आदि दरर लक्षण (पहचान के चिहृ) बतलाये गये है । इनमे भी प्रमुखता के आधार पर संक्षेप कर के पांच को अत्यावश्यक माना गया है-

अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:

एत सामाजिकं धर्मं चातुर्वर्ण्येऽब्रवीन्मनु: । ।

मनु महाराज ने चारों वर्णों के लिये संक्षेप रूप में (सामासिक) धर्म के पांच तत्त्व बतलाये हैं- अहिंसा, सच बोलना (सत्य), चोरी न करना (अस्तेय), मन, वचन और शरीर की पवित्रता (शौच) और इन्द्रिय संयम (इन्द्रिय निग्रह) । आगे संक्षेप कर इन सभी को एक ही गुण में समेट दिया गया-

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।

आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।।

"धर्म का सार क्या है इसे सुनिये और सुनकर मन में रख लीजिये । जो चीज अपने को अच्छी नहीं लगती उसे दूसरों के साथ मत कीजिये ।" बस इतना ही धर्म है । इसका पालन कीजिये । जीवन सुखी हो जायगा । कोई व्यक्ति आप का अपमान करता है, क्रोध में आकर आपके बारे में कुवाच्य बोलता है, आपको ठगता है, आपके सामने अकड़ता है, ईर्ष्या द्वेष के वशीभूत हो आपको हानि पहुंचाने में लगा रहता है, इससे आपका मन दुखता है । जो वह करता है वह आप मत कीजिये । यदि प्रत्येक व्यक्ति इस पर आचरण करने लगेगा तो समाज में वैर, वैमनस्य, विरोध शान्त हो जायेंगे और उनके साथ ही दूर हो जायगा दुःख भी । दुःख का अभाव ही सुख है ।

जो दूसरों को दुःख पहुंचाता है वह कभी सुखी नहीं रह सकता । दूसरों के सुख में ही अपना सुख है । परहित स्वश्रेयसे, दूसरे के कल्याण में अपना कल्याण है ।

अपनी अद्वितीय कृति में श्री माधोदास मूंधड़ा ने उन जीवन मूल्यों को रेखांकित किया है जिन्हें अपनाने से मनुष्य उन सब कुप्रवृत्तियों से, जिन्हें जैन दर्शन में कषाय कहा गया है, उनसे दूर रह कर स्वयं भी सुख पाता है और दूसरों को भी सुख देता है । इन जीवन मूल्यों की उन्होंने बहुत सरल-सरस व्याख्या की है । आज जब जीवन मूल्यों का हास दिखाई दे रहा है, तब उनकी पुन: स्थापना पर बल देने वाली प्रस्तुत कृति की कितनी आवश्यकता है इसरो कहने की आवश्यकता नहीं है । इस अमूल्य कृति का जन-जन तक पहुँचना समय की मांग है ।

भारतीय विद्या मन्दिर के अधिकारी-गण से मेरा अनुरोध है कि इसका अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं में रूपान्तरण भी वे सुलभ कराये जिससे अहिन्दी भाषी भी इसका लाभ उठा सकें ।

(प्रथम संस्करण से)

मानवीय संवेदना के जीवन्त प्रतीक श्री माधोदास मूँधड़ा की कृति 'सुखी जीवन' उनके संयत जीवन के अनुभवों की निष्पत्ति है । इस लघुकाय पुस्तिका में जो कुछ छपा है वह मनुष्य को परिवार और समाज से अलग पड़ जाने की दुखद स्थिति से बचाता है । आज पश्चिमी अपसंस्कृति के कारण संयुक्त परिवार और सामाजिक नैतिक नियमों का अवमूल्यन कर व्यक्ति को देह-केन्द्रित बना दिया है । सृष्टि में ऐसा कोई प्राणी नहीं है जो सुख नहीं चाहता हो, पर चाहने पर कोई सुखी नहीं बन सकता । मनुष्य को सुखी बनने के लिए अपने मन, वचन और कर्म को अनुशासित करना होगा । सृष्टि में मनुष्य को छोडकर ऐसा कोई थलचर, नभचर, जलचर और उद्भिज प्राणी नहीं है जिसका मन हो । मन नहीं होने के कारण उन्हें स्वयं को अपने होने का बोध नहीं है, क्योंकि ये सब अमन हैं । मनुष्य की उत्पत्ति मन से होने के कारण उसकी सज्ञा मनुष्य है ।

जिजीविषा से भिन्न मनु को स्वयं का अभिबोध ।। (स्वागत)

मनुष्य के अतिरिक्त जो भी देहधारी चेतन हैं वे-अपनी मूल वृत्ति से प्रेरित होकर किया करते हैं। इस मूल प्रवृत्ति के अन्तर्गत मनुष्य ने आहार, निद्रा, भय और मैथुन को माना है पर चेतनाधारी पशु आदि इस मूल प्रवृत्ति को नहीं जानते क्योंकि वे अमन है। मनुष्य की तरह वे सोच विचार नहीं कर सकते, पर उनके सुख-दुःख को मनुष्य जान सकता है। जो अमन प्राणी हैं वे जीवन मरण को भी नहीं जानते। जैसे किसी गौवत्स के मर जाने पर गो के आँखों से अश्रु झरते हुए हम देख सकते है पर गो स्वयं नहीं जानती कि वह क्यों रो रही है, या रोना क्या होता है । बादल की गरजन सुनकर सिंह दहाड़ता है पर वह नहीं जानता कि यह बादल की गर्जना क्या है और वह क्यों दहाड़ता है । वैसे ही अमन प्राणी कोयल बसन्त आते ही पंचम स्वर में गाती है, पावन आने पर मयूर नृत्य करते हैं पर इन क्रियाओं के मूल में भी नैसर्गिक वृत्ति ही है। मनुष्य मन के कारण ही जीवन, मरण, राग, द्वेष. तृष्णा, अबाध भोग की लिप्सा, हठधर्मी, अहंकार, परदोष दर्शन, स्वस्तुति करता है, वैसे ही मन से इन दुर्गुणों से बच सकता है अगर वह अपनी बुद्धि को विवेक से संचालित करता है ।

पूज्य भाईजी श्री माधोदासजी से प्राय. तीस वर्ष से मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । वे प्रति क्षण दृष्टि संयम, वाक् सयम और श्रुत संयम के प्रति जागरूक रहते हैं । पर मेरा मानना है कि यह सब उनके पूर्व जन्मों में किये गये पुण्य कर्मों की ही अभिव्यक्ति है । जिन्होंने पूर्व जन्मों में घातक कर्म किये हैं वे सब असत से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, भले ही उन्हें शास्त्रों का ज्ञान हो, उन्होंने संतों की वाणियाँ सुनी हों, वे अपने मन का परिमार्जन नहीं कर सकते जैसे चिकने घडे पर बूँद नहीं ठहरती । उसी तरह उन पर सत् उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । जैसे अन्धे मनुष्यों के सामने ज्योतित दीप रख दिया जाय पर वे उश्रके प्रकाश को नहीं देख सकते । ऐसे व्यक्ति जब किसी सुन्दर वस्तु को देखते हैं तो वे उसका उपभोग करने के लिए व्यग्र हो जाते हैं और सुन्दर के पीछे दो शब्द सत्यम-शिवम् को वे विस्मृत कर देते हैं । इसका कारण यह है कि उनकी दृष्टि का संयम नहीं है, वैरने ही जब वे बोलते हैं तो उनके बोलने में वाक्-संयम नहीं होता । उनकी आत्मा पाप कर्मों से आछन्न है, इस कारण वे रात पथ पर नहीं चल सकते ।

हुवै न सत री परम्परा सत अन्तस रो बोध

पीढ़ी चालै असत् पी तत नै समझ अबोध । । (सतवाणी)

मैंने पूज्य भाईजी में जो निरपेक्ष भाव देखा है वह विरले व्यक्तियों में ही होता है । वे जैसे अर्जन करते हैं वैसे बिना किसी अपेक्षा के विसर्जन भी करते हैं । वे जो कुछ भी करते हैं उसे अपना कर्तव्य मानकर करते हैं । भाईजी अपनी प्रशंसा सुनकर न तो आहलादित होते हैं और न निन्दा सुनकर उद्वेलित होते हैं । यह उनका श्रुत संयम है । वे सदैव ही समभाव में रहते हैं । उन्हें अपनी किसी भी उपलब्धि का श्रेय लेने का मोह नहीं है । भाईजी का दृष्टि संयम उन्हें रसूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है जो उर्ध्वगमन की मधुमति भूमिका है । भाईजी के सौन्दर्य बोध के साथ सत्यम् शिवम् की अवनति है । श्रुत संयम उनकी आत्म-चेतना से जुडा हुआ है । इस पुस्तिका में अठारह निबन्धों के माध्यम रवे व्यावहारिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण दिशा निर्देश हुआ है । इसे मर्मज्ञ पाठक निश्चित रूप से सुखानुभूति करेंगे, ऐसी मेरी मान्यता है ।

आदरणीय माधोदासजी मूँधड़ा अत्यन्त लोकप्रिय सांस्कृतिक पुरुष थे । जीवन के हर क्षेत्र में उनका सराहनीय सहयोग रहा है । कुशल उद्योगपति होने के साथ-साथ उनका भारतीय संस्कृति से घनिष्ठ संबंध था । धर्म, दर्शन, ललित कलायें, शिक्षा, शोध कार्य, समाज सेवा, चिकित्सा आदि से संबंधित सभी संस्थाओं में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । उनके प्रकाशित ग्रंथ 'रसो वै सः' एवं 'भारतीय तत्त्व चिन्तन-एक में अनेक' में उनका सांस्कृतिक चिन्तन अभिव्यक्त हुआ है । उनकी अंतिम कृति 'सुखी जीवन' में उनके जीवन-दर्शन का व्यावहारिक स्वरूप का दिग्दर्शन हुआ है । बड़े दुःख के साथ सूचित करना पड रहा है कि प्रकाशन की अवधि में उनका स्वर्गवास 1 अप्रैल 1999 को हो गया । उनके अवसान से हमारे सांस्कृतिक जीवन में ऐसी रिक्तता आ गई है कि जिसकी संपूर्ति कभी नहीं हो सकती । सांस्कृतिक गतिविधियों को ये सदैव ही प्रोत्साहित करते थे । अनेक संस्थाओं की उन्होंने स्थापना की जिनकी सेवाएँ आज अक्षुण्ण रूप से सभी लोगों को सुलभ है ।

उनकी अंतिम कृति 'सुखी जीवन' हम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे है । मानव मात्र में सुख की प्राप्ति एवं दुःख से निवृत्ति की आकांक्षा सदा बनीं रहती है । इस विषय के विभिन्न पहलुओं पर चिन्तन करते हुए आदरणीय माधोदासजी ने अठारह निबंधों के माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है, जो हमारे दैनिक जीवन के लिए अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हैं । हमारा विश्वास है कि उनको आत्मसात् करने एवं जीवन में व्यावहारिक रूप देने से हम निश्चित ही सुखी जीवन की ओर अग्रसर होंगे । इनमें उच्च आदर्शो के साथ-साथ मृदुल व्यवहार इतना घुल-मिल गया है कि पुस्तक सभी के लिए एक सुन्दर मार्गदर्शिका बन सकती है ।

पाठकगण इसका निश्चित् रूप से लाभ उठायेंगे इससे भारतीय संस्कृति के प्रति उनका अनुराग सदा संवर्धित होगा ।

 

अनुक्रम

1

ईश्वर निष्ठा

15

2

सत्य-निष्ठा एवं नैतिक जीवन

19

3

सार्थक जीवन ही सुखी जीवन

23

4

सरल और निष्ठापूर्वक जीवन

25

5

मन और वाणी का समन्वय

27

6

मन की शान्ति

29

7

सर्वभूत हितेरता : सबके प्रति हित का भाव

32

8

व्यवहार कुशलता

34

9

अन्तर्द्वन्द्व आत्म-परिष्कार न कि बदले की भावना

36

10

सुखी जीवन में सौंदर्य-बोध

38

11

मुख पर सदा प्रसन्नता

41

12

क्रोध व अभिमान सुखी जीवन में बाधक

44

13

जीवन में विनम्रता

47

14

परदोष देखना मानसिक प्रदूषण

50

15

क्षमा वीरों का आभूषण

52

16

सहृदयता से दूसरों की बुराई मिटाये

54

17

प्रशंसा एवं उत्साह प्रेरणा शक्ति

56

18

पारिवारिक सुख एवं सामंजस्य हमारी एकता की धुरी

58

 

Sample Page


Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at help@exoticindia.com
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through help@exoticindia.com.
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy

Book Categories