हमारे परम आराध्यतम नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशत श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की असीम कृपा से "गुरु, शिष्य और दीक्षा" नामक इस ग्रन्थ को श्रद्धालु पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए अपार प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ। इस संसार में हम देखते हैं कि एक बालक शिक्षा लेने के लिए विद्यालय जाता है जहां उसे गुरु शिक्षा देते हैं। विद्यालय के पश्चात् वह महाविद्यालय जाता है, वहाँ भी गुरुओं से शिक्षा ग्रहण करता है और तदुपरांत वह आजीविका के लिए कोई ज्ञान अर्जित करता है तो उसके लिए भी कोई गुरु ही उसे शिक्षा देते हैं। यदि एक व्यक्ति को एक कुशल चिकित्सक बनना हो तो उसे एम.बी.बी.एस. की शिक्षा लेकर किसी कुशल चिकित्सक के मार्गदर्शन में ज्ञान लेना होगा। इसी प्रकार एक अधिवक्ता, अभियंता अथवा लेखाकार आदि किसी भी क्षेत्र का ज्ञान लेने के लिए एक विद्यार्थी को एक अभिज्ञ अध्यापक की आवश्यकता होती है, जिसे उस क्षेत्र विशेष का समुचित ज्ञान हो। भौतिक जगत में किसी भी क्षेत्र का ज्ञान लेने के लिए एक गुरु की आवश्यकता होती है परंतु दुर्भाग्य से आधुनिक युग के शिष्य आध्यात्मिक ज्ञान लेने के लिए गुरु की आवश्यकता नहीं समझते हैं। वे समझते हैं कि जिस प्रकार उनके पूर्वज आध्यात्मिकता का अभ्यास करते आए हैं, उसी प्रकार वे भी आध्यात्मिकता का अभ्यास कर सकते हैं। कुछ लोग जिन्हें यह तो ज्ञान होता है कि आध्यात्मिकता के अभ्यास के लिए गुरु की आवश्यकता है परंतु यह ज्ञान नहीं होता कि प्रामाणिक गुरु कौन होता है, वे किसी पाखंडी गुरु के चक्कर में पड़ जाते हैं और अपना सर्वनाश कर लेते हैं। अधिकतर लोग भारत में आजकल आई हुई पाखंडी गुरुओं की बाढ़ देखकर गुरु धारण करने को झंझट समझते हैं और सोचते हैं कि मैं स्वयं ही अपने अनुसार आध्यात्मिकता का अभ्यास कर लूँगा। कई लोग ऐसे भी हैं जो ये देखते हैं कि अमुक गुरु के इतने अधिक अनुयायी हैं तो ये गुरु सही ही होंगे अतः मैं भी इन्हें गुरु धारण कर लूँ। गुरु नहीं बनाना अथवा दूसरों की देखा-देखी गुरु बनाना या किसी पाखंडी के चक्कर में पड़ जाना, ये सभी समस्याएँ हैं।
यदि आप सोचें कि मैं आध्यात्मिक गुरु धारण किये बिना ही जीवन निर्वाह कर लूँगा अथवा मुझे आध्यात्मिक गुरु की क्या आवश्यकता है तो आपकी सोच त्रुटिपूर्ण है। हमें मनुष्य जीवन मिला है ताकि हम अपनी आत्मा का कल्याण कर सकें न कि अपना जीवन खाने, सोने, आत्मरक्षा करने और मैथुन करने में व्यतीत कर दें। ये सभी कार्य तो पशु भी करते हैं। मनुष्य भगवान् की विशेष कृति है जो अपने जीवन के लक्ष्य के लिए विचार कर सकती है। जीवन का लक्ष्य है भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करते हुए इस जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोगों से भरे संसार से छुटकारा पाकर भगवान् श्रीकृष्ण के धाम में उनकी सेवा करते हुए उनके साथ आनंदित रहना। भगवान् श्रीकृष्ण का गोलोक धाम इन सब दुखों से मुक्त है, वह सत्, चित और आनंदमय है। जो व्यक्ति जीवन का यह लक्ष्य प्राप्त करवाने में हमारी सहायता करे, वह आध्यात्मिक गुरु है।
इस पुस्तिका के लेखक जो श्रील प्रभुपाद के परम प्रिय शिष्य हैं, श्रीमान् क्रतु दास जी का जन्म 5 जुलाई 1944 को लाछरस गाँव, गुजरात, भारत में हुआ। अपने मातृक गाँव में जन्म लेने वाले लेखक का परिवार वैष्णव था। लेखक की माताजी श्रीमती शांताबेन और पिताजी श्रीमान् भवानभाई, ने जन्म से ही उन्हें कृष्णभावनाभावित होने का सुअवसर प्रदान किया और उन्हें कृष्ण भक्ति के मार्ग पर अग्रसर किया। उनकी माताजी ने उन्हें बचपन से ही सभी वैदिक ग्रंथों, यथा महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत का गहन अध्ययन करवाया। उनके पिताजी उन्हें कृष्ण कथा और भजनों का आस्वादन करवाते थे और उनके दादाजी प्रतिदिन उन्हें भगवान् श्रीराम के विग्रह के दर्शन के लिए मंदिर लेकर जाते थे। लेखक में बचपन से ही नेतृत्व के गुण थे। वह वाकल हाई स्कूल, मोभा रोड, वडोदरा, गुजरात छात्र संघ के अध्यक्ष थे। वडोदरा से सिविल इंजीनियरिंग पूर्ण करने के बाद उन्होंने सन् 1972 में अमेरिका की सेंट लुइस यूनिवर्सिटी से मास्टर्स ऑफ साइंस की डिग्री प्राप्त की।
सन् 1968 में उन्होंने श्रीमती अमृतकेलि देवी दासी से विवाह किया, जो स्वयं एक धार्मिक महिला हैं एवं भगवान् श्रीकृष्ण की समर्पित भक्त हैं। ये दोनों सन् 1970 में इस्कॉन के संपर्क में आये एवं सन् 1974 से टोरंटो इस्कॉन मंदिर में पूर्णकालीन सेवक बने। सन् 1976 में उन्हें श्रील प्रभुपाद के प्रथम दर्शन हुए एवं उन्होंने लेखक एवं माताजी को अपने शिष्यों के रूप में स्वीकार करते हुए आशीर्वाद दिया। अगले ही वर्ष उन्होंने श्रील प्रभुपाद से दीक्षा प्राप्त की।
अमेरिका एवं कनाडा में एक सफल सिविल इंजीनियर के पद पर कार्यरत होते हुए भी वे कभी पश्चिमी सभ्यता से आकर्षित नहीं हुए। श्रील प्रभुपाद से प्रेरित होकर लेखक ने अपने इंजीनियर पद का त्याग कर दिया और इस्कॉन के पूर्ण उपासक बन गए। वे सुबह-शाम प्रचार कार्यों एवं अन्य सेवाओं में व्यस्त रहने लगे। वे टोरंटो, शिकागो एवं वैंकूवर मंदिर के सामूहिक प्रचार कार्यों के संचालक थे। सन् 1987 में वे इस्कॉन बैंकूवर मंदिर के अध्यक्ष बने। उन्होंने बैंकूवर एवं वेस्ट वर्जिनिया में न्यू वृंदावन मंदिर के निर्माण में भी सिविल इंजिनियर की भूमिका निभाई।
पश्चिमी देशों में लम्बे समय तक प्रचार करने के उपरान्त, श्रीमान् क्रतु दास जी सन् 1993 में भारत लौट आये एवं गुजरात में प्रचार करने लगे।
Hindu (हिंदू धर्म) (12690)
Tantra ( तन्त्र ) (1023)
Vedas ( वेद ) (706)
Ayurveda (आयुर्वेद) (1905)
Chaukhamba | चौखंबा (3356)
Jyotish (ज्योतिष) (1466)
Yoga (योग) (1098)
Ramayana (रामायण) (1385)
Gita Press (गीता प्रेस) (734)
Sahitya (साहित्य) (23171)
History (इतिहास) (8262)
Philosophy (दर्शन) (3394)
Santvani (सन्त वाणी) (2591)
Vedanta ( वेदांत ) (120)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist