सद्गुरुदेव श्री सतपाल जी महाराज के अध्यात्म एवं विज्ञान का समन्वय करनेवाले प्रवचनों को जब मैंने पढ़ा तो हृदय में उन्हें विषयानुसार श्रृंखलाबद्ध करने की प्रेरणा जागृत हुई जिससे कि मैं उन्हें समय-समय पर दोहरा कर उनकी पवित्र वाणी को हृदयांगम कर सकूँ ताकि मेरे जीवन में पूर्णरूप से आध्यात्मिकता का विकास हो सके। संकलन कार्य कर लेने के बाद फिर प्रेरणा उठी कि क्यों न इस वचनामृत को प्रकाशित कराया जाये जिससे कि मेरे साथ-साथ अन्य भगवप्रेमी बन्धुओं को भी इसका लाभ प्राप्त हो। जब यह सचमुच में पुस्तक रूप में प्रकाशित होने लगा तो मुझे संत शिरोमणि तुलसीदास जी का स्मरण हो आया कि 'स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा'- यह प्रभु गाथा (रामचरितमानस) तो मैंने निज-कल्याण के लिए लिखी थी।
यह वचनामृत चार भागों में छपा है जिसमें प्रथम भाग है- 'मुक्ति या बन्धन'। इसमें मन का स्वभाव एवं इसकी अगाध शक्ति, मन के निरोध की आवश्यकता, प्राणशक्ति की महिमा, भगवान का वास्तविक नाम क्या है और उसे हम कैसे जान सकते हैं, भजन-सुमिरण का महत्त्व एवं अभ्यास की शक्ति आदि विषयों पर श्री महाराज जी द्वारा विभिन्न स्थानों पर दिये गये विज्ञानयुक्त प्रवचनों का अंश संकलित है। यह पुस्तक उन सभी भगवद् प्रेमी बन्धुओं के लिए अति आवश्यक है जिन्होंने अपने आपको भगवान के केवल गुणवाचक, भाषायी नामों तक सीमित कर रखा है तथा भगवान के उस असली व आदि नाम से अनभिज्ञ हैं।
विश्व के मानवीय इतिहास में उन तत्वदर्शी संतों की, आत्मज्ञानी महापुरुषों की एक महान् परम्परा रही हैं जिन्होंने आत्मज्ञान के प्रचार के लिए, मानव के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया। ऐसे एक व्यक्तित्व हैं श्री सतपाल जी महाराज जिन्होंने मानव समाज को आत्मा के पटल पर एक करने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर रखा है।
आपका जन्म २१ सितम्बर १९५१ के दिन ब्रह्ममुहूर्त में, लगभग २ बजकर ३० मिनट पर पतितपावनी गंगा के किनारे तपोभूमि कनखल (हरिद्वार) में हुआ। आपके द्वारा सम्पूर्ण मानव जाति का उद्धार होगा तथा आप अपनी त्याग-तपस्या, ज्ञान और विवेक से मानवता को विनाश के कगार से बचायेंगे ऐसी अनेक भविष्यवाणियाँ विद्वान ब्राह्मणों एवं ज्योतिषियों ने आपके सम्बन्ध में की हैं। विलक्षण आध्यात्मिक प्रतिभा एवं अलौकिक गुण आप में जन्म से ही विद्यमान हैं; अन्तर्मुखी और ध्यानमग्न आप स्वभाव से ही हैं-ढाई वर्ष की अवस्था में ही आप कितनी ही बार ध्यान मुद्रा में बैठे मिलते थे। गरीब तथा असहाय लोगों पर द्रवित होने की एवं उनकी यथासंभव सहायता करने की प्रवृत्ति भी आपके अन्दर बाल्यकाल से ही रही है।
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