मानवीय आयु का निर्णय कर हमारे ऋषि मुनियों ने सामाजिक व्यवस्था को चार रूपों में विभक्त किया था। ये हैं ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यासाश्रम।
इनमें सबसे महत्वपूर्ण गृहस्थाश्रम है। इसी पर शेष तीनों आश्रमों . की धुरी टिकी है। गृहस्थाश्रम में रहते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करना भी अपने आप में विलक्षण तप है। इस प्रकार देखा जाए तो गृहस्थाश्रम से ही शेष तीनों आश्रमों की सार्थकता है। लेकिन गृहस्थ को चलाना और उसे सार्थक बनाना स्त्री-पुरुष दोनों पर निर्भर करता है। इसलिए दोनों में पारस्परिक प्रेम, सौहार्द, गृहस्थ के लिए पालनीय नियमों- कर्तव्यों का ज्ञान होना आवश्यक है। इसके लिए धर्म-ज्ञान अति आवश्यक है।
लेकिन वर्तमान में धर्म का प्रायः लोप-सा होकर समाज में अर्थ (धन) की प्रधानता हो जाने के कारण स्त्री-पुरुष दोनों ही अपने कर्तव्यों की उपेक्षा कर अर्थार्जन के लिए भागदौड़ में जुट गए हैं। यही कारण है कि आज हर एक व्यक्ति अशांत मन का हो चुका है और गृहस्थ की गाड़ी किसी तरह खिंच रही है।
यह सब पाश्चात्य का प्रभाव है। वहां के जीवन को देखें तो इसी अर्थ लोलुपता के कारण हर दंपत्ति के मध्य परस्पर मन-मुटाव, गृह क्लेश, तलाक जैसी स्थितियां उत्पन्न होती हैं। ऐसी परिस्थितियों से वर्तमान भारतीय समाज भी अछूता नहीं है। यहां भी हालात पाश्चात्य देशों जैसे ही बनते जा रहे हैं। क्योंकि हर स्त्री-पुरुष की कामनाएं, इच्छाएं बलवती होती जा रही हैं, जिनकी पूर्ति के लिए वे आर्थिक दौड़ में शरीक होते जा रहे हैं।
इसका प्रभाव यह देखने में आ रहा है कि न तो वे गृहस्थ के नियमों का पालन कर पा रहे हैं और न ही अपनी संतति पर ध्यान दे पा रहे हैं। इससे न केवल गृहस्थ जीवन का ही ह्रास हो रहा है बल्कि देश-समाज का भी ह्रास हो रहा है।
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए गृहस्थ गीता का लेखन किया गया है ताकि स्त्री-पुरुष गृहस्थ के प्रति अपने दायित्वों को समझें, उन पर विचार करके गृहस्थ की गाड़ी सुचारू रूप से सुखपूर्वक चला सकें।
यह संसार कर्म क्षेत्र है और क्रम व्यक्ति तभी कर सकता है जब उसका मन शांत हो। अशांत मन वाला व्यक्ति किसी भी कार्य को ठीक ढंग से अंजाम नहीं दे सकता। मन भी तभी शांत होता है जब वह अध्यात्म की ओर उन्मुख हो। अध्यात्म की ओर उन्मुख होने से काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकारों का शमन होता है। जिससे व्यक्ति के जीवन में सुख-शांति-समृद्धि आती है।
जिसका मन अशांत होता है, वही व्यर्थ की भागदौड़ करता है। जिसका मन शांत होता है, उसे भागदौड़ करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। उसके ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं और फिर उसकी दृष्टि में अर्थ, धन या माया का कोई महत्व नहीं रहता। दूसरे पर दया करना ही धर्म है तथा मनुष्य या नर सेवा ही नारायण सेवा है। भगवान का पूजन है।
यदि हम विचार करें तो हमारी सभ्यता का पूर्व में आधार 'जीओ और जीने दो' का था, लेकिन आज उसे भुलाकर पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करते हुए 'खाओ, पीओ और जीओ' को अपनाया जा रहा है। जीवन में अशांति का यही मुख्य कारण है।
वस्तुतः हम स्वयं को भूल चुके हैं। इसी कारण हमारा नैतिक पतन हो रहा है। इसलिए आज स्वयं को पहचानने की सख्त आवश्यकता है। प्रस्तुत पुस्तक गृहस्थ गीता का आधार भी यही है कि व्यक्ति स्वयं को पहचानकर गृहस्थ जीवन को सुधारे और अपना, समाज का व देश का कल्याण करने में सहायक की भूमिका निभाए।
पुस्तक में गृहस्थ जीवन से संबंधित सभी मूल बातों को सरल व सुगम्य भाषा में समझाया गया है। आशा है, पाठकगण इसका लाभ उठाएंगे।
अंत में उन सभी महानुभावों, मनीषियों का आभार व्यक्त करता हूँ जिनके मार्गदर्शन, सहायता से यह पुस्तक तैयार कर पाठकों के हितार्थ पाठकों के कर कमलों तक पहुंचाई जा सकी है।
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