भारतीय संस्कृति के अमर गायक महाकवि जयशंकर प्रसाद जी ने कहा है -
'हिमालय के आँगन में प्रथम किरणों का दे उपहार, ऊषा ने हँस अभिनन्दन किया और पहनायाहिरक-हार ।
जगे हम लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक, व्योम-तम-पुंज हुआ तब नाश अखिल संसृति हुई अशोक" ।। सचमुच, अखिल सृष्टि को अभय प्रदान करने वाला दिव्य प्रकाश ही सनातन संस्कृति या भारतीय संस्कृति है। यह संस्कृति आदिकाल से पतित-पावनी, पावन-तोया गंगा मैया की भाँति निर्बाध प्रवाहित चली आ रही है। इस भारतीय संस्कृति की आत्मा उसकी धार्मिक परम्पराएँ हैं। ऋग्वेद् के 'पृथ्वीसूक्त' के अनुसार हमारी मातृभूमि अनेक प्रकार के जन को धारण करती हैं। ये बहु भाषा-भाषी जन नाना प्रकार के सम्प्रदायों में विश्वास करते हैं, लेकिन सबका धर्म वही एक सनातन है । इसीलिए इसी विविधता में एकता के चलते, भारतवर्ष की अन्तरात्मा कभी आक्रान्त नहीं हुई । हमारे ऋषि, मुनि, मनीषियों ने अनेकता के मूल में छिपी एकता के उन तत्त्वों की खोज की, जो हमारी सांस्कृतिक एकता का आज भी वहन कर रहे हैं । समन्वयात्मक दृष्टिकोण जैसा बलशाली तत्त्व हमारी संस्कृति की आत्मा है ।
हमारी धार्मिक परम्पराएँ सबल, निर्बाध और लोक हितकारी बनी रहें, इसके लिए हमारे मनीषियों ने इस संस्कृति में अनेक प्रकार के व्रतपर्वोत्सवों का विधान निर्मित किया है । पुरूषार्थ चतुष्टय में सब की अनिवार्यता है, पर 'मोक्ष' सर्वोपरि है । और भक्ति, ज्ञान, वैरग्य मोक्ष के प्रमुख कारक हैं, इसलिए इनपर हमारे ऋषि पल-पल सावधान रहे हैं । दैनिक चर्या के नित्य, नैमितिक एवं काम्य कर्मों में भगवान की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए मानव-जीवन का व्रतपर्वोत्सवों से समृद्ध होना परम आवश्यक है ।
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