कथा सम्राट् प्रेमचन्द का व्यक्तित्व हिन्दी साहित्य में एक अद्वितीय गौरव से मंडित हैं। प्रेमचन्द हिन्दी कथा साहित्य के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनके साहित्य में समस्त देश की आत्मा एवं समस्त मानवता का जीवन एक विशाल समुद्र की तरह उद्वेलित होकर आगे बढ़ता हुआ दिखाई देता है। वह नैराश्य के भीतर से आशा का, अंधकार के भीतर से प्रकाश का, दुःख और दारिद्रय के भीतर से अपराजेय पौरुष, साहस तथा मानव की शक्ति का संदेश देने में अत्यंत सफल हुए है। मनुष्य के स्वभाव, उसके उत्थान-पतन, उसकी क्रियाप्रक्रिया, विभिन्न परिस्थितियों के भीतर से उसका संघर्ष, उसकी क्षुद्रता, महत्ता सब कुछ प्रेमचन्द साहित्य में एक महत्त दर्पण की तरह ज्यों का त्यों प्रतिफलित देख सकते हैं। प्रेमचन्द साहित्यकार के लिबास में एक सरल किन्तु प्रबुद्ध ग्रामीण रहे हैं। भारतीय जनजीवन का चित्रण उन्होंने जिस स्वाभाविकता तथा कुशलता से किया है, उसके जीवन के संघर्ष, हर्ष- विषाद, आशा-निराशा तथा महत्त्वाकांक्षा को जिस सफलता के साथ वह वाणी दे सके हैं, इससे इन विषयों के प्रति प्रेमचन्द की गहरी पैठ प्रकट होती है। उन्होंने कहानी और उपन्यास लेखन में कीर्ति स्थापित की। उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचन्द के आगमन से पूर्व हिन्दी उपन्यास अपने शैशव के प्रयोग काल में था। उपन्यास के क्षेत्र में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रयोग हो रहे थे। यद्यपि पारिवारिक और सामाजिक विषयों पर रचनाएँ लिखी जाने लगी थीं, किन्तु उपन्यास काल का समुचित विकास नहीं हो पाया था। मनोरंजन पूर्ण और तिलस्मी कथानक पर आधारित उपन्यास लेखन की प्रवृत्ति यद्यपि कमजोर पड़ रही थी, किन्तु सामाजिक समस्याओं को गहराई में चित्रित करने की कला का विकास नहीं हो पाया था। प्रेमचन्द ने 1918 ई० में सेवासदन लिखकर कथ्य और शिल्प में एक क्रांति लाई।
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