श्री श्री दया माता श्री श्री परमहंस योगानन्दजी की आध्यात्मिक उत्तराधिकारी तथा योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़ रियलाइज़ेशन फेलोशिप की तृतीय अध्यक्ष एवं आध्यात्मिक प्रमुख 1955 से 2010 में उनके ब्रह्मलीन होने तक।
"कोई भी सिद्ध मानव जाति को कुछ सत्य प्रदान किये बिना इस संसार से प्रस्थान नहीं करता। प्रत्येक मुक्त आत्मा को अपने आत्मसाक्षात्कार का प्रकाश दूसरों पर डालना ही होता है।" अपने विश्व अभियान के प्रारम्भिक दिनों में परमहंस योगानन्दजी द्वारा कहे गये शास्त्रीय वचन और उन्होंने कैसी उदारता के साथ इस दायित्व को पूर्ण किया! यदि परमहंस योगानन्दजी ने भावी पीढ़ियों के लिये अपने व्याख्यानों और लेखनों से अधिक कुछ भी न छोड़ा होता, तब भी वे वास्तव में ईश्वर के दिव्य प्रकाश के एक उदार दाता के रूप में उचित स्थान पाते। उनके ईश्वर-सम्पर्क से साहित्यिक रचनायें जिस प्रचुरता से प्रकट हुई, उनमें श्रीमद्भगवद्गीता का अनुवाद एवं टीका, गुरु की सबसे व्यापक भेंट मानी जा सकती है- मात्र परिमाण में ही नहीं, अपितु अपने सर्वतोमुखी विचारों में भी।
भारत के इस प्रसिद्ध धर्मग्रन्थ से मेरा अपना प्रथम परिचय पन्द्रह वर्ष की एक युवा लड़की के रूप में हुआ था, जब सर एडविन आर्नोल्ड द्वारा अनुवादित गीता की एक प्रति मुझे दी गयी थी। इसकी सुन्दर काव्यात्मक पंक्तियों ने मेरे हृदय को ईश्वर को जानने की एक तीव्र लालसा से भर दिया था। परन्तु ऐसा कोई कहीं नहीं था जो मुझे उसे पाने का रास्ता दिखा सकता।
दो वर्ष पश्चात् सन् 1931 में, मेरी परमहंस योगानन्दजी से भेंट हुई। उनके चेहरे और उनसे अक्षरशः निःसृत होते आनन्द और दिव्य प्रेम से, यह तत्क्षण और पूर्णतः स्पष्ट हो जाता था कि वे ईश्वर को जानते हैं। मैंने शीघ्र ही उनके आश्रम में प्रवेश कियाः और उसके पश्चात् के बीस वर्षों से भी अधिक समय तक एक शिष्या के रूप में, और आश्रम एवं संस्था सम्बन्धी दोनों ही मामलों, में, उनके सचिव के रूप में- उनकी उपस्थिति में रह कर, और उनके मार्गदर्शन में ईश्वर की खोज करके, मैं धन्य हुई हूँ। बीतते वर्षों ने उनकी आध्यात्मिक महानता की मेरी पहली और विस्मयात्मक पहचान को और गहरा ही किया। मैंने देखा कि किस प्रकार गुरुजी, गीता के सार के एक सच्चे आदर्श के रूप में, संसार को दिये गये हैं- उनके सक्रिय जीवन में मानव जाति के उत्थान के लिये उनकी सेवा और प्रियतम प्रभु, जो निःशर्त प्रेम के देवता हैं, के साथ उनकी निरन्तर घनिष्ठता।
गीता में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा बताये गये ध्यानयोग के विज्ञान में परमहंसजी पूर्ण सिद्ध थे। मैं उन्हें अनायास ही समाधि की अनुभवातीत अवस्था में प्रवेश करते प्रायः देखती थी; हममें से प्रत्येक जो उस वक्त उनके पास होता था, उनके ईश्वर-सम्पर्क से निःसृत होती हुई, अकथनीय शान्ति तथा ब्रह्मानन्द से भर जाता था। एक स्पर्श अथवा शब्द, अथवा दृष्टिपात के द्वारा ही, वे दूसरों को ईश्वरीय उपस्थिति का गहरा बोध करा सकते थे, अथवा अन्तर्सम्पर्क रखने वाले शिष्यों को, अधिचेतन समाधि का अनुभव प्रदान कर सकते थे।
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