ग्रन्थ-परिचय
श्रीमद्भगवद्गीता को महाकाव्य महाभारत का प्राण स्वीकारा गया है जो धरतीवासियो के लिए प्रार्थना पथ नही, बल्कि अलौकिक प्रसादामृत और पंचामृत है जिसकी एक बूँद ही मानव का ब्रह्म में विलय करके उसे मोक्षगति प्रदान करके अमरत्व की ओर प्रशस्त करती है। श्रीमदभगवदगीता की मंत्रशक्ति से प्राय: अधिकांश भक्तजन, साधक आराधक, पाठक तथा जिज्ञासुगण अनभिज्ञ हैं जिसे प्रबुद्ध पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना अपेक्षित है। गीता की मंत्रात्मक शक्ति एव उसकी व्याख्या, गीता मंत्र गंगोत्री में सहज और सघन स्वरूप मे सन्निहित है। गीता मंत्र गंगोत्री बारह अध्यायो में व्याख्यायित विभाजित है जिन्हें अग्रांकित नामो से शीर्षाकित किया गया है:
1. सन्ध्योपासना: सूक्ष्म ज्ञातव्य तथ्य 2.भगवान श्रीकृष्ण से सम्बन्धित आसधना स्तोत्र 3. श्रीमद्भगवद्गीता में सन्निहित मंत्रशक्ति एवं अनुष्ठान विधान 4. विपत्ति विनाशक विविध मंत्र प्रयोग 5. विभिन्न कार्यों की संसिद्धि हेतु वेदविहित मंत्र, 6. वैदिक सूक्त साधन अभिज्ञान 7.पति-पत्नी में सयोग हेतु अनुभव परिहार परिज्ञान 8.केमद्रुम योग शमन 9. कालसर्पयोग दोष: परिहार परिज्ञान 10. पाप निवृत्ति मंत्र आराधना 11. अकाल मृत्यु एवं असाध्य व्याधि से मुक्ति ही जीवन की शक्ति 12. श्राद्ध एवं मोक्ष, पितृ श्राद्ध विधान।
गीता मंत्र गंगोत्री में दुर्लभ अद्भुत और अनुभूत मंत्र प्रयोग, साधानाएँ तथा कतिपय महत्त्वपूर्ण परिहार परिशान सुन्दर और सुरूचिपूर्ण स्वरूप में सन्निहित हैं जो सम्बन्धित विषय पर पाठकगणो के लिए हीरक हस्ताक्षर सिद्ध होगे। महर्षि वेदव्यास ने चार वेद अट्ठारह पुराण एव इक्कीस उपनिषदों के साथ-साथ महाभारत के महाकाव्य की सरचना करने पर कहा था कि ''मेरे कथ के रहस्य को मैं जानता हूँ शुकदेव जानते हैं संजय जानता है अथवा नहीं, इसमें मुझे सन्देह है। इनके अतिरिक्त कोई भी नहीं जानता। हे गणपति! आप भी मेरे ग्रन्थ के मर्म को नहीं जानते। इस महाकाव्य महाभारत मे जो नही होगा, वह विश्व में कहीं नही होगा ।
गीता मंत्र गंगोत्री मंत्रशास्त्र की महकती पुष्पाजलि तथा साधना संज्ञान की ओजस्वल और ऊर्जस्वल उपलब्धि है। मंत्र साधना के सविधि संपादन से, साधक की समस्त अभिलाषाओं अपेक्षाओं और इच्छाओं की संसिद्धि होती है, परन्तु कार्य विशेष की सम्पन्नता हेतु, है, अनिवार्यता है, उपयुक्त एवं अनुकूल साधना के विविवत् संपादन की, जो गीता मंत्र गंगोत्री का वैशिष्ट्य है।
संक्षिप्त परिचय
श्रीमती मृदुला त्रिवेदी देश की प्रथम पक्ति के ज्योतिषशास्त्र के अध्येताओं एव शोधकर्ताओ में प्रशंसित एवं चर्चित हैं। उन्होने ज्योतिष ज्ञान के असीम सागर के जटिल गर्भ में प्रतिष्ठित अनेक अनमोल रत्न अन्वेषित कर, उन्हें वर्तमान मानवीय संदर्भो के अनुरूप संस्कारित तथा विभिन्न धरातलों पर उन्हें परीक्षित और प्रमाणित करने के पश्चात जिज्ञासु छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करने का सशक्त प्रयास तथा परिश्रम किया है, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने देशव्यापी विभिन्न प्रतिष्ठित एव प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओ मे प्रकाशित 460 शोधपरक लेखो के अतिरिक्त 70 से भी अधिक वृहद शोध प्रबन्धों की सरचना की, जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि, प्रशंसा, अभिशंसा कीर्ति और यश उपलव्य हुआ है जिनके अन्यान्य परिवर्द्धित सस्करण, उनकी लोकप्रियता और विषयवस्तु की सारगर्भिता का प्रमाण हैं।
ज्योतिर्विद श्रीमती मृदुला त्रिवेदी देश के अनेक संस्थानो द्वारा प्रशंसित और सम्मानित हुई हैं जिन्हें 'वर्ल्ड डेवलपमेन्ट पार्लियामेन्ट' द्वारा 'डाक्टर ऑफ एस्ट्रोलॉजी' तथा प्लेनेट्स एण्ड फोरकास्ट द्वारा देश के सर्वश्रेष्ठ ज्योतिर्विद' तथा 'सर्वश्रेष्ठ लेखक' का पुरस्कार एव 'ज्योतिष महर्षि' की उपाधि आदि प्राप्त हुए हैं। 'अध्यात्म एवं ज्योतिष शोध सस्थान, लखनऊ' तथा 'द टाइम्स ऑफ एस्ट्रोलॉजी, दिल्ली' द्वारा उन्हे विविध अवसरो पर ज्योतिष पाराशर, ज्योतिष वेदव्यास ज्योतिष वराहमिहिर, ज्योतिष मार्तण्ड, ज्योतिष भूषण, भाग्य विद्ममणि ज्योतिर्विद्यावारिधि ज्योतिष बृहस्पति, ज्योतिष भानु एव ज्योतिष ब्रह्मर्षि ऐसी अन्यान्य अप्रतिम मानक उपाधियों से अलकृत किया गया है।
श्रीमती मृदुला त्रिवेदी, लखनऊ विश्वविद्यालय की परास्नातक हैं तथा विगत 40 वर्षों से अनवरत ज्योतिष विज्ञान तथा मंत्रशास्त्र के उत्थान तथा अनुसधान मे सलग्न हैं। भारतवर्ष के साथ-साथ विश्व के विभिन्न देशों के निवासी उनसे समय-समय पर ज्योतिषीय परामर्श प्राप्त करते रहते हैं। श्रीमती मृदुला त्रिवेदी को ज्योतिष विज्ञान की शोध संदर्भित मौन साधिका एवं ज्योतिष ज्ञान के प्रति सरस्वत संकल्प से संयुत्त समर्पित ज्योतिर्विद के रूप में प्रकाशित किया गया है और वह अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सह-संपादिका के रूप मे कार्यरत रही हैं।
श्रीटीपी त्रिवेदी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से बी एससी के उपरान्त इजीनियरिंग की शिक्षा ग्रहण की एवं जीवनयापन हेतु उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद मे सिविल इंजीनियर के पद पर कार्यरत होने के साथ-साथ आध्यात्मिक चेतना की जागृति तथा ज्योतिष और मंत्रशास्त्र के गहन अध्ययन, अनुभव और अनुसंधान को ही अपने जीवन का लक्ष्य माना तथा इस समर्पित साधना के फलस्वरूप विगत 40 वर्षों में उन्होंने 460 से अधिक शोधपरक लेखों और 70 शोध प्रबन्धों की संरचना कर ज्योतिष शास्त्र के अक्षुण्ण कोष को अधिक समृद्ध करने का श्रेय अर्जित किया है और देश-विदेश के जनमानस मे अपने पथीकृत कृतित्व से इस मानवीय विषय के प्रति विश्वास और आस्था का निरन्तर विस्तार और प्रसार किया है।
ज्योतिष विज्ञान की लोकप्रियता सार्वभौमिकता सारगर्भिता और अपार उपयोगिता के विकास के उद्देश्य से हिन्दुस्तान टाईम्स मे दो वर्षो से भी अधिक समय तक प्रति सप्ताह ज्योतिष पर उनकी लेख-सुखला प्रकाशित होती रही । उनकी यशोकीर्ति के कुछ उदाहरण हैं-देश के सर्वश्रेष्ठ ज्योतिर्विद और सर्वश्रेष्ठ लेखक का सम्मान एव पुरस्कार वर्ष 2007, प्लेनेट्स एण्ड फोरकास्ट तथा भाग्यलिपि उडीसा द्वारा 'कान्ति बनर्जी सम्मान' वर्ष 2007, महाकवि गोपालदास नीरज फाउण्डेशन ट्रस्ट, आगरा के 'डॉ. मनोरमा शर्मा ज्योतिष पुरस्कार' से उन्हे देश के सर्वश्रेष्ठ ज्योतिषी के पुरस्कार-2009 से सम्मानित किया गया ।'द टाइम्स ऑफ एस्ट्रोलॉजी' तथा अध्यात्म एव ज्योतिष शोध संस्थान द्वारा प्रदत्त ज्योतिष पाराशर, ज्योतिष वेदव्यास, ज्योतिष वाराहमिहिर, ज्योतिष मार्तण्ड, ज्योतिष भूषण, भाग्यविद्यमणि, ज्योतिर्विद्यावारिधि ज्योतिष बृहस्पति, ज्योतिष भानु एवं ज्योतिष ब्रह्मर्षि आदि मानक उपाधियों से समय-समय पर विभूषित होने वाले श्री त्रिवेदी, सम्प्रति अपने अध्ययन, अनुभव एव अनुसंधानपरक अनुभूतियों को अन्यान्य शोध प्रबन्धों के प्रारूप में समायोजित सन्निहित करके देश-विदेश के प्रबुद्ध पाठकों, ज्योतिष विज्ञान के रूचिकर छात्रो, जिज्ञासुओं और उत्सुक आगन्तुकों के प्रेरक और पथ-प्रदर्शक के रूप मे प्रशंसित और प्रतिष्ठित हैं । विश्व के विभिन्न देशो के निवासी उनसे समय-समय पर ज्योतिषीय परामर्श प्राप्त करते रहते हैं।
नृदेहमाद्य सुलभ द्युर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् ।
मयानुकूलेन नभस्वतेस्तिं पुमान् भवाब्धि न तरेत् स आत्महा ।।
मनुष्य जन्म मनुष्य का शरीर अत्यन्त दुर्लभ है, यह भगवत्कृपा से प्राप्त हुआ है, यह अत्यधिक सुन्दर सुदृढ़ भवसागर से पार उतार देने वाली नौका है, सतं-महात्मा गुरु-आचार्य तथा स्वयं भगवान इसके कर्णधार हैं अर्थात् नाव को सकुशल पार पहुँचा देने वाले केवट हैं,
पुरोवाक्
भगवान वेदव्यास कृष्ण द्वैपायन का अनुपम, अलौकिक, अद्भुत उपहार श्रीमद्भगवद्गीता धरतीवासियों के लिए प्रार्थना पथ नहीं, बल्कि ऐसा प्रसादामृत एवं पंचामृत है, जिसकी एक बूँद ही मानव का ब्रह्म में विलय करके, उसे मोक्षगति प्रदान करके अमरत्व की ओर प्रशस्त करती है। भगवान वेदव्यास ने कहा था कि ' 'मेरे ग्रन्थ के रहस्य को मैं जानता हूँ शुकदेव जानते हैं। संजय जानता है अथवा नहीं, इसमें मुझे सनदेह है । इनके अतिरिक्त कोई भी नहीं जानता है। हे गणपति! आप भी मेरे ग्रन्थ के मर्म को नहीं जानते हैं । ''भगवान ब्रह्मा ने भगवान व्यास से कहा था कि ''तुम्हारे इस अलौकिक ओर दिव्य महाकाव्य महाभारत की प्राणी पूजा करेंगे और युग-युगान्तर तक कवि और भाष्यकार महाभारत के इस महाकाव्य का भाष्य और अनुवाद करेंगे। जान-विज्ञान और समस्त शास्त्रों, पुराणों तथा स्मृतियों का महासागर होगा यह महाभारत और जो इसमें नहीं होगा, वह विश्व में कहीं पर भी नहीं होगा, परन्तु हे वेदव्यास, सहस्रों वर्षों तक प्राणी भाष्यकार, कवि, सन्त, मनीषी, महर्षि, ऋषि जन नहीं जान सकेंगे कि तुमने कहा क्या है। ''श्रीमद्भगवद्गीता के इस मर्म को भला कौन जान सकता है हमने गीता कं अमृत कलश की एक-दो बूँद को इस कृति में प्रस्तुत करने की चेष्टा की है ।
उल्लेखनीय है कि श्रीमद्भगवद्गीता, महाकाव्य महाभारत का प्राण है। भगवान श्रीकृष्ण ने महावीर अर्जुन को कुरुक्षेत्र के युद्ध प्रांगण में महासमर के मध्य कर्मयोग के मर्म का सिद्धान्त सम्बन्धी उपदेश देकर, अर्जुन के ज्ञानचक्षुओं को अन्तदृष्टि प्रदान की है। श्रीमद्भगवद्गीता अट्ठारह अध्यायों में व्याख्यायित वर्णित है। महाभारत का महासंग्राम महासमर भी अट्ठारह दिवस पर्यन्त कुरुक्षेत्र की धरती का, प्राणियों के लहू से सिंचन करता रहा था। महाभारत के युद्ध में अट्ठारह अक्षौहिणी सेना थी। यजुर्वेद का अन्तिम अर्थात् चालीसवाँ अध्याय, जो ईशावास नाम से प्रतिष्ठित है, उसमें भी अट्ठारह ऋचाएँ हैं । महाराज कुरु द्वारा सम्पादित हुआ कुरु यज्ञ अट्ठारह दिनों में सम्पन्न हुआ था और इसी कारण उस क्षेत्र का नाम कुरुक्षेत्र प्रतिष्ठित हुआ था।
भगवान वेदव्यास कृत महाकाव्य महाभारत में सोलह लाख श्लोक आविष्ठित हैं । इसमें से बारह लाख श्लोक देवलोक के लिए हैं, जिसे महामुनि नारद देवलोक में गाकर सुनाएँगे । तीन लाख श्लोक पितृलोक के लिए हैं, जिसे शुकदेव जी गाकर सुनाएँगे। महाभारत में समायोजित मात्र एक लाख श्लोक धरतीवासियो के लिए है। इसका रहस्य तो भगवान वेदव्यास, शुकदेव जी और ब्रह्मा जी ही जानते हैं। ब्रह्माजी नै भगवान वेदव्यास से कहा था कि जिस महाकाव्य की तुमने कल्पना की है, उससे सम्पूर्ण विश्व सदा तुम्हारा ऋणी और कृतज्ञ रहेगा। जो महाकाव्य, महाभारत में नहीं होगा, वह फिर विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं होगा । इससे धरतीवासी प्रेरणा तो प्राप्त करेंगे, परन्तु यह मर्म सदा रहस्य ही रहेगा। महाभारत में सन्निहित रहस्य को जानने के लिए संज्ञान नहीं, साधना की अनिवार्यता है। साधना पथ पर प्रशस्त होने हेतु श्रीमद्भगवद्गीता नामक सिन्धु के कतिपय बिन्दु, गीता मंत्र गंगोत्री में पाठकों के कल्याणार्थ प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है।
गीता और सप्तशती का निहितार्थ
श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीदुर्गासप्तशती, धरतीवासियो को ईश्वर द्वारा प्रदत्त, मानवता के कल्याण हेतु अतुलनीय उपकार और उपहार है, जिनके अभाव में सृष्टि का सृजन एवं सन्दर्शन अपूर्ण है। गीता द्वारा मानवता के उत्थान का पथ प्रशस्त होता है जबकि सप्तशती मानव के निर्माण और नैमित्तिक कार्यो का साधना पथ है । गीता यदि मस्तिष्क है, तो सप्तशती हृदय है और जीवन की गति-मनि कै लिए गीता और सप्तशती, दोनों की अनिवार्यता असंदिग्ध है । गीता तो जीवन का अर्थ है तो सप्तशती जीवन का स्पन्दन है । स्पन्दन दमे अभाव में जीवन चेतनाविहीन है । जीवन है तो चेतना है । मस्तिष्क है तो हृदय के स्पन्दन की सार्थकता है । हृदय का स्पन्दन है तो मस्तिष्क की चेतना और चिन्तन का अर्थ है । अत: गीता और सप्तशती ही मानव की चेतना और शक्ति हैं । भारतीय दर्शन की जटिलता को ऋषि, महर्षि और मुनियों ने सदा उपाख्यान के रूप में जीवन के इस परमोत्कर्ष भाव से प्राप्तव्य प्रयोजन को, गीता एवं सप्तशती के नाम से, इस सृष्टि की मानवता के उत्थान और कल्याण की कामना से, धरतीलोक को प्रदान किया है। ज्ञातव्य है कि ईश्वर के प्राशीष के रूप में प्राप्त इन दोनों ग्रन्थों का तत्वार्थ समझने हेतु अभिज्ञान की नहीं, बल्कि आराधना की अनिवार्यता असंदिग्ध है।
जीवन को ऊर्जस्वल करने का और सांसारिक प्रताड़नाओ से अकुण्ठ रहने का सरल-सुगम उपाय है इन दो ग्रंथों का पठन, पाठन और पारायण। गीता तद्दर्शन कराती है और सप्तशती तत्वदर्शन।तद्दर्शन व्यष्टि मैं समष्टि को प्रतिबिम्बित करता है और सप्तशती समग्र में ऐक्य को सिद्ध करती है । विकृति प्रधान दानव जब प्राकृत देवता कोकुण्ठित करने लगता है तो प्रकृति आत्मनिष्ठ तेजस् को संघनित करती है, तत्त्व के रूप में प्रकीर्ण शक्ति शाकल्य को सकल रूप में स्थापित करती है यही तत्त्व दर्शन है अर्थात् शक्ति के प्रतीकों को धारण कर रहा देवत्व जब कार्पण्य दोष से पराभूत हो जाता है तो उनका अनेकत्व देवी के एकत्व में प्रकट होता है । स्वाभाविक है, विपद को प्रखरता प्रकृति के अन्त: सत्त्व को उद्वेलित करती है और वह अपने अमित तेज से प्रकट होता है । पराम्बा की रूपत्रयी में कालिका की रूप भंगी ऐसे ही तत्त्व दर्शन की उपलब्धि है। मलाच्छनन्न सत्य जब आत्मसृष्ट विकृति से ढँक जाता है तो उसमें क्रान्ति होती है । यही क्रान्ति जब अपने सम्पूर्ण बल से प्रवर्तित होती है तो कालिका की उत्क्रान्ति बन जाती है। इसमें सारे स्थूल और सूक्ष्म मल भस्म होने लगते हैं । कृष्ट के विकराल स्वरूप की रमणीयता को पापी मन अनुभव नहीं कर पाता, वह उससे लुकता-छिपता आत्म कार्पण्य के खोल में दुबका रहता है।
यह सारा जंजाल व्यक्ति के सामर्थ्य को व्याहत किए रहता है। सामर्थ्य प्राप्त होने पर व्यक्ति आत्मनि ब्रह्म दर्शन कर लेता है, स्वयं ब्रह्म हो जाता है। ब्रह्म प्राप्ति 'अथवा शक्ति के अविकृत रूप को प्राप्त करने में बाधक मन तक का स्तर रहता है और मलों का प्रसार यहीं तक रहता है । ये मल ही विस्मृति, विमोहन और ख्याति कहलाते हैं । ये ही बुद्धि के निर्मल तेजस् को कुहरवत् कुण्ठित करते हैं । भगवान पतंजलि इसके लिए कहते हैं-- 'प्रत्ययानुपश्य: ' प्रत्यय अर्थात् बुद्धि तत्त्व । निर्मलता बुद्धि का विग्रह है, लक्षण हैं, उसके राज्य मैं वितर्क नहीं है कुण्ठा नहीं है, कार्पण्य नहीं है । जो कुछ है शाश्वत है, अविकारी है, शब्द है इसलिए शक्ति का यथार्थ दर्शन करने की क्षमता केवल बुद्धि में है । यही आ है, यही ऋत है, यही अनुपश्या है । मन का हिरण्मयपात्र हटने पर ही सत् का उज्ज्वल स्वरूप दृष्य होगा । इस संघर्ष का अन्त इससे पहले हो नहीं सकता और इस संघर्ष कै लिए संसार के कोलाहल से खिन्न होना शर्त है । यह खेद ही गीता 'और सप्तशती की अवतरण भूमि है और इनका पाठ विषादविमुक्त आनन्द की साधना । यह कृति सामान्य मंत्र, स्तोत्र, अनुष्ठान आदि से सम्बन्धित संरचनाओं से पूर्णत: पृथक् है जिसमें अनेक दुर्लभ, परन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अभीष्टों की संसिद्धि हेतु विविध साधनाएँ, मंत्र प्रयोग, स्तोत्र पाठ, सूक्त साधना आदि समायोजित की गई हैं। गीता मंत्र गंगोत्री बारह विशिष्ट अध्यायों में व्याख्यायित तथा विवेचित है जिनमें समाहित सामग्री का संक्षिप्त उल्लेख अग्रांकित है।
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