पुस्तक परिचय
इस पुस्तक में महर्षि घेरण्ड प्रणीत घेरण्ड संहिता की स्वामी निरंजानन्द सरस्वती द्वारा विशद व्याख्या की गयी है। इसमें सप्तांग योग की व्यावाहारिक शिक्षा दी गयी है। शरीर शुद्धि की क्रियाओं, जैसे, नेति, धौति, वस्ति, नौलि, कपालभाति और त्राटक से आरंभ कर आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि के अभ्यासों का सरल भाषा में सचित्र वर्णन किया गया है।
महर्षि घेरण्ड के घटस्थ योग के नाम से प्रसिद्ध ये अभ्यास आत्माज्ञान प्राप्त करने के लिए शरीर को माध्यम बनाकर मानसिक और भावनात्मक स्तरों को नियंत्रित करते हुए आध्यात्मिक अनुभूति को जाग्रत करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यह पुस्तक प्रारंभिक से लेकर उच्च योगाभ्यासियों के लिए अत्यंत उपयोगी, ज्ञानवर्द्धक एवं संग्रहणीय है।
लेखक परिचय
स्वामी निरंजनानन्द का जन्म छत्तीसगढ़ के राजनाँदगाँव में सन् 1960 में हुआ । जन्म से ही उनकी जीवन दिशा उनके गुरु, स्वामी सत्यानन्द सरस्वती द्वारा निर्देशित रही । चार वर्ष की अवस्था में वे गुरु सात्रिध्य में रहने बिहार योग विद्यालय आये, जहाँ उनके गुरु ने योग निद्रा के माध्यम से उन्हें योग एवं अध्यात्म का गहन प्रशिक्षण प्रदान किया । सर 1971 में वे दशनामी संन्यास परम्परा में दीक्षित हुए, तत्पश्चात् 11 वर्षों तक विभिन्न देशों की यात्राएँ कर उन्होंने अनेक कलाओं में दक्षता अर्जित की और विभिन्न संस्कृतियों के सम्पर्क में रहकर उनकी गहरी समझ प्राप्त की तथा यूरोप, ऑस्ट्रेलिया उत्तर एवं दक्षिण अमरीका में अनेक सत्यानन्द योग केन्द्रों एवं आश्रमों की स्थापना की ।
1983 में गुरु आज्ञानुसार भारत लौटकर वे बिहार योग विद्यालय, शिवानन्द मठ तथा योग शोध संस्थान की गतिविधियों के संचालन में संलग्न हो गए। सन् 1990 में वे परमहंस परम्परा में दीक्षित हुए और 1995 में स्वामी सत्यानन्द के उत्तराधिकारी के रूप में उनका अभिषेक किया गया। सन् 1994 में उन्होंने विश्व के प्रथम योग विश्वविद्यालय, बिहार योग भारती की तथा 2000 में योग पब्लिकेशन्स ट्रस्ट की स्थापना की। सन् 1995 में उन्होंने बच्चों के एक बृहत् योग आन्दोलन, बाल योग मित्र मण्डल का शुभारम्भ किया । मुंगेर में विभिन्न गतिविधियों का संचालन करने के अलावा उन्होंने दुनियाभर बने साधकों का मार्गदर्शन करने हेतु व्यापक रूप से यात्राएँ कीं । सन् 2009 में उन्हें अपने गुरु से संन्यास जीवन का एक नया अध्याय शुरू करने का आदेश प्राप्त हुआ ।
स्वामी निरंजनानन्द योग दर्शन, अभ्यास एवं जीवनशैली की गहन जानकारी और समझ रखते हैं तथा योग, तंत्र एवं उपनिषदों पर अनेक प्रमाणिक पुस्तकों के प्रणेता भी हैं । प्राचीन तथा अर्वाचीन परम्पराओं का सुन्दर सम्मिश्रण करते हुए वे इस समय मुंगेर में अपने गुरु के मिशन को आगे बढ़ाने बने कार्य में संलग्न हैं।
ग्रन्थ परिचय
घेरण्ड संहिता व्यावहारिक योग पर लिखा गया एक साहित्य है, जिसके प्रणेता महर्षि घेरण्ड हैं । उनकी कृति से मालूम पडता है कि वे एक वैष्णव सन्त रहे होंगे, क्योंकि उनके मन्त्रों में विष्णु की चर्चा की गयी है । फल विष्णु थल विष्णुअर्थात् जल में विष्णु हैं थल में विष्णु हैं । एक दो स्थानों पर नारायण की चर्चा की गयी है । जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्होंने वैष्णव सिद्धान्त को अपने जीवन में अपनाया था और साथ हीं साथ एक सिद्ध हठयोगी भी थे । उन्होंने योग को जो स्वरूप दिया, उसमें शरीर से शुरू करके आत्म तत्त्व तक की जानकारी दी गयी है । अभ्यासों की रूप रेखा बतायी गयी है ।
घेरण्ड संहिता की प्राच्य प्रतियों से यह अनुमान लगाया जाता है कि ये सत्रहवीं शताब्दी के एथ हैं । वैसे महर्षि घेरण्ड का जन्म कहाँ हुआ था या वे किस क्षेत्र में रहते थे, यह कोई नहीं जानता । घेरण्ड संहिता की उपलब्ध प्रतियों में पहली प्रति सन् 1804 की है ।
घेरण्ड संहिता में जिस योग की शिक्षा दी गयी है, उसे लोग सप्तांग योग' के नाम से जानते हैं । योग में कोई ऐसा निश्चित नियम नहीं है कि योग के इतने पक्ष होने ही चाहिए । अन्य गन्थों में अष्टांग योग की चर्चा की गयी है, लेकिन हठयोग के कछ ग्रथों में योग के छ: अंगों का वर्णन किया गया है। हठ रत्नावली' में, जिसके प्रणेता महायोगिन्द्र श्री निवास भट्ट थे, चतुरंग योग है । गोरखनाथ द्वारा लिखित गोरक्ष शतक' में षडांग योग की चर्चा की गयी है ।
एक युग की आवश्यकता के अनुसार, समाज की आवश्यकता के अनुसार लोगों ने योग की कछ पद्धतियों को प्रचलित किया । सम्भवत यह कारण भी हो सकता है कि एक जमाने में धारणा थी कि योग का अभ्यास केवल साधु त्यागी, विरक्त या महात्मा कर सकते हैं । ऐसी स्थिति में उन्हें योग के प्रारम्भिक यम और नियमों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं पडती होगी । इसलिए यम और नियम को बहुत स्थानों से हटाया गया है । उनका वर्णन नहीं किया गया है । लेकिन जैसे जैसे युग परिवर्तित होता गया और जन सामान्य योग के प्रति रुचि दर्शाने लगा, बाद के विचारकों एवं मनीषियों ने यम और नियम को भी योग की परिभाषा में जोड़ दिया ।
घेरण्ड संहिता में सबसे पहले शरीर शुद्धि की क्रियाओं की चर्चा की गयी है, जिन्हें षट्कर्म कहा जाता है । इनमें प्रमुख हैँ नेति नाक की सफाई, धौति पेट के ऊपरी भाग और भोजन नली की सफाई वस्ति आँतों की सफाई जिससे हमारे शारीरिक विकार दूर हो जाएँ शारीरिक विकार उत्पन्न न हों, नौलि पेट, गुर्दे इत्यादि का व्यायाम, कपालभाति प्राणायाम का एक प्रकार, और त्राटक मानसिक एकाग्रता की एक विधि । षट्कर्मों या हठयोग के ये छ: अंग माने जाते हैं । शरीर शुद्धि की इन क्रियाओं को महर्षि घेरण्ड ने योग का पहल' आयाम माना है । इसके बाद आसनों की चर्चा की है ।
महर्षि घेरण्ड ने मुख्यत ऐसे ही आसनों की चर्चा की है, जिनसे शरीर को दृढ़ता एवं स्थिरता प्राप्त होती है । यहाँ पर भी आसनों का उद्देश्य शरीर पर पूर्ण नियन्त्रण के पश्चात् ऐसी स्थिति को प्राप्त करना है, जिसमें शारीरिक क्लेश, या द़र्द उत्पन्न न हो । तीसरे आयाम के अन्तर्गत वे मुद्राओं की चर्चा करते हैं । मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं । महर्षि घेरण्ड ने पचीस मुद्राओं का वर्णन किया है, जिनके द्वारा हमारे भीतर प्राणशक्ति के प्रवाह को नियन्त्रित किया जा सकता है । उनका कहना है कि प्राण हमारे शरीर के भीतर शक्ति और ताप उत्पन्न करते हैं । उच्च साधना में जब व्यक्ति लम्बे समय तक एक अवस्था में बैठता है, तो उसके शरीर से गर्मी निकलती है । शरीर का तापमान कम हो जाता है, क्योंकि हमारे भीतर प्राणशक्ति नियन्त्रित नहीं है । लेकिन मुद्राओं के अभ्यास द्वारा हम प्राणशक्ति या ऊर्जा को अपने शरीर में वापस खींच लेते हैं, उसे नष्ट नहीं होने देते । प्राण को शरीर के भीतर रोकने के लिए महर्षि घेरण्ड ने मुद्राओं का वर्णन किया है ।
मुद्राओं के बाद चौथे आयाम के रूप में उन्होंने इस उद्देश्य के साथ प्रत्याहार का वर्णन किया है कि जब शरीर शान्त और स्थिर हो जाए प्राणों का व्यय न हो, वे अनियन्त्रित न रहें, हमारे नियन्त्रण में आ जायें, तब मन स्वत अन्तर्मखी हो जाएगा । पहले हम अपने शरीर को शुद्ध कर लेते हैं । शरीर के विकारों को हटा देते हैं । उसके बाद आसन में स्थिरता प्राप्त करते हैं । तत्पश्चात् प्राण को सन्तुलित एवं नियन्त्रित करते हैं, तो चौथे में मन स्वाभाविक रूप से अन्तर्मखी हो जाता है । प्रत्याहार के बाद पाँचवें आयाम में उन्होंने प्राणायाम के अभ्यास को जोड़ा है। प्राणायाम के जितने अभ्यास घेरण्ड संहिता में बतलाए गये हैं, उनका सम्बन्ध मन्त्रों के साथ है कि यदि व्यक्ति प्राणायाम करे तो मन्त्रों के साथ । प्राणायाम के अभ्यास में हम श्वास प्रश्वास को अन्दर बाहर जाते हुए देखते हैं और उनकी लम्बाई को समान बनाते हैं । महर्षि घेरण्ड ने भी यही पद्धति अपनायी है, लेकिन गिनती के स्थान पर मन्त्रों का प्रयोग किया है । उनका कहना है कि प्रत्याहार की अवस्था में, जब मन अन्तर्मुखी और केन्द्रित हो रहा हो, उस समय सक्ष्म अवस्था में प्राणों को जाग्रत करना सरल है । उस अवस्था में प्राणों की जाग्रति और मन को अन्तर्मुखी बनाने के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता । प्रत्याहार के बाद स्वाभाविक रूप से सूक्ष्म स्तर के अनुभव, सूक्ष्म जगत् की अनुभूतियाँ होंगी और आप प्राण को जाग्रत कर पायेंगे ।
मन्त्र के प्रयोग को जोड़कर उन्होंने प्राणायाम के अभ्यास को और शक्तिशाली बना दिया है, क्योंकि जब हम श्वास के साथ मन्त्र जपते है तो उसके स्पन्दन का प्रभाव पड़ता है, जिससे एकाग्रता का विस्तार होता और प्राण के क्षेत्र में शक्ति उत्पन्न होती है, जाग्रत होती है । जिस पर हमारा नियन्त्रण रहता है । वह शक्ति अनियन्त्रित नहीं रहती । इसके बाद छठे आयाम के अन्तर्गत आता है ध्या ।प्राण जाग्रत हो जाएँ मन अन्तर्मुखी हो जाए उसके बाद ध्यान अपने आप ही लगता है । उन्होंने ध्यान के तीन प्रकार बतलाए हैं बहिरंग ध्यान, अन्तरंग ध्यान और एकचित्त ध्यान । बहिरंग ध्यान में जगत् और इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न अनुभवों के प्रति सजगता, अन्तरंग ध्यान में सूक्ष्म मानसिक स्तरों में उत्पन्न अनुभवों की सजगता और एकचित्त ध्यान में आन्तरिक अनुभूति की जाग्रति होती है। सातवें आयाम में समाधि का वर्णन किया गया है ।
इस प्रक्रिया या समूह को उन्होंने एक दूसरा नाम दिया है घटस्थ योग' । घटस्थ योग का मतलब हुआ, शरीर पर आधारित योग । घट का अर्थ होता है शरीर । यह शरीर घट है । घट का दुसरा अर्थ होता है घड़ा । शरीर को उन्होंने एक घडे के रूप में देखा, जो पदार्थ बनी हुई एक आकृति है, और परमेश्वर ने उसमें जो कुछ भर दिया है इन्द्रिय कहिए मन कहिए बुद्धि कहिए अहंकार कहिए सब मिलाकर हमारा यह घड़ा बना है ।
अत आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए योग की शुरुआत शरीर से होती है और शरीर के माध्यम से हम अपने मानसिक और भावनात्मक स्तरों को नियन्त्रित करके आध्यात्मिक अनुभूति को जाग्रत कर सकते हैं। यह इनकी मान्यता है।
विषय सूची
अध्याय 1
षट्कर्म प्रकरण
धौति
28
अन्तर्धौति
वातसार अन्तर्धौति
29
वारिसार अन्तर्धौति
33
अग्निसार अन्तर्धौति
44
बहिष्कृत अन्तर्धौति
49
दन्त धौति
55
दन्तमूल धौति
56
जिह्वाशोधन धौति
58
कर्णरन्ध्र धौति
60
कपालरन्ध्र धौति
63
हृद्धौति
64
दण्ड धौति
65
वमन धौति
66
वस्त्र धौति
71
मूलशोधन
75
वस्ति
80
जल वस्ति
82
स्थल वस्ति
84
नेति क्रिया
88
जल नेति
सूत्र नेति
93
लौलिकी
97
मध्यम नौलि
99
वाम नौलि
100
दक्षिण नौलि
101
त्राटक
106
कपालभाति
113
वातकर्म कपालभाति
114
व्युत्क्रम कपालभाति
117
शीतक्रम कपालभाति
118
अध्याय 2
योगासन प्रकरण
आसन भेद
सिद्धासन
126
पद्मासन
130
भद्रासन
135
मुक्तासंन
137
वज्रासन
139
स्वस्तिकासन
142
सिंहासन
144
गोमुखासन
147
वीरासन
150
धनुरासन
152
मृतासन (शवासन)
154
गुप्तासन
157
मत्स्यासन
158
मत्स्येन्द्रासन
161
गोरक्षासन
165
पश्चिमोत्तानासन
167
उत्कट आसन
170
संकट आसन
172
मयूरासन
173
कुक्कुटासन
176
कूर्मासन
178
उत्तान कूर्मासन
181
मण्डुकासन
182
उत्तान मण्डुकासन
183
वृक्षासन
184
गरुड़ासन
186
शलभासन
188
मकरासन
191
उष्ट्रासन
193
भुजंगासन
196
यौगासन
199
अध्याय 3
मुद्रा और बन्ध प्रकरण
बन्ध
मूल बन्ध
208
जालन्धर बन्ध
213
उड्डियान बन्ध
217
महाबन्ध
220
धारणा
पार्थिवी धारणा
222
आम्भसी धारणा
224
आग्नेयी धारणा
226
वायवीय धारणा
228
आकाशी धारणा
230
मुद्राएँ
महामुद्रा
231
नभो मुद्रा
234
खेचरी मुद्रा
235
महाबेध मुद्रा
239
विपरीतकरणी मुद्रा
242
योनि मुद्रा
247
वज्रोणि मुद्रा
252
शक्तिचालिनी मुद्रा
255
तड़ागी मुद्रा
258
माण्डुकी मुद्रा
260
शाम्भवी मुद्रा
262
अश्विनी मुद्रा
265
पाशिनी मुद्रा
267
काकी मुद्रा
269
मातङ्गिनी मुद्रा
271
भुजङ्गिनी मुद्रा
272
अध्याय 4
प्रत्याहार प्रकरण
षट् शत्रु वर्णन
281
आत्म लयत्व
अध्याय 5
प्राणायाम प्रकरण
स्थान निर्णय
289
काल निर्णय
291
मिताहार
294
निषिद्ध आहार
295
नाड़ी शुद्धि
298
सहित प्राणायाम
307
सगर्भ प्राणायाम
निगर्भ प्राणायाम
311
सूर्यभेद प्राणायाम
314
उज्जायी प्राणायाम
319
शीतली प्राणायाम
321
भस्त्रिका प्राणायाम
323
भ्रामरी प्राणायाम
326
मूर्च्छा प्राणायाम
330
केवली प्राणायाम
333
अध्याय 6
ध्यान प्रकरण
स्थूल ध्यान
342
ज्योति ध्यान
355
सूक्ष्म ध्यान
357
अध्याय 7
समाधि प्रकरण
ध्यानयोग समाधि
369
नादयोग समाधि
371
रसानन्द समाधि
373
लयसिद्धि समाधि
374
भक्तियोग समाधि
376
मनमूर्च्छा समाधि
378
समाधियोग महात्म्य
380
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