हमारे परम आराध्यतम नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद परमहंस परिव्रजाकाचार्य अष्टोत्तरशत श्री श्रीमद् ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की असीम कृपा से 'घर के श्रीठाकुर जी की सेवा-पूजा' नामक इस पुस्तक को श्रद्धालु पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मैं अपार प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ।
वैदिक शास्त्रों, साधुओं और गुरुओं द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के अर्च-विग्रह की सेवा-पूजा की संस्तुति की गई है। भगवान् श्रीकृष्ण का सर्वप्रमुख गुण है-उनकी भक्तवत्सलता। वे सदैव अपने भक्त पर अपनी वत्सलता लुटाना चाहते हैं और इसके लिए वे कोई भी विधि अपना सकते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण आध्यात्मिक हैं जबकि उनका भक्त भौतिक जगत में भौतिक चेतना के कारण संघर्षरत है। वह भगवान् की सेवा करना चाहता है, परंतु भौतिक स्तर पर होने के कारण वह उनका प्रत्यक्ष संग प्राप्त करने में सक्षम नहीं होता। इस कारण भगवान् स्वयं उस भक्त के स्तर के अनुकूल बन जाते हैं ताकि वह भक्त सरलता से भगवान् की सेवा कर सके। भगवान् स्वयं अपना नामरूप धारण कर लेते हैं, ताकि भक्त उनके नामों का जप कर भगवान् की सेवा कर सके। भगवान् अपना धाम बन जाते हैं, ताकि भक्त उनके धाम की यात्रा कर अपनी चेतना को कृष्णभावनाभावित बना सके। भगवान् अर्च-विग्रह बन जाते हैं ताकि भक्त गोलोक धाम में उनकी प्रत्यक्ष सेवा की ही भांति इस भौतिक जगत में भी उनकी प्रत्यक्ष सेवा का लाभ उठा सके। ये सब भगवान् की भक्तवत्सलता ही तो है।
जब हमारे आचार्य-गुरु भगवान् श्रीकृष्ण से एक विग्रह में मूर्तिमंत हो जाने के लिए प्रार्थना करते हैं, तो करुणामय भगवान् अपने शुद्ध भक्त की प्रार्थना की उपेक्षा नहीं करते हैं। वे गोलोक धाम से उतरकर उस विग्रह में स्थित हो जाते हैं और अपने भक्त को अपनी प्रत्यक्ष सेवा का अवसर प्रदान करते हैं। अतः हमें यह निश्चित कर लेना चाहिए कि भगवान् श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह वे स्वयं ही हैं। भगवान् श्रीकृष्ण और उनके श्रीविग्रह में कोई भेद नहीं है। अपितु यह तो भगवान् की महान् कृपा है कि वे भक्त के लिए मूर्तिमंत हो गए हैं। हमारे ऐसे अनेकों आचार्य एवं भक्त हुए हैं, जो भगवान् की शुद्ध एवं भक्तिमय प्रेमभाव से सेवा करते थे और भगवान् विग्रह-स्वरूप में होते हुए भी उनसे साक्षात् व्यवहार करते थे। जैसे श्रीमदनमोहन जी द्वारा अपने हाथ से श्रील सनातन गोस्वामी द्वारा अर्पित बाटी का भोग ग्रहण करना, तरुण ब्राह्मण के लिए गोपाल जी के श्रीविग्रह द्वारा साक्षी रूप में वृंदावन से पैदल चलकर विद्यानगर पहुंचना आदि। हमें इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जब भक्त भगवान् के विग्रह में पूर्ण भगवत्-बुद्धि रखता है और तब भगवान् उसके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार एवं आदान-प्रदान करते हैं। भक्त का श्रीविग्रहों के प्रति जितना अधिक शुद्ध सेवाभाव होता है, भगवान् श्रीविग्रह रूप में उस भक्त के साथ उतना अधिक व्यवहार करते हैं। वहीं दूसरी ओर, जो व्यक्ति भगवान् के श्रीविग्रहों को केवल पत्थर, पीतल आदि मानता है, वह नरक में भेजे जाने के योग्य है। ऐसा व्यक्ति यमराज द्वारा दंडनीय है। एक भक्त को ऐसे व्यक्ति के दर्शन मात्र होने पर भी वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए।
इस पुस्तिका के लेखक जो श्रील प्रभुपाद के परम प्रिय शिष्य हैं, श्रीमान् क्रतु दास जी का जन्म 5 जुलाई 1944 को लाछरस गाँव, गुजरात, भारत में हुआ। अपने मातृक गाँव में जन्म लेने वाले लेखक का परिवार वैष्णव था। लेखक की माताजी श्रीमती शांताबेन और पिताजी श्रीमान् भवानभाई, ने जन्म से ही उन्हें कृष्णभावनाभावित होने का सुअवसर प्रदान किया और उन्हें कृष्ण भक्ति के मार्ग पर अग्रसर किया। उनकी माताजी ने उन्हें बचपन से ही सभी वैदिक ग्रंथों, यथा महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत का गहन अध्ययन करवाया। उनके पिताजी उन्हें कृष्ण कथा और भजनों का आस्वादन करवाते थे और उनके दादाजी प्रतिदिन उन्हें भगवान् श्रीराम के विग्रह के दर्शन के लिए मंदिर लेकर जाते थे। लेखक में बचपन से ही नेतृत्व के गुण थे। वह वाकल हाई स्कूल, मोभा रोड, वडोदरा, गुजरात छात्र संघ के अध्यक्ष थे। वडोदरा से सिविल इंजीनियरिंग पूर्ण करने के बाद उन्होंने सन् 1972 में अमेरिका की सेंट लुइस यूनिवर्सिटी से मास्टर्स ऑफ साइंस की डिग्री प्राप्त की।
सन् 1968 में उन्होंने श्रीमती अमृतकेलि देवी दासी से विवाह किया, जो स्वयं एक धार्मिक महिला हैं एवं भगवान् श्रीकृष्ण की समर्पित भक्त हैं। ये दोनों सन् 1970 में इस्कॉन के संपर्क में आये एवं सन् 1974 से टोरंटो इस्कॉन मंदिर में पूर्णकालीन सेवक बने। सन् 1976 में उन्हें श्रील प्रभुपाद के प्रथम दर्शन हुए एवं उन्होंने लेखक एवं माताजी को अपने शिष्यों के रूप में स्वीकार करते हुए आशीर्वाद दिया। अगले ही वर्ष उन्होंने श्रील प्रभुपाद से दीक्षा प्राप्त की।
अमेरिका एवं कनाडा में एक सफल सिविल इंजीनियर के पद पर कार्यरत होते हुए भी वे कभी पश्चिमी सभ्यता से आकर्षित नहीं हुए। श्रील प्रभुपाद से प्रेरित होकर लेखक ने अपने इंजीनियर पद का त्याग कर दिया और इस्कॉन के पूर्ण उपासक बन गए। वे सुबह-शाम प्रचार कार्यों एवं अन्य सेवाओं में व्यस्त रहने लगे। वे टोरंटो, शिकागो एवं वैंकूवर मंदिर के सामूहिक प्रचार कार्यों के संचालक थे। सन् 1987 में वे इस्कॉन बैंकूवर मंदिर के अध्यक्ष बने। उन्होंने बैंकूवर एवं वेस्ट वर्जिनिया में न्यू वृंदावन मंदिर के निर्माण में भी सिविल इंजिनियर की भूमिका निभाई।
पश्चिमी देशों में लम्बे समय तक प्रचार करने के उपरान्त, श्रीमान् क्रतु दास जी सन् 1993 में भारत लौट आये एवं गुजरात में प्रचार करने लगे।
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