प्रकाशकीय
भारतीय लोक जीवन अपनी सरसता और सादगी के लिए सुविख्यात है । यह समृद्ध लोक परम्पराओं, लोक नृत्यों, लोक गीतों, लोक गाथा-गीतों, लोक कथाओं से ओतप्रौत है । इन्ही लोक कलाओं के माध्यम से हम अपने अतीत से जुड़े हुए हैं । इन लोक कलाओं मैं अवगाहन किए बिना भारतीय संस्कृति का सांगोपांग परिचय प्राप्त करना सर्वधा असम्भव है ।
पंजाबी लोक जीवन की भी अपनी एक उन्नत परम्परा है । प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान लेखक ने लोक गाथा-गीतों (फोक बैलेड्स) को लोक साहित्य की एक स्वतंत्र विधा के रूप में निरूपित किया है । यह एक विश्लेषणात्मक एवं आलोचनात्मक अध्ययन है । यद्यपि इसमें पंजाब के लोक गाथा-गीतों का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है तथापि इस अकाट्य सत्य से कोई इंकार नही कर सकता कि भारत के किसी भी प्रदेश के लोक जीवन का मूलभूत लोक तत्व एक ही है और वह है- भारतीय लोक तत्व, जिसमें भारतीय दर्शन, अध्यात्म, मिथक और इतिहास का अद्भुत सम्मिश्रण है ।
प्रकाशन विभाग का प्रयास रहा है कि अपने पाठकों को ऐसा साहित्य उपलब्ध कराया जाए जिसकी परिणति राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ करने के रूप में हो । यह पुस्तक इसी दिशा में एक कदम है । आशा है, सुविज्ञ पाठक इससे लाभान्वित होंगे ।
भूमिका
इन दिनों यह अक्सर सुनने में आता है कि लोक साहित्य का हमारी आज की जिंदगी और दुनिया से कोई सम्बंध नहीं रहा है । लोक साहित्य हमसे दूर हो चुका है और हम लत्के साहित्य से । हमारी जिंदगी में विज्ञान और टेक्नोलॉजी के दखल के बढ़ जाने की वजह से यदु सोच भी लगातार बढ़ रही है कि लोक साहित्य बीते युग की धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अवस्थाओं का आकलन-संकलन है और उनसे जुड़ी स्मृतियों का भावुक बयान है जिसकी आज हमारे लिए कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है । हमारे विचार में लोक साहित्य के बारे में यह सही सोच नहीं है ।
लोक साहित्य लोक जीवन और लोक संस्कृति को प्रतिबिम्बित ही नही करता, उन्हें आगे भी ले जाता है । किसी देश या जाति का लोक साहित्य पढ़कर वहां के जीवन और समाज के बारे में, सभ्यता और संस्कृति के बारे में पर्याप्त मात्रा में जाना ही नही जा सकता है, सम्भावित दिशाओं के बारे में भी अनुमान लगाया जा सकता है । इसमें किसी देश या जाति का यथार्थ ही नही, सपने भी समाए रहते हैं । इसीलिए लोक जीवन में अंत: प्रवेश के बिना उच्च कोटि के लोक साहित्य की रचना नही हो सकती । महाभारत में सनत्सुजात ने धृतराष्ट्र से एक सूत्र में लोक जीवन के प्रति ज्ञानी या लोक विधानवेत्ता मुनि के दृष्टिकोण का उल्लेख किया है'
''प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नर: ''
(उद्योगपर्व 43/36, पूना)
जो लोकों का प्रत्यक्ष दर्शन करता है, लोक जीवन में प्रविष्ट होकर स्वयं उसे अपने मानस-चक्षु से देखता है, वही व्यक्ति उसे पूरी तरह समझता-बूझता है।1 लोक जीवन के भीतर से प्रस्फुटित ऐसा लोक साहित्य हर देश और काल में, समय और परिस्थिति में हमारे करीब होता है, हमसे जुड़ता है और मूल्यवान होता है । वह अप्रासंगिक कैसे हो सकता है?
लोक साहित्य आज भी वैसी ही सच्चाई है जैसा हमारा होना और चीजों को महसूस करना । लोक साहित्य नदी की वह धारा है जो हर युग में अपने लिए रास्ता बनाती और दिशा बदलती है, नए मोड़ लेती है और अपने पाटों का विस्तार करती है और कभी सूखती नही । यह बरसाती नदी नही है, अंत: सलिला है । कई बार ऊपर से देखने पर लग सकता है कि यह सूख गई है पर यह सूखती नही, भीतर बहती रहती है । इसके सूखने की कल्पना करना भ्रम का शिकार होना है ।
आइए, अब सारी बात को सीधे-सीधे लोक गाथा-गीत पर केन्द्रित करें । लोक गाथा-गीत अतीत से बेशक जुड़े रहते हैं, पर वे आज से भी जुड़े हुए हैं लोक परम्पराओं और लोक धाराओं के जरिये, जिनसे पूरी तरह कटनेका प्रश्न ही नहीं उठता । वासुदेवशरण अग्रवाल ने ठीक कहा है : ''यह विषय ब्रुद्धि का कौशल नही, यह तो संस्कृति के निमीणात्मक एवं विधायक तत्वों की छानबीन है जिसका जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बंध है ।''2 आज की जीवनगत स्थितियों और समस्याओं की वास्तविक पह्चान पाने के लिए सांस्कृतिक स्रोतों की पहचान होना जरूरी है और इस सत्य से इंकार नही किया जा मकता कि लोक गाथा-गीत इस पहचान पर ही खड़ा है । वे हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों तक ले जाते हैं और इस अर्थ में वे हमारे लिए सारगर्भित परम्परा और मूल्यवान विरासत हैं जिसका निषेध नही किया जा सकता ।
यह सही पै कि लोक गाथा-गीत के संवर्द्धन और विकास में आज अनेक बाधाएं है । रेडियो, टेलीविजन और जन संचार के अन्य माध्यमों ने हमारे विचारों और व्यवहारों में क्रातिकारी परिवर्तन किए हैं और हमारी जीवन पद्धति को बहुत दूर तक प्रभावित किया है । हम यह दावा करने लगे हैं कि 'फैंटेसी' और 'मिथ' से हमारा कोई सम्बंध नही हैं । हम अति उत्साह में यह कहने लगे हैं कि लोक साहित्य और लोक गाथा-गीत मर रहा है । क्या लोक साहित्य और लोक गाथा-गीत का मरना मुमकिन है? क्या यह भी एक तरह की 'फैंटेसी' और 'मिथ' नहीं है जिसे झटककर तोड़ देने का, जिससे मुक्त होने का दावा हम कर रहे हैं? यह माना कि जन संचार के नए माध्यमों-रेडियो, टेलीविजन आदि के सामने पुराने, परम्परागत माध्यम टिक नहीं पा रहे । पर इससे यह मान बैठना कि ये लोक गाथा-गीत के खिलाफ भूमिका अदा कर रहे हैं, उचित न होगा । जब लोक गीत और लोकगाथा-गीत गाव के चौपालों, में लों और त्यौहारों पर भाटों, ढाढ़ियों और मिरासियों के जरिये नही, रेडियों, टेलीविजन और अखबारों के जरिये हम तक पहुचेंगे तो उनका चरित्र और तेवर बदला हुआ होगा ही । वाचिक परम्परा की चीज अपने मूल रूप मैं जो 'ग्रिल' पैदा करती है वह जिंदा पात्रों के सामने होने का, उन में हिस्सेदारी का 'थ्रिल' है जो लोक गाथा-गीतों के मुद्रित रूप में आने से, दृश्य माध्यमों द्वारा प्रक्षेपित होने से अगर खत्म नही हो रहा तो कम तो हो ही रहा है । हमारे विचार मैं आहानेक जन संचार माध्यमों के प्रसार से लोक गाथा- गीतों के संदर्भ में पैदा हुए इस संकट को समझने-पहचानने की जरूरत है न कि उससे आंखें मूंद लेन और कन्नी काट लेने की । जन संचार के आधुनिक माध्यमों को कोसने से बेहतर यह होगा कि इनके जरिये लोक गाथा-गीतों की अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण में जो दिक्कतें आ रही है, जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनकी पहचान में जुटा जाए । असल में एक ओर लोक गाथा-गीतों और नए माध्यमों में ताल में ल बैठाने की जरूरत है, दूसरी ओर परम्परागत लोक माध्यमों की प्राण-शक्ति को बनाए रखते हुए, आधुनिक माध्यमों के साथ उनका समीकरण बैठाने की । उन्हे एक-दूसरे से काटकर नही, एक-दूसरे के समीप (नाकर, एक-दूसरे से जोड़कर, सार्थक संवाद की दिशा में बढ़ा जा सकता है ।
भारतीय संदर्भ में विचार करें तो लोक साहित्य और उसके रूप-लोक गीत और लोक गाथा-गीत की अहम भूमिका और भी स्पष्ट हो जाएगी । भारतीय जाति और जनता के संस्कारों, विचारों और भावनाओं को जितने मौलिक रूप में लोक साहित्य में अभिव्यक्त किया गया है, उतना अन्यत्र मिलना कठिन है । भारतीयता की पह्चान को, एक हद तक, लोक गीतों और लोक गाथा-गीतों में रेखांकित किया जा सकता है । सम्भवतः, इसीलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी कहा है- ''भारतीय जनता का सामान्यस्वरूप पहचानने के लिए पुराने परिचित ग्राम गीतों की योर श्री ध्यान देने को आवश्यकता है, केवल पंडितों द्वारा प्रवर्तित काव्य परम्परा का अनुशीलन अलम नहीं है ।''1 भारतीय जनता किसी एक रंग और ढब में ढली हुई नहीं है । उसके अनेक रग और रूप हैं । एक-एक रंग और रूप की सैकड़ों प्रतिच्छवियां मिलती हैं । प्रत्येक प्रदेश के लोगों का अपना चरित्र हैं, अपनी
सांस्कृतिक पहचान है और उनसे जुड़ा हुआ अपना लोक साहित्य है पर सभ प्रदेशों के लोक साहित्य में बुनियादी लोक तत्व एक ही है और वह है भारतीय लोक तत्व-भारतीय धर्म पुराण, अध्यात्म, दर्शन, मिथक, इतिहास और नीति- शास्त्र का सार तत्व । आप पंजाब के लोक गाथा-गीतों का अध्ययन कर रहे हों या अन्य किसी प्रदेश के लोक गाया-गीतों का, यह बात आपको बरबस घेर लेगी कि लोक गाथा-गीतों के. जरिये एक प्रदेश की अस्मिता को पहचानने के साथ-साथ, लोक-तात्विक दृष्टि से आप उसका अतिक्रमाग भी कर रहे हैं और एक व्यापक भारतीय संदर्भ से जुड़ रहे है ।
पंजाब के लोक गाथा-गीतों का अध्ययन करते हुए, उनकी पहचान के खास पहलुओं को उभारते हुए, उनके विशिष्ट चरित्र को रेखांकित करते हुए, हमें लगातार महसूस-हुआ है कि अन्य प्रदेशों और भारतीय भाषाओं में रचित लोक गाथा-गीतों ले लॉक तात्विक और सांस्कृतिक धरातलों पर उनके रिश्ते का गहराई और बारीकी मैं जायजा लेना अपेक्षित है । यह जायजा तभी लिया जा सकता है जब विभिन्न प्रदेशों और भाषाओं के लोक गाथा-गीत उपलब्ध हों । जहा तक हमारी जानकारी है किसी भी प्रदेश या भाषा के लोक गाथा-गीतों का कोई व्यवस्थित संकलन अभी तक तैयार नहीं हुआ है । पंजाब को ही लें । पंजाब के लोक गीतों के कई संकलन मिल जाएंगे पर लोक गाथा-गीतों का एक भी सकलन नरी मिलेगा । लोक गीतों के संकलनों में लोक गाथा-गीतों को ढालने-खपाने की प्रवृत्ति पंजाब में ही नही मिलेगी, लगभग सभी प्रदेशों में समान रूप से मिलेगी । यह एक सुविधाजनक तरीक है लोक साहित्य के सभी रूपों-विधाओं को एक खाते में अटाने-खपाने का । इससे एक बड़े पैमाने पर सरलीकरण की छूट ली गई है । पंजाब में, और सम्भवत:, अन्य प्रदेशो में भी लोक गीतों और लोक गाथा-गीतों के चद्दर-मोहरे को एक दूसरे में इस तरह गड़बड़ा दिया गया है कि उनकी अलग और स्वतंत्र पहचान कर पाना मुश्किल हो गया है । यही वजह है कि पंजाब के लोक गाथा-गीतों की जांच-पड़ताल करन- वाली एक भी आलोचनात्मक पुस्तक न पंजाबी में मिलती है न हिन्दी में । अगर हम चाहते है कि पंजाब के लोक गाथा-गीतों का एक अच्छा संकलन तैयार हो और उनका आलोचनात्मक अध्ययन हो तो उसके लिए सबसे पहली जरूरत यह होगी कि लोक गाथा-गीतों को लोक साहित्य की एक स्वतंत्र विधा के रूप में पहचाना जाए और उसके आधार पर पंजाब के नोक गाथा-गीतों के संकलन कार्य और आलोचना में जुटा जाए ।
इस पुस्तक में हमारा विनम्र प्रयास लोक गाथा-गीतों को लोक साहित्य की स्वतंत्र इकाई के तौर पर प्रस्तुत करने और इस आधर पर उनका संकलन और विवेचन-मूल्याकन करने का रहा है । पंजाब के लोक गाथा-गीतों का विश्लेषण-मूल्यांकन करते हुए, छोटे आकार के लगभग पन्द्रह लोक गाथा-गीतों को आधार रूप में ग्रहण करते हुए उनका आलोचनात्मक उपयोग किया गया है और लगभग उतने ही अपेक्षाकृत लम्बे लोक गाथा-गीतों को परिशिष्ट में संकलित किया गया है। जिन लोक गाथा-गीतों के एक मैं अधिक पाठ मिलते है, उन्हें पाठांतर सहित दे दिया गया है। इस तरह लोक गाथा-गीतों का जायजा लेने और उनका संकलन करने के दोहरे दायित्व को निबाहने का प्रयास किया गया है ।
इस पुस्तक को लिखने के दौरान कुछ विद्वानों और रचनाकार मित्रों के साथ बराबर विचार-विमर्श चलता रखा । श्री देवेन्द्र सत्यार्थी, डा० वणजारा बेदी और डा० सविंदर सिंह उप्पल ने बहुमूल्य परामर्श देकर और लोक गाथा-गीतों के प्राप्ति स्रोतों की ओर संकेत कर. डा० कीर्ति केसर और श्री शुभ दर्शन ने जाल-ग्रंथ से कुछ सम्बद्ध सामग्री भेजकर और डा० गुरचरण सिंह ने लिप्यतरण में सहयोग देकर, मेरी जो सहायता की है, उसके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूं ।
अनुक्रम
1
लोक संस्कृति से लोक गाथा-गात तक
2
लोक गाथा-गीत : आधार और पहचान
7
3
लोक गाथा-गीत : लोक साहित्य की स्वतंत्र विधा
13
4
लोक गाथा-गीत : उद्भव और प्रकार
18
5
पंजाब के लोक गाथा-गीत और 'धुनों की वारें'
22
6
पंजाब के लोक गाथा-गीत : सामान्य विशेषताएं
28
पंजाब के लोक गाथा-गीत : वस्तु और सरचना
33
8
पंजाब के लोक गाथा-गीत : लोक मन की प्रेम कल्पना
45
9
पंजाब के लोक गाथा-गीत : सामाजिक-सांस्कृतिक सदर्भ
57
10
अधूरे और अपूर्ण लोक गाथा-गीत
70
परिशिष्ट
11
पंजाब के कुछ लोक गाथा-गीत
87
12
संदर्भ ग्रंथ
139
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