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तुलसी-काव्य में लोक-मर्यादा: Folk Dignity in Tulsi Poetry

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Item Code: HAH867
Author: Naresh Kumar
Publisher: Satish Book Depo, Delhi
Language: Hindi
Edition: 2004
ISBN: 8188932191
Pages: 224
Cover: HARDCOVER
Other Details 9x6 inch
Weight 354 gm
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Book Description
पुस्तक परिचय

'लोक-मर्यादा' जीवन का वह व्यावहारिक पक्ष है जिसके अपनाने से परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व में मांगलिक सुख की स्थिति बनती है। मंगल करने और कलिमल हरने वाली रघुनाथ- गाथा के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास ने जीवन के विभिन्न पड़ावों पर लोक मर्यादा के महत्त्व को सशक्त काव्यात्मक रूप प्रदान किया। लोक-मर्यादा की स्थापनार्थ उनकी समस्त रचनाओं में अत्यन्त सजग, कुशल और विवेकशील दृष्टि का परिचय मिलता है। सूक्ष्म से सूक्ष्म घटनाओं और विकट परिस्थितियों में भी तुलसीदास जी मर्यादा तत्त्व की रक्षार्थ विशेष रूप से सचेत दिखाई पड़ते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय संस्कृति-पुरुष और 'लोक- मर्यादा' के सजग प्रहरी-प्रतिष्ठापक महाकवि द्वारा प्रणीत रचनाओं में मनुष्य के आचरण को व्यवस्थित और संतुलित करने वाले महत्त्वपूर्ण तत्त्व 'लोक-मर्यादा' के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पहलुओं का विभिन्न संदर्भों में भिन्न- भिन्न दृष्टिकोणों से शोध एवं विवेचन-विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। तुलसी के काव्य की नितांत नई तथा मौलिक उद्भावनाएँ प्रस्तुत करने वाली यह पुस्तक पूर्व कतिपय निष्कर्षों को बदलने में अवश्य सहायक होगी।

भूमिका

मानवीय मूल्यों या सामाजिक चेतना का संप्रेषण ही साहित्यकार का वास्तविक दायित्व है। अतः मानवतावादी आस्था में विश्वास रखने वाला साहित्यकार मानव की प्रतिष्ठा और मर्यादा को अनाहत और अक्षुण्ण रखकर ही संतुष्ट हो पाता है। इसलिए कोई भी चिन्तन या दर्शन मानव को भूलाकर पूर्ण नहीं हो सकता। साहित्य की जीवंतता एवं उपादेयता जीवन-मूल्यां के प्रतिपादन में है। जिस साहित्य में सामाजिक आस्था, रीति-रिवाज, आदर्श, धर्म एवं संस्कृति, लोकाचार, नीति और लोक मर्यादा आदि मानवतावादी मूल्यों की जितनी अधिक सहज अभिव्यंजना होगी, वह उतना ही उत्कृष्ट कोटि का होगा। इस दृष्टि से विचार करने पर हमें यह जीवनी शक्ति तुलसी-साहित्य में सर्वाधिक रूप में प्राप्त होती है।

त्याग, तपस्या, मर्यादा, सहिष्णुता, आत्म संयम और आत्म सम्मान जैसे उच्च मानव- मूल्यों को समाज में पुनस्र्थापित करने का संकल्प लेकर गोस्वामी तुलसीदास जी का प्रादुर्भाव भारतवासियों के लिए ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के लिए गौरव की बात साबित हुई। तुलसी के समय चहुँदिश अशांति, अमर्यादा और उच्छृंखलता का साम्राज्य विकराल रूप लिए खड़ा था। आस्था और विश्वास स्वार्थ की आँधी में स्वाहा हो चुके थे। राजनीति नीति विहीन हो चुकी थी। धर्म का वास्तविक रूप समाज से लुप्त हो रहा था। भारतीय संस्कृति अपने वास्तविक अर्थ से दूर होती हुई जान पड़ रही थी; उसका आन्तरिक और बाह्य रूप विकृत हो रहा था, पुरातन आदर्श धूमिल होते हुए दिखाई पड़ रहे थे, विचारों में असंतुलन और आचार- व्यवहार में आडम्बर की वृद्धि हो रही थी। लोक द्रष्टा तुलसीदास ने हिन्दू धर्म और संस्कृति को समाज में पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए रारामायण की सांस्कृतिक परम्परा और दशरथ नन्दन पुरुषोत्तम राम के चरित को आधार बनाकर मर्यादित जीवन-दृष्टि का समन्वयवादी लोकरंजन रूप समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। लोक उपासक तुलसीदास जी ने अपनी समस्त रचनाओं में लोकाचार और लोकनीति का निर्धारण एवं धर्म, नीति और दर्शन आदि से संबंधित गंभीर समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया तथा सामाजिक आस्था, भावना, धारणा, विचार और इच्छाओं को उसी के अनुरूप स्थान दिया। उनके समक्ष विविध सामाजिक मूल्यों और नैतिक मानदण्डों के संगठन का प्रश्न था। उनकी समन्वयवादी दृष्टि विघटित और विश्रृंखलित को समन्वित करने वाली थी। अतः तुलसी ने अपनी रचनाओं में जो भी अभिव्यक्त किया, वह लोक-कल्याण की दृष्टि से देश-काल की सीमा का अतिक्रमण कर शाश्वतता को प्राप्त कर सका।

भौतिकता के प्रति अत्यधिक आग्रह और पाश्चात्यवादी मनोवृत्ति से प्रभावित मनुष्यों को भारतीय परंपरित सामाजिक मानव-मूल्य आज के युग में भले ही अर्थहीन लगते हों, किंतु अपने रूप में उनका एक अर्थ था, एक प्रयोजन था, एक आशय था। तुलसी की यह दृढ़ धारणा है कि वैष्णवीकरण की प्रक्रिया द्वारा उस अर्थ, प्रयोजन और आशय को पुनः जीवंत बनाया जा सकता है; विघटित मूल्यों की पुनर्स्थापना की जा सकती है। तुलसी का लोकमंगल वस्तुतः नैतिक एवं धार्मिक उपयोगिता है, जो आध्यात्मिकता को स्पर्श करता हुआ लोक-कल्याण के लिए प्रवृत्त होता है। उनके अराध्य राम का चरित सर्वथा मर्यादित है और इसी कारण तुलसीदास जी मर्यादावादी कवि कहलाते हैं।

प्रस्तावना

भारतीय विशाल वाड्.मय तथा भारतीय समाज और संस्कृति का एकनिष्ठ निदर्शन याँदे करना हो तो संत तुलसीदास के काव्य में सहज ही किया जा सकता है। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में व्यक्त जीवन तथा मानव मूल्यों का, अनुशासन तथा मर्यादाओं का यदि गहन परिचय प्राप्त करना हो तो केवल तुलसी के समस्त काव्य का अध्ययन कर लेना ही पर्याप्त होगा। भक्त कवि तुलसीदास आत्मचेतना से प्रेरित होकर श्रुति, स्मृति तथा पुराणादि अनेक भारतीय संस्कृति के अख्याता एवं प्रतिष्ठापक ग्रंथों का आधार ग्रहण करते हैं और इसे सगर्व स्वीकारते भी हैं। तुलसी युग दृष्टा थे और इसलिए उन्होंने युग सापेक्ष स्थितियों-परिस्थितियों के आलोक में ही रामकथा के अनेक प्रेरक प्रसंगों को चुनकर जन सामान्य की भाषा अर्थात लोकभाषा में प्रतिपादित किया है। तभी तो तुलसी कहते भी हैं -

राम अनंत अनंत गुन अमित कथा विस्तार।

सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह के बिमल बिचार।।

तुलसी मर्यादा के प्रहरी प्रतिष्ठापक हैं। लोक-मर्यादा के उन्होंने अनेक आदर्श स्तम्भ स्थापित किए हैं। तप को वे जीवन-विकास का मूल आधार मानते हैं। इसी से उनकी दृष्टि में जीवन सुचारु रूप से चल सकता है। तुलसी सभी वर्गों, समुदायों और श्रेणियों के विभिन्न स्तरों के पात्रों के अपेक्षित दायित्व की पुनः पुनः प्रतिष्ठा करते चलते हैं। कर्तव्यनिष्ठा के अभाव में वे किसी भी प्राणी को मर्यादा का उल्लंघन करने वाला मानकर उसे दण्डित दिखाते हैं। ऐसे उदंड को तुलसी जीवित भी नहीं देखना चाहते। उन्हें अपने प्राण खोने ही पड़ते हैं। ताड़का, बालि, कुम्भकरण, सुभाहु तथा रावण आदि के साथ ऐसा ही होता है।

किसी भो सभ्य-शिष्ट और सुसंस्कृत समाज में वहाँ के नागरिकों को यह बोध होना ही चाहिए कि क्या करें? और क्या न करें? कर्तव्याकर्तव्य का यह ज्ञान और बोध अनुशासित तथा सुव्यवस्थित समाज के लिए अनिवार्य है। तुलसी ने अपने समस्त साहित्य के द्वारा इस सर्वश्रेष्ठ मर्यादा मूल्य की प्रतिष्ठा की है। अतीत की अनेक गौरवपूर्ण घटनाओं, पुराकथाओं एवं आख्यानों के माध्यम से तुलसी जन-जन के हृदय तक अपना मंतव्य सहज ही पहुँचा देते हैं। तुलसी के समस्त रचना-संसार का वस्तु-विधान भी पर्याप्त व्यापक एवं विस्तृत है। मूलतः तुलसीदास अतीत के सुदृढ़ आधार पर वर्तमान की अनेक समस्याओं, शंकाओं और यहाँ तक कि समस्त जिज्ञासाओं का समाधान प्रस्तुत करते हुए एक उज्ज्वल एवं सुखद भविष्य के निर्माण की राह भी प्रशस्त करते हैं। यही महान साहित्यकार का कार्य भी होता है।

दो शब्द

गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी के महत्तम रचनाकार हैं। महाकवि होने के साथ-साथ वे संत हैं; लोक से जुड़े रहकर भी लोक से ऊपर हैं। लोक-मंगल ही उनके जीवन का, रचना-कर्म का उद्देश्य है। जन-जीवन में सुख-शांति व्याप्त रहे, यही उनका इष्ट है। उस सिद्धि के लिए उन्होंने बहुत व्यापक फलक पर जीवन जगत् का चित्रण किया है, जीवन की विभिन्न दशाओं में पात्रों की व्यक्तिगत चारित्रिक विशेषताओं का हृदयस्पर्शी उद्घाटन किया है, समुदाय विशेष को प्रवृत्तियों का स्थान-स्थान पर मनोहारी चित्रांकन किया है। उनके काव्यों में नर, वानर, राक्षस; स्त्री-पुरुषः बालक युवक वृद्धः राजा-प्रजा आदि समाज के सभी वर्गों की स्वाभाविक विशेषताओं का मनोहारी वर्णन है। तुलसीदास द्वारा अंकित सामाजिक जीवन में मर्यादा का विशेष स्थान है। मर्यादा का तात्पर्य है नैतिक व्यवस्था, शिष्टाचार का नियम, सदाचरण का औचित्य। समाज ने धर्म और अधर्म, नीति और अनीति, सदाचार और कदाचार, शिष्टता और अशिष्टता, उचित और अनुचित, श्लील और अश्लील आदि के संबंध में कुछ निश्चित मान्तयाएँ स्थापित कर रखी हैं। तत्संबंधी औचित्य पर आश्रित व्यवस्था मर्यादा है। तुलसी ने उस मर्यादा को धर्म से जोड़कर व्यापक आधार पर प्रस्तुत किया है। विशेष रूप से उनका आकर ग्रंथ 'रामचरितमानस' धर्मप्राण ग्रंथ है। उसके पात्रों दशरथ, राम, सीता, जनक, लक्षमण, कौशल्या, सुमित्रा, भरत, जटायु आदि ने धर्मपालन के लिए दुस्सह क्लेश सहे हैं। लोक-संग्राहक धर्म की प्रतिष्ठा और मर्यादा-निर्वाह का आदर्श प्रस्तुत करना भी 'मानस' का एक प्रधान लक्ष्य है। अतः उसके नायक राम पुरुषोत्तम हैं। तुलसी की दृष्टि में मर्यादा लोक-जीवन की धुरी है।

तुलसी मानव जीवन के व्यापक और उच्चतम मूल्यों को लेकर सर्जन पथ पर बढ़े हैं। यही कारण है कि उन पर शताधिक शोध-ग्रंथ लिखे जा चुके हैं। अनुसंधित्सुओं ने अपनी- अपनी अपेक्षा और समझ के अनुसार तत्त्व-दर्शन किया है। डॉ० नरेश कुमार द्वारा प्रस्तुत शोध-प्रबंध 'तुलसी-काव्य में लोक मर्यादा' तुलसी-विषयक अध्ययन में कड़ी है। शोधार्थी ने बड़ी निष्ठा के साथ तुलसी की मर्यादावादी दृष्टि के स्वरूप का विवेचन किया है। उसने राम-कथा के मुख्य पात्रों, संवादों, सौंदर्य-चित्रण के स्थलों के मर्म का उद्घाटन करते हुए यह लक्षित किया है कि तुलसी के काव्य में लोक मर्यादा का भाव शरीर में प्रवाहित रक्त के समान संचरित है। डॉ नरेश कुमार द्वारा किया गया शोध कार्य सराहनीय है। आशा है कि वे आगे भी अनुसंधान पथ पर अग्रसर रहेंगे। मैं इनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।

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