भूमिका
मनुष्यों की आरोग्यता के निमित्त वैद्यकशास्त्र की बहुत ही आवश्यकता होती है, कारण कि, द्रव्यों के गुण दोष जानकर उनका व्यवहार करने से शरीर में सहसा रोगों का सञ्चार नहीं होता है, खानपान के यावत्पदार्थ हैं सभी में गुण दोष विद्यमान हैं, इस कारण जो उनको जानकर भोजनादि मे प्रवृत्त होता है। वह सुखपाता है, वैद्यकशास्त्र तीन मार्गों में विभक्त है, निघण्ट, निदान, और चिकित्सा निघण्ट में द्रव्यों के गुण दोष, निदान में रोगों के लक्षण और चिकित्सा में रोगों का निवारण औषधियों द्वारा वर्णन किया है, यद्यपि तीनों भाग बड़े ही उपकारी हैं परंतु इनमें पहला ''द्रव्यगुण'' सबके उपयोगी और वैद्यकशास्त्र में प्रवेश होने का द्वार है। प्रथम औषधी आदि के गुण दोष जानकर फिर निदान से रोग निश्चय कर उसकी दूर करनेवाली औषधी प्रदान की जाती है। इस कारण सबसे प्रथम निघण्ट का अनुशीलन करना उचित है और केवल वैद्यों ही को नहीं गृहस्थ मात्र को निघण्ट का जानना उचित है, जिसे जानकर अहितकारक वस्तुओं का सेवन न करके रोग से बचकर पूर्ण आयु भोग सकता है।
प्रथम ही जब वैद्यकशास्त्र की प्रवृत्ति हुई थी, तब इस भारतवर्ष में महात्मा ऋषियों ने वेदानुसार अनेक ग्रन्थ निर्माण कर इस देश को उन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया था, कालक्रम से जब अनय तत्पर यवनों ने इस देश को आक्रमण किया तब सहस्रों ग्रथ संस्कृत के अग्रि में जला दिये गये, तब इग्लैण्डीय पुरुषों ने उनको पराजित कर यह भारत भूमि कुछ स्वस्थ की और बहुत खोजकर प्राचीन ग्रन्थों का उद्धार किया और पश्चात् इस देशनिवासियों ने भी अनेक यत्र स्थापित कर प्राचीन ग्रन्थों को खोजकर पुनरुद्धार करना निलय किया है और बहुत खोजकर विविध विषयक ग्रंथ प्रकाशित किये जाते हैं।
परंतु सहस्रों वैद्यकशास्त्रों के ग्रन्थों में अभी तक सैकड़ों ग्रंथ भी प्रकाशित नही हुए हैं, इस कारण देशभाषा के सहित सर्वसाधरण के उपकार के निमित्त वैद्यक के ग्रन्थ प्रकाशित होने की बहुत ही आवश्यकता है कारण कि, सर्व साधारण को संस्कृत का ज्ञान न होने से शास्त्रों का मर्म समझ में नही आता, इस कारण भाषान्तरकर उनको शास्त्रों का आशय समझना बहुत उचित है, जिससे वे अपने पूर्वजों के परिश्रम को देखकर लाभ उठावें।
यही विचार कर हमने वैद्यवर महामहोपाध्याय श्रीमच्चक्रपाणिदत्तविरचित ''द्रव्य गुण'' का हिन्दीटीकाकर वैश्यवंशावतंस गुणग्राहक ''श्रीवेंकटेश्वर'' यन्त्राधि- पति श्रीयुतसेठखेमराज श्रीकृष्णदासजी महाशय को सब प्रकार के स्वत्वसहित समर्पण कर दिया है। यद्यपि यह टीका सर्वसाधारण के उपकार के निमित्त ही प्रकाशित किया है परंतु भाषाद्वेषी जो कि भाषा को "मूर्खमनोरजनी'' कहकर भी अपने यावत्कार्य भाषा में ही निर्वाह करते हैं वे महाशय कदाचित् इससे संतुष्ट न होंगे कारण कि ऐसे ही महात्माओं के वसनो में बँधी हुई संस्कृत की अनेक पुस्तकें उपजिहकाओं का आहार हो गई । शेष में पाठक महाशयों मे प्रार्थना है कि, आप यदि इसमें कोई भूल चूक पावें तो अपनी उदारता से क्षमाकर हंस के समान गुणग्राहि हों यह ग्रन्थ आपके उपकार के निमित्त ही प्रकाशित किया गया है।
विषय सूची
1
धान्यवर्ग:
1-9
2
मांसवर्ग:
10-20
3
शाकवर्ग:
20-30
4
अथलवणादिवर्ग:
30-34
5
फलवर्ग:
34-42
6
वारिवर्ग:
42-47
7
श्रीरवर्ग:
48-55
8
तैलवर्ग:
56-57
9
ऐक्ष्वादिवर्ग:
57-60
10
मद्यावर्ग:
61-65
11
कृतान्नवर्ग:
67-75
12
भक्षवर्ग:
76-79
13
आहारविधि:
79-85
14
अधुपानविधि:
86-89
15
गुणकर्गविधि
90-96
16
दूसरे ग्रन्थों से ग्रह की औषधी
17
अष्टवर्ग
99-106
18
इति वनौषधिवर्ग: सम्पूर्ण
19
इतिद्रव्यगुणानुक्रमणिका समाप्ता
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