दिव्या: Divya by Yashpal

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Item Code: NZA891
Author: Yashpal
Publisher: Lokbharti Prakashan
Language: Hindi
Edition: 2012
ISBN: 9788180314988
Pages: 158
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 180 gm
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Book Description

लेखक के विषय में

मार्क्सवादी चिन्तक और वैचारिक प्रतिबद्धता को बुद्धि का सर्वश्रेष्ठ अनुशासन माननेवाले कथाकार यशपाल के सरोकारों में भारतीय सामाजिक संरचना में स्त्री की यातना और व्यक्तित्व का प्रश्न हमेशा प्रमुख रहा है।

'दिव्या' (1945) में यशपाल ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में स्त्री की पीड़ा के सामाजिक कारणों की तलाश करते हैं। उनका मानना है कि 'इतिहास विश्वा की नहीं विश्लेषण की वस्तु है।... अतीत में अपनी रचनात्मक सामार्थ्य और परिस्थियों के सुलझाव और रचना के लिए निर्देश पाती हैं।' दिव्या में लेखक सागल के गणसमाज को केन्द्र में रखकर पृथुसेन, मारिश और दिव्या के माध्यम से तत्कालीन सामाजिक अन्तर्विरोधों की गहन पड़ताल करता है। न तो वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित सामान्ती समाज ही स्त्री को सम्मान और सुरक्षा दे सकता है और बौद्ध धर्म जो स्त्री के स्वतन्त्र व्यक्तित्व को ही शंका की निगाह से देखता है।

अपनी प्रदत्त्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में दिव्या सामाजिक संरचना के मूल अन्तर्विरोधों को रेखांकित करते हुए अपनी तेजस्विता से परिवर्तन के लिए निर्णायक संघर्ष भी करती है। अपनी सन्तुलित सोच के साथ वह हमारे समकालीन नारी-विमर्श के लिहाज से भी एक विचारणीय प्रस्ताव लेकर आती है।

यशपाल: (1903-1976)

जन्म: फिरोजपुर छावनी, पंजाब में ।

शिक्षा: प्रारम्भिक शिक्षा गुरुकुल काँगड़ी, डी. . वी. स्कूल, लाहौर और फिर मनोहर लाल हाई स्कूल में हुई वहीं से सन् 1921 में प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए ।

गतिविधियाँ : प्रारम्भिक जीवन रोमांचक कथाओं के नायकों सा है । भगत सिंह, सुखदेव, बोहरा और आजाद के साथ मिलकर क्रान्तिकारी कार्यो में खुलकर भाग लिया। सन् 1931 में 'हिदुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र सेना' के सेनापति आजाद के मारे जाने पर सेनापति नियुक्त।1932 में पुलिस के साथ एक मुठभेड़ में इलाहाबाद में गिरफ्तार । 1938 में जेल से छूटे । तब से अंतिम दिन तक लेखन कार्य में संलग्न रहे ।

मृत्यु: 26 दिसम्बर, 1976

आवरण: गोगी सरोज पाल

1945 में निओली (.प्र.) में जन्मी गोगी सरोज पाल की शिक्षा बनस्थली कॉलेज ऑफ आर्ट, लखनऊ तथा कॉलेज ऑफ आर्ट, नई दिल्ली में हुई। कलाकार के रूप में अपनी रचनात्मकता की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए आपने हर सम्भव माध्यम में काम किया और अपनी पहचान छोड़ी है। अभी तक आप पेंटिंग, शिल्प, ग्राफिक, प्रिंट, सेरामिक्स, इंस्टालेशन, बुनाई, फोटोग्राफी और कम्प्यूटर के अलावा लेखन के क्षेत्र में भी काम कर चुकी हैं।

1945 से अभी तक आपकी 41 एकल प्रदर्शनियां आयोजित हो चुकी हैं । इसके अलावा या विदेशों में तथा भारत में आयोजित 150 प्रदर्शनियों में आपका काम शामिल रहा है । भारत, जर्मनी, इंग्लैंड और अमेरिका में इंस्टालेशन के माध्यम से सराहनीय कार्य ।

सम्मान : क्लीवलैंड ड्राईग बिनाले (यू.के.); ललित कला अकादमी, नई दिल्ली: अल्जीयर्स में इंटरनेशनल बिनाले ऑफ प्लास्टिक आर्ट्स के सम्मानों के अलावा संस्कृति अवार्ड ।

प्राक्कथन

'दिव्या' इतिहास नहीं, ऐतिहासिक कल्पना मात्र है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर व्यक्ति ओर समाज की प्रवृत्ति और गति का चित्र है लेखक ने कला के अनुराग से काल्पनिक चित्र में ऐतिहासिक वातावरण के आधार पर यथार्थ का रंग देने का प्रयत्न किया है। चित्र में त्रुटि रह जाना सम्भव है। उस समय का हमारा इतिहास यथेष्ट प्राप्य नहीं। जो प्राप्य है, उस पर लेखक का विशेष अधिकार नहीं। अपनी यह न्यूनता जान कर भी लेखक ने कल्पना का आधार उसी समय को बनाया, कारण है-उस समय के चित्रमय ऐतिहासिक काल के प्रति लेखक का मोह। सूक्ष्मदर्शी पाठक के प्रति इनसे अन्याय हो सकता है। असंगति देख कर उन्हें विरक्ति हो सकती है।

अपने अतीत का मनन और कथन हम भविष्य के लिये संकेत पाने के प्रयोजन से करते हैं। वर्तमान में अपने आपको असमर्थ पाकर भी हम अपने अतीत में अपनी क्षमता का परिचय पाते हैं। इतिहास घटनाओं के रूप में अपनी पुनरावृत्ति नहीं करता परिवर्तन का सत्य ही इतिहास का तत्त्व है परन्तु परिवर्तन की श्रृंखला में अपने अस्तित्व की रक्षा ओर विकास के लिये व्यक्ति ओर समाज का प्रयत्न निरन्तर विद्यमान रहा है यही सब परिवर्तनो की मूल प्रेरक शक्ति है।

इतिहास का तत्व विभिन्न परिस्थितियो में व्यक्ति और समाज की रचनात्मक क्षमता का विश्लेषण करता है। मनुष्य केवल परिस्थितियो को सुलझाता ही नहीं, वह परिस्थितियो का निर्माण भी करता, है। यह प्राकृतिक ओर भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन करता है, सामाजिक परिस्थितियों का वह सृष्टा है।

इतिहास विश्वास की नही, विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनुष्य का अपनी परम्परा में आत्म-विश्लेषण है। जेसे नदी में प्रतिक्षण नवीन जल बहने पर भी नदी का अस्तित्व और उसका नाम नहीं बदलता वैसे ही किसी जाति में जन्म-मरण की निरन्तर क्रिया और व्यवहार के परिवर्तन से वह जाति नहीं बदल जाती। अतीत में अपनी रचनात्मक सामर्ध्य ओर परिस्थितियो के सुलझाव के अपने प्रयत्नों के परिचय से जाति वर्तमान और भविष्य के सुलझाव और रचना के लिये निर्देश पाती है।

इतिहास के कथन से प्राप्त अनुभव के अनेक प्रयत्नो में सबसे प्रकाशमान तथ्य है- मनुष्य भोक्ता नही, कर्ता है सपूर्ण माया मनुष्य की ही क्रीड़ा है इसी सत्य को अनुभव कर हमारे विचारकों ने कहा था-

'' मानुषात् श्रेष्ठतर हि किचित्।''

मनुष्य से बड़ा है-केवल उसका अपना विश्वास ओर स्वय उसका ही रचा हुआ विधान अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है ओर स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है। इसी सत्य को अपने चित्रमय अतीत की भूमि पर कल्पना में देखने का प्रयत्न 'दिव्या' है।

अपने ऐतिहासिक ज्ञान की न्यूनता को स्वीकार करता हूँ । यदि लखनऊ म्यूजियम के अध्यक्ष श्री वासुदेवशरण अग्रवाल, पी० एच० डी० और बम्बई प्रिंस-आफ-वेल्स चूजियम, पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष श्री मोतीचन्द, पी० एच० डी० तथा श्री भगवतशरण उपाध्याय का उदार सहयोग मुझे प्राप्त न होता तो पुस्तक सम्भवत: असह्य रूप से त्रुटिपूर्ण होती । लखनऊ बौद्ध-बिहार के वयोवृद्ध महास्थविर भदन्त बोधानन्द के प्रति भी मैं कृतज्ञ हूँ । उनकी कृपा से बौद्ध परिपाटी के विषय में जानने की सुविधा हुई।

बौद्धकालीन वेश-भूषा और वातावरण को हृदयंगम करने में विशेष सहायता अजन्ता और एलोरा की यात्रा से मिली। अजन्ता और एलोरा के कलाकारों के प्रति कलाप्रेमी संसार सदा आभारी रहेगा, परन्तु इस कला के दर्शन के लिए मैं अपने मित्र और चिकित्सक डाक्टर प्रेमलाल शाह का कृतज्ञ हूँ । बहुत समय से यह पुस्तक लिखने के लिये इस यात्रा का विचार था परन्तु कठिन समय में असुविधाओं के विचार से शैथिल्य और निरुत्साह रहा । डाक्टर ने घसीट कर कर्तव्य पूरा कराया । इसी से यह काल्पनिक चित्र पुस्तक का रूप ले पाया है ।

सबसे अधिक आभारी हूँ मैं अपनी प्रेरणा के स्रोत अपने पाठकों का जिनके बिना कला की साधना सम्भव नहीं ।

19 मई, 1945 यशपाल

 

अनुक्रम

1

मधुपर्व

5

2

धर्मस्थ का प्रासाद

13

3

प्रेस्थ

28

4

आचार्य प्रवर्धन

45

5

आत्मसमर्पण

51

6

विकट वास्तव

58

7

तात धर्मस्थ

80

8

दारा

83

9

अंशुमाला

98

10

सागल

125

11

पृथुसेन और रुद्रधीर

135

12

मल्लिका

149

13

दिव्या

153

 

 

 

 

 

 

 

 

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