कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर एक ठाम 'घर' आ 'पथ'- एहि दू शब्दक चर्चा करैत कहने छघि जे घरक माने धिक 'पयेछि' अर्थात जे क्यो घरमे रहय चाहैत छथि, हुनक मनोभाव एहन रहैत छनि जेना हुनका सभकिछु भेटि गेल होनि, हमरा सभ किछु छनि 'भेटि गेल' अछि। जखन कि 'पथ'क अर्थ थिक 'पाइनि' माने 'नहि भेटल', अर्थात जे क्यो बाट पर बहरा जाइत छनि हुनक मनोभाव एहन होइत छनि जेना बहुत किछु छनि एहन अछि, जे एखन नहि भेटल छनि। रवीन्द्रनाथ कहैत छथि जे ने तँ एकसरे 'घर' सँ काज चलैत अछि आ ने एकसरे 'पथ' सँ। प्रत्येक मनुक्खमे थोड़ेक 'घर' होइत अछि, थोड़ेक 'पथ' होइत अछि।
हमरामे भरिसक पथक मात्रा बेसी अछि, जे हमरा बारम्बार घरसँ पथ पर लड अनैत अछि। घरमे रहैत बेर-बेर यैह अनुभव होइत रहैत अछि- 'हेथा नय, हेथा नय, अन्य कोथा, अन्य कोनो खाने।' माने एतय नहि, एतय नहि-कतहु आ सुदूर कतहु आर-ई सोच हमरा अपन गाम घर नगर सँ देश आ दुनियाक अनेक गाम नगरमे लऽ गेल अछि।
घरसँ पथ पर अबिते हमर चेतना उन्मुक्त भऽ जाइत अछि। केहन-केहन आ कतेक अनुभव ! अनगिनत व्यक्तिक परिचय, कतेक नगर, नद आ नदीसँ संवाद ! कतेक उगैत प्रभात, डुवैत आ एकाकी साँझसँ परिचय ! कखनो प्राकृतिक सौन्दर्य दर्शनक परम आनंद, कखनो असुविधा आ अनिश्चितताक थकान मुदा बाट पर चलैत हम प्रत्येक क्षण 'नव' भेल जाइत छी-एकर अनुभव होइत रहल अछि आ तें कवि उमाशंकर जोशीक शब्दमे भ्रमण एक प्रकारक अन्तर्यात्रा सेहो थिक। अमुक कालखंडमे, अमुक भू-भागमे हमर देह घूमिकें आबि जाय, तकर नाम भ्रमण अथवा प्रवास मात्र नहि यिक। ओ व्यक्ति जीवनक, समाज जीवनक, राष्ट्रजीवनक आन्तरिक यात्रा सेहो थिक। एहि अर्थमे प्रवासी अपन घरसँ भागय बला पड़ौआ देखाइतो ओकर प्रयास अपन लक्ष्य पर पहुँचब होइत अछि।
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