पुस्तक के विषय में
संत-कवि दादू दयाल (1544-1603 ई.) की वाणियॉ लोक-चेतना का जीवंत अग रही है । उनकी रचनाओं ने तत्कालीन एवं परवर्ता भारतीय साधना पद्धति को भी प्रभावित किया है । दादू ने 'ब्रह्म सम्प्रदाय' या दादू पंथ की भी स्थापना की थी ।
दादू दयाल के जीवन के बारे में प्रामाणिक तथ्यों का अभाव है । यही तक कि उनकी समग्र वाणियों का संकलन भी नहीं हो पाया है । उनकी 'परची' या आतम साखी से उनके जीवन के कतिपय प्रसगों की जानकारी जरूर मिल जाती है । दादू दयाल की समन्वयात्मक साधना-प्रणाली और चिन्तन-धारा ने बृहत्तर समाज को अपनी ओर सहज ही आकर्षित किया था । सर्वोच्च सत्ता के प्रति आस्था, लोक-निष्ठा और आत्मसमर्पण की चेतना उनकी रचनाओं में सर्वत्र प्रवाहित है । आचार्य क्षितिमोहन सेन ने अपने ग्रंथ दादू (1938) तथा आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने 'दादू दयाल ग्रंथावली' (1966 ई.) द्वारा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का समुचित विवेचन एवं मूल्यांकन किया है ।
दादू की रचनाएँ अपने आशय में सहज, सरल और सार्वजनीन हैं । जीव और माया, अव्यक्त और अविनश्वर के प्रति उत्कट अनुराग तथा उच्च नैतिक जीवन की सार्थकता आदि अनेक विषयों पर विचार करते हुए उन्होंने व्यक्ति के सामाजिक आचरण का आकलन किया है ।
प्रस्तुत विनिबंध में संत दादू दयाल के आध्यात्मिक एवं सास्कृतिक योगदान को नए ऐतिहासिक सदर्भों में रखते हुए युवा-समीक्षक डॉ. रामबक्ष ने उनकी व्यापक दृष्टि को भी रेखांकित किया है।
विषय-सूची
1
जीवन-परिचय
9
2
दादू - वाणी संग्रह
20
3
युगीन परिवेश
24
4
माया
35
5
राम का रूप
47
6
संत पुरुष
61
7
उपसंहार
66
परिशिष्ट
(क) दादू दयाल की रचनाओं का वर्गीकरण
69
(ख) दादू की चुनी हुई रचनाएँ
72
(ग) संदर्भ
80
Hindu (हिंदू धर्म) (12711)
Tantra ( तन्त्र ) (1023)
Vedas ( वेद ) (708)
Ayurveda (आयुर्वेद) (1906)
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