पुस्तक के विषय में
प्रस्तुत पुस्तक संस्कृति, कला, शिक्षा, गायन, वाद्य संगीत, शास्त्रीय संगीत की महान परंपरा, नृत्य, लोकनृत्य संतगायक, भारतीय स्मारक को समझने के लिए एक आवश्यक ग्रंथ है जिसे आत्मीय शैली में विद्वान लेखक श्री सुदर्शन कुमार कपूर ने सामान्य पर्यटक की भांति समूचे देश में भ्रमण किया, बारीकी से अपनी परंपरा, ऐतिहासिकता को महसूस किया और सुपरिचित शैली में पाठकों के लिए गहन अध्ययन के बाद तैयार किया है ।
81 वर्षीय शिक्षाविद् । शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक व विस्तृत अनुभव । स्नातक तथा स्नातकोत्तर स्तर की सांखिकी, प्रबंधन तथा अर्थशास्त्र पर अंग्रेजी और हिंदी में एक दर्जन से अधिर मानक पाठ्य पुस्तकें एवं परिभाषा कोश प्रकाशित । एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित अर्थशास्त्र की पाठ्य पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद ।
इस पुस्तक के अतिरिक्त, 'बिहारी सतसई' का अंग्रेजी अनुवाद, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार द्वारा प्रकाशनाधीन ।
फिलहाल अनेक महत्त्वपूर्ण पारियोनाओं को साकार करने में श्री सुदर्शन कुमार कपूर अभी भी सक्रिय ।
प्रस्तावना
हम भारतीयों के लिए बड़े गर्व की बात है कि हमें एक महान और गौरवशाली साहित्यिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत प्राप्त हुई है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के अनुसार 'हमारी चिंतन धारा का पुंज इस दिशा में हमारे महान ऋषियों और विद्वानों की अदभुत प्रज्ञा तथा कल्पनाशीलता के सर्वोच्च प्रयासों का परिणाम है और यही कारण है कि भारत समस्त सभ्य विश्व में प्रसिद्ध है ।'' परंतु यह बड़े खेद की बात है कि हमारे विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के युवक और युवतियां इस धरोहर के बारे में बहुत कम जानते हैं । संभवत: हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था उनको इस अमूल्य और चिरस्थायी कोष के विद्यमान समृद्ध भंडार को जानने और खोजने का पर्याप्त अवसर प्रदान नहीं करती ।
सौभाग्य से, 1948-1952 की अवधि में, मैं जब डी.ए.वी. कालेज, जालन्धर का विद्यार्थी था, तब जागकर में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले 'हरि वल्लभ संगीत सम्मेलन' में मुझे पिछली पीढ़ी के कुछ एक महान गायकों, संगीतज्ञों और वादकों जैसे स्वर्गीय कृष्ण राव शंकर पंडित, ओंकार नाथ ठाकुर, विनायकराव पटवर्धन, नारायण राव व्यास, सुरेश माणे, सोहन सिंह आदि के गायन को सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ और फिर हाल में ही वर्ष 2000-2008 की अवधि में मैंने एक सामान्य पर्यटक के रुप में देश के बहुत से प्रदेशों में अनेक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थलों को देखा है। कुछ प्रदेशों जैसे-केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश आदि में दो-तीन बार गया हूं और वहां के भव्य व विशाल मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों, गुरुद्वारों और महलों में स्थित सुन्दर और कलात्मक कलाकृतियों और मूर्तियों को देखकर अचंभित और रोमांचित हुआ हूं।
परंतु यहां मैं इस संदर्भ में अपने एक अनुभव का उल्लेख अवश्य करना चाहूंगा । कोचीन (केरल) में तीन थियेटरों में प्रतिदिन सायं कथाकली नृत्य के शो होते हैं । में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग थियेटरों में शो देखने गया हूं । मैंने पाया कि इन थियेटरों में भारतीय दर्शकों की संख्या कभी भी 5 व 6 से अधिक नहीं हुई जबकि हर बार 40-50 विदेशी पर्यटकों ने वह नृत्य देखा और शो के, बड़ी संख्या में फोटो चित्र लिए । यह तथ्य राजगोपालाचारी के उपरोक्त कथन की पुष्टि करता है और अपनी संस्कृति के प्रति हमारी उदासीनता, अरुचि तथा उपेक्षा को दर्शाता है ।
भारतीय संस्कृति हमारे चिंतन, मनन, ध्यान आदि की साकार अभिव्यक्ति है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सर्वोच्च चिंतन-मनन के मूर्त रुप (अर्थात मंदिर, मूर्ति, चित्रकला, कविता, नाटक, संगीत, धर्म, शिष्टाचार) को संस्कृति मानते हैं । इस संदर्भ में आचार्य जी के मानदंड बहुत ऊंचे हैं । उनके अनुसार साहित्य, संगीत, नृत्य तथा अन्य ललित कलाओं में जो सर्वोत्तम है, वह संस्कृति है । प्रस्तुत पुस्तक पाठकों को भारतीय संस्कृति में ललित कलाओं के इन सर्वोत्तम पक्षों से परिचित कराने की दिशा में एक प्रयास है ।
यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कौन-सा संगीत, नृत्य या मूर्ति अच्छी या उत्तम है । मोटे रुप में, यहां यह कहा जा सकता है कि वही संगीत उत्तम है, जो कर्ण प्रिय होने के साथ-साथ श्रोता के हृदय की गहराइयों को छू जाए, जो सुनने वाले के मन को आह्लादित कर दे और जिससे गायक तथा श्रोता दोनों को दैवीय आनन्द की प्राप्ति हो । वे दोनों और पूरा वातावरण एकात्म हो जाए । यही बात नृत्य और अन्य ललित कलाओं पर लागू होती है ।
पुस्तक में अनेक चित्र दिए गए हैं जो इस पुस्तक का अभिन्न अंग हैं और मूलपाठ के पूरक हैं। कलाकृतियों (अर्थात मूर्तियों, मंदिरों और भवनों) के चित्रों को ध्यान व बारीकी से देखने की जरुरत होती है, तभी आनन्द की प्राप्ति हो सकती है । प्रसिद्ध संगीतज्ञ और कलाकार हमारे प्रेरणा स्रोत हैं । उन्हें यह महानता व प्रसिद्धि यूं ही नहीं मिली बल्कि वर्षों तक अपने गुरुओं की सेवा-शुश्रूषा, अनन्य परिश्रम, निरंतर घंटों तक रियाज़, कड़े अनुशासन, कला के तत्त्व ज्ञान, कला की अथक साधना और तपस्या से प्राप्त हुई है ।
आजकल के हाईटेक युग में इन महान कलाकारों के -संगीत तथा कलाकृतियों को श्रव्य-दृश्य यंत्रों (जैसे आडियों कैसेट, सी. डी., वीडियो आदि) की सहायता से सुगमता से सुना व देखा जा सकता है । समस्या केवल ललित कलाओं के सर्वोत्तम नमूनों व कलाकृतियों के चयन की है ।
इस पुस्तक की रचना में मैंने अनेक सुधी जनों, विद्वानों व शिक्षाविदों का सहयोग प्राप्त किया है तथा ललित कला पर अनेक पुस्तकों व लेखों से लाभान्वित हुआ हूं । मैं उनके प्रति अति आभारी हूं । मेरे सुपुत्र मन मोहन कपूर ने इस पुस्तक के लिए सभी चित्रों की व्यवस्था की । वह भी धन्यवाद के पात्र हैं ।
मैं ट्रस्ट के विशेषज्ञ का विशेष रुप में कृतज्ञ हूं जिन्होंने इस पुस्तक की मूल पांडुलिपि की समीक्षा की तथा उसमें संशोधन हेतु स्पष्ट टिप्पणियों, रचनात्मक समालोचना तथा बहुमूल्य सुझावों से मुझे अनुगृहीत किया ।
अंत में, मैं नेशनल बुक ट्रस्ट तथा डॉ. ललित किशोर मंडोरा, सहायक संपादक का विशेष रुप से आभारी हूं जिन्होंने पुस्तक को इस के वर्तमान रुप में प्रस्तुत किया ।
विषय-सूची
नौ
विशेष आभार
तेरह
1
संस्कृति, कला और शिक्षा
2
संगीत: शास्त्रीय गायन का इतिहास
15
3
भारतीय शास्त्रीय गायन का इतिहास
23
4
वाद्य संगीत
33
5
भारतीय शास्त्रीय संगीत की महान विभूतियां (जीवनियां)
41
6
नृत्य
65
7
भारत के प्रमुख लोक नृत्य
81
8
भारतीय स्मारक
89
9
भारतीय संस्कृति का आधार एवं तत्वज्ञान
98
10
भारतीय संस्कृतिक के उन्नायक
105
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