इला जो अपने स्त्री वजूद को अर्थ देने और समाज के लिए कुछ कर गुजरने का हौसला लेकर खाकी वर्दी पहनती है, वहाँ जाकर देखती है की वह चालाक, कुटिल लेकिन डरपोक मर्दो की दुनिया से निकलकर कुछ ऐसे मर्दो की दुनिया में आ गई है जो और भी ज्यादा क्रूर , हिंसालोलुप और स्त्रीभक्षक है | ऐसे मर्द जिनके पास वर्दी और बेल्ट की ताकत भी है, अपनी अधपढ़ मर्दाना कुंठाओं को अंजाम देने की निरंकुश निर्लज्जता भी और सरकारी तंत्र की अबूझता से भयभीत समाज की नजरो से दूर, थाने की अँधेरी कोठरियों में मिलनेवाले रोज-रोज के मौके भी |
अपनी बेलाग और बेचैन कहन में यह उपन्यास हमें बताता है की मनुष्यता के खिलाफ सबसे वीभत्स दृश्य कही दूर युद्धों के मोर्चो और परमाणु हमले में नहीं, यहीं हमारे घरो से कुछ ही दूर, सड़क के उस पर हमारे थानो में अंजाम दिए जाते है | और यहाँ उन दृश्यों की साक्षी है बीसवी सदी में पैदा हुई वह भारतीय स्त्री जिसने अपनी समाज के दयनीय पिछड़ेपन के बावजूद मनुष्यता के उच्चतर सपने देखने की सोची है | मर्दाना सत्ता की एक भीषण सरंचना यानि भारतीय पुलिस के सामने उस स्त्री के सपने को रखकर यह उपन्यास एक तरह से उसकी ताकत को भी आजमाता है और कितनी भी पीड़ाजन्य सही, एक उजली सुबह की तरफ इशारा करता है |
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