चित्त शान्ति के स्रोत कबीर के दोहे
कबीरा क्या मैं चिंतऊं, मन चिन्ते क्या होय ।
मेरी चिंता हरि करे, चिंता मोहि न कोय । ।
चाह गई चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह ।
जाको कछु न चाहिये, सोई साहंसाह । ।
संत कबीर
कबीर कहते हैं कि ईश्वर भक्ति के बाद और किसी चीज की चिंता करने की आवश्यक्ता नहीं। चाहत या इच्छा के जाते ही चिंता मिट जाती है। मन शान्त तथा बंधनमुक्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में कामना छोडने के बाद चित्त शान्त और आनंदित रहता है।
तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय ।
कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय ।।
अभ्यास की गूढ़ अवस्था में मन और तन स्थिर हो जाते हैं, सुरत शब्द की पुन में और निरत उसके प्रकाश में लीन हो जाती है। कबीर कहते हैं कि इस एक क्षण के आनंद की बराबरी युगों तक स्वर्गों के निवास का सुख नहीं कर सक्ता।
प्रस्तुत पुस्तक चित्त शान्ति के स्रोत कबीर के दोहों पर आधारित है। सदियों से इस राष्ट्र को कबीर जैसे एक क्रांतिधर्मी युगद्रष्टा की प्रतीक्षा थी। कबीर के पावन अवतरण से एक नए युग, एक नया जगत, एक नई मनुष्यता का सूत्रपात हुआ। कभी कबीर ने समाज को जीवन के सत्य से परिचित कराया, तो कभी अपने शब्दों की पैनी धार से मिथ्या मान्यताओं एवं परंपराओं को खंड खंड कर दिया।
इस पुस्तक में लेखक नारायण सिंह भंडारी ने तमाम महापुरुषों के ज्ञान पीयूष को सम्मिश्रित कर जन जन को लाभांवित करने का प्रयास किया है। आशा है, आप निश्चित ही तनावमुक्त व द्वंद्वरहित हो, चित्त शान्ति को पा सकेंगे।
पुस्तक के लेखक श्री नारायण सिंह भंडारी आध्यात्मिक, दार्शनिक, सामाजिक एवं योग आदि विषयों के एक गहन अध्येता हैं जिनकी एक अन्य पुस्तक अंग्रेजी में (Duality in Life) भी प्रकाशित हो रही है।
भूमिका
हर एक व्यक्ति के जीवन में द्वंद्वों का आभास, जन्म से ही शुरू हो जाता है । पैदा हुआ बच्चा लड़का है या लड़की है, यह सूचना जब माता पिता व नजदीकी रिश्तेदारों को दी जाती है, तो उनकी प्रतिक्रिया भी दो भावों में होती है । यह दो भावों की भिन्नता, मन की चाह और वास्तव में जो हुआ उसकी समानता व असमानता के कारण होती है । चाहे वे शब्दों में अपने भावों को व्यक्त करें या नहीं । वह बच्चा धीरे धीरे बड़ा होता रहता है और इस दुनिया को जानने व समझने की कोशिश करता रहता है, लेकिन वह इस संसार में पाता है द्वंद्व जैसे सुख और दुःख, अच्छा और बुरा, प्रेम और घृणा, जीत और हार, अमीरी और गरीबी, राग और द्वेष, जीवन और मृत्यु इत्यादि ।
व्यक्ति, बच्चे से वयस्क होने के दौरान अपने मां बाप, भाई बहन, रिश्तेदारों, स्कूल, कॉलेज और समाज से अनेक आदतों व विचारों को अलग अलग अपनी इच्छानुसार चुनता है और उसके अनुरूप एक विचार, समझ या दृष्टिकोण बना लेता है । वह अपने कार्य या प्रतिक्रियाएं इसी समझ से करता रहता है । जब जब व्यक्ति के जीवन में और समाज में घटनाएं घटती हैं, तब तब व्यक्ति की समझ भी बदलती है । इसी कारण समाज में भिन्न भिन्न स्वभावों के व्यक्ति होते हैं और विभिन्न चरित्र वाले लोगों का निर्माण होता रहता है ।
हर एक व्यक्ति अपनी इच्छा से, बीते समय में बनाए हुए दृष्टिकोण, समझ और विभिन्न व्यक्तियों के संपर्क से अपने में कुछ गुणों और अवगुणों को पकड़ता है । व्यक्ति देवता हो जाता है अगर उसमें गुण ही गुण हों और व्यक्ति दानव हो जाता है अगर उसमें अवगुण ही अवगुण हों । लेकिन साधारणतया व्यक्तियों में गुण और अवगुण अलग अलग अनुपात में होते हैं । मनुष्य के जीवन में कई बार ऐसी स्थिति आती है, जब उसे चुनाव करना होता है कि वह इस ओर जाए या उस ओर । तब वह दो भावों (द्वंद्व) में उलझ जाता है, क्योंकि दो भावों में कोईभी भाव उसे पूर्ण रूप से सही या गलत नहीं लगता । ऐसी ही स्थिति अर्जुन की हो गई थी महाभारत में कि वह लड़े या नहीं । इस कारण मनुष्य सामान्यतया द्विधाभाव (द्वंद्वों) में या तनाव में अपना जीवन व्यतीत करता है ।
सुख, अमन चैन, खुशी या प्रसन्नता प्रत्येक मनुष्य के जीवन का लक्ष्य होता है । मनुष्य के जितने भी कर्म होते हैं, उनका उद्देश्य यही होता है कि अधिक से अधिक खुशी या सुख कैसे प्राप्त हो? मनुष्य गलत धारणा या भ्रम की वजह से अपना सुख वस्तुओं में छूता रहता है । एक वस्तु से दूसरी वस्तु में, दूसरी वस्तु से तीसरी वस्तु में इत्यादि । लेकिन सारे जीवन के परिश्रम के बाद भी जब उसे बाहर स्थायी सुख नहीं मिलता, तो वह निराश हो जाता है । वस्तुत वह यह नहीं समझ पाता है कि स्थायी सुख बाहर नहीं, अपितु स्वयं उसके अंदर विद्यमान है । यह अनुभूति भी तभी हो सकेगी, जब वह अंतर्मुखी हो, अपने अंदर अवस्थित आत्मतत्त्व को जाने, पहचाने और उसकी खोज करे । जब मनुष्य को यह एहसास हो जाए कि परमात्मा का अंश आत्मा उसमें विद्यमान है, वह व्यक्ति अपने को आत्मा मानता है और स्थायी सुख प्राप्त करता है, क्योंकि आत्मा द्विधाभाव (द्वंद्वों) से ऊपर है । ऐसी अवस्था पाना बहुत ही कठिन है, क्योंकि मनुष्य का मन पूर्ण रूप से बाहर ही रहता है । एक वस्तु से दूसरी वस्तु, एक भाव से दूसरे भाव में मन भटकता रहता है । ऐसे में सुख चैन कैसे मिलेगा? इस तरह भटकते हुए मन को रोकना या नियंत्रण करना मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या है ।
महर्षि पतंजलि के अनुसार मन की वृत्तियों को योग से नियंत्रण किया जा सकता है । ये मन की वृत्तियां पांच प्रकार की होती हैं ।
1 प्रामाणिक ज्ञान (Understanding through proof) जिसे मन समझता है, प्रत्यक्ष रूप में, अनुमान से और वेद शास्त्र द्वारा अनुमोदन से ।
2 मिथ्या ज्ञान (Misunderstanding) जब मन समझता कुछ है और वास्तव में कुछ और ही होता है । इसे अजान कहते हैं ।
3 कल्पना (Imagination) केवल शब्द ज्ञान पर आधारित तथा वस्तु से शून्य (मानसिक क्रिया) को कल्पना कहते हैं ।
4 स्मृति (Remembarance) अनुभव किए हुए विषय का मन में प्रकट होना स्मृति है ।
5 निद्रा (Sleep) पांचों इंद्रियों द्वारा अनुभूति के अभाव पर आधारित मानसिक वृत्ति निद्रा है।
इन पांचों मन की वृत्तियों को नियंत्रित करने के लिए महर्षि पतंजलि ने सुझाव दिए हैं आत्मज्ञान होने पर ही मन की वृत्तियों का निरोध होता है । आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सांसारिक विषयों के प्रति वासना, आसक्ति या लगाव का त्याग करना होगा (सांसारिक विषयों का नहीं) । अभ्यास और वैराग्य से इन वृत्तियों का निरोध हो सकता है । दीर्घकाल तक निरंतर निष्ठापूर्वक मन की वृत्तियों को रोकने तथा मन को अपने स्वरूप (आत्मा) में स्थित करने के अभ्यास से, निश्चित ही साधक को आत्मज्ञान का सुख मिलता है । तब देखे और सुने हुए विषयों में तृष्णा न होने से, मन का बस में होना वैराग्य है । मन को बस में करने के लिए तप, स्वाध्याय और ईश्वर को आत्मसमर्पण, क्रियायोग है ।
मनुष्य जब द्विधाभाव या द्वंद्वों में रहता है तो दुविधा में रहता है । जिस तरह अर्जुन महाभारत में लड़ने के बजाय धनुष बाण त्यागकर दुविधा में पड़ जाता है । उसके मन का एक भाव कहता है कि अपने भाई बंधुओं और गुरुओं को मारना गलत है और मन का दूसरा भाव कहता है कि दुर्योधन द्वारा किया गया अत्याचार अन्याय का प्रतिकार हिंसा द्वारा करना चाहिये । अति अल्पज्ञानी को दुविधा नहीं होती है क्योंकि वह जो भी समझ पाता है, उसी के अनुसार अपना निर्णय ले लेता है । अपनी अल्पबुद्धि के द्वारा वह किसी प्रश्न का एक से अधिक पहलू जान ही नहीं पाता । दूसरी ओर, पूर्णज्ञानी को भी दुविधा नहीं होती, क्योंकि प्रश्न के सभी पहलुओं को समझकर भी उसको इतना शान होता है कि वह सही समाधान कर पाए । किंतु बीच की बुद्धिवाला (अल्पज्ञानी) परेशान हो जाता है, क्योंकि उसको इतना ज्ञान तो प्राप्त होता है कि वह प्रश्न के एक से अधिक पहलुओं को पहचान ले, लेकिन इतना नहीं कि वह निर्णय कर ले कि कौन सा समाधान सही है । इस संसार में अधिकांश व्यक्ति बीच की बुद्धिवाले अर्थात् अल्पज्ञानी हैं, इसीलिए तनाव में रहते हैं ।
जिस प्रकार शरीर के भयंकर रोग जैसे कैंसर, एड्स, प्रमुख ग्रंथियों के रोग (दिल, लिवर और गुर्दे की बीमारी), मधुमेह, दमा, लकवा, उच्च रक्तचाप आदि हैं । उससे भी भयंकर रोग हमारे मन के होते हैं जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार । इन दोषों से हमारा दृष्टिकोण बदलता रहता है, हम अपने स्वार्थपूर्ति के लिए अनेक गलत कार्य करते रहते हैं और अनेक को कष्ट देते हैं । वही दिया हुआ कष्ट दोगुना होकर हमारे पास वापस आता है । हर एक वयस्क जानता है कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है? लेकिन मन के इन दोषों से उसके अक्ल या बुद्धि पर परदा पड जाता है । या कहिए कि उसकी मति फिर जाती है और वह सही निर्णय नहींले पाता है । इस कारण वह अनैतिक या अनुचित कार्य कर बैठता है । इन पांच दोषों में कोई भी एक दोष, व्यक्ति का दृष्टिकोण बदल सकता है, और गलत कार्य करवा सकता है । ये दोष हमारे मुख्य शत्रु हैं । पहले इन शत्रुओं पर विजय पाओ । संत कबीर कहते हैं कि काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार (मद) आदि दुर्गुणों से जब तक हृदय भरा हुआ है, तब तक मूर्ख और पंडित दोनों एक समान हैं । अर्थात् जिसने भक्ति ज्ञान से इन दुर्गणों को अपने हृदय से दूर कर दिया है, वही पंडित है और जिसने इनका त्याग नहीं किया वह मूर्ख है । कबीर ने इन दोषों को अपने दोहों में बड़े ही स्पष्ट ढंग से वर्णित किया है । उसका सार संक्षेप में इस प्रकार है
काम काम की इच्छा माया के रजोगुण से उत्पन्न होती है । काम, स्त्री और पुरुष के बीच मोह आकर्षण को जगाता है । परमात्मा की कोई रचना बुरी नहीं है । बुराई उसके प्रयोग या उपयोग के अज्ञान में है । काम का उचित रूप संतानोत्पत्ति है, लेकिन कामेषणा (जिसके सिर पर काम का भूत सवार रहता है), जीवन कल्याण के परम उद्देश्य की सफलता में बाधक है । जीवन में भ्रम, संदेह आदि विकार उत्पन्न करने वाली यह कामाग्नि सदा ही अशांति और भय देती हैं । इसके कारण व्यक्ति पापी बन जाता है और दुःख व संतापों से पीड़ित होता है । बाद में वह अपने व्यवहार पर पश्चात्ताप करता है । भोगकाल के आरंभ में काम अमृत जैसा सुखदायी तथा परिणामकाल में विष के समान दुःखदायी होता है । काम वासना के अतिरिक्त अन्य कामना पूर्ति की लालसा भी कामाग्नि है ।
क्रोध विषय आसक्ति के कारण कामना उत्पन्न होती है और कामना के कई रूप हैं । कामना पूर्ति में विघ्न आने पर क्रोध आता है । क्रोध के आवेश में व्यक्ति मानसिक संतुलन खो बैठता है । तब उसकी बुद्धि काम नहीं करती, वह आपे से बाहर यानी विवेकशून्य हो जाता है । क्रोध व्यक्ति की अज्ञानता का प्रतीक है । क्रोध पहले वाद विवाद तक सीमित रहता है । इस सीमा को पार करते ही यह लड़ाई मारपीट का कारण बन जाता है । क्रोध से व्यक्ति की चेतना शक्ति का विनाश होता है । क्रोध जीवन की कोमल मधुर भावनाओं का नाश करता है और मानसिक अशांति का कारण होता है । क्रोध से कुंठित व्यक्ति अनेक विकारों से ग्रस्त रहता है । क्रोध की भावना अकेली नहीं होती । राग द्वेष, ईर्ष्या आदि दुर्गण भी इसके साथ होते हैं । क्रोध व्यक्ति के विनाश का कारण बनता है ।
लोभ लोभ माया के रजोगुण से उत्पन्न होता है । लोभी व्यक्ति सदैव असंतुष्ट, अशांत तथा दयनीय स्थिति में रहता है । ऐसा व्यक्ति अपने संगृहित धन का उपभोगकभी नहीं कर पाता । उसके धन को दूसरे लोग या चोर लुटेरे ही भोगते हैं और वह अंत में खाली हाथ रह जाता है । लोभी व्यक्ति अत्यंत महत्वाकांक्षी और सदैव स्वार्थ सिद्धि की चिंता से यों ही घिरा रहता है । लोभी व्यक्ति की आवश्यकताएं कभी कम नहीं होतीं, बल्कि समयानुसार बढ़ती ही जाती हैं । लोभी व्यक्ति कंजूस स्वभाव का होता है और अपना धन किसी के हित या सद्कर्मों में खर्च न करके संग्रह में लगा रहता है । वह धन संग्रह करने के लिए झूठ भी बोलता है तथा निर्दयी भी हो जाता है । लोभरूपी गीदड़, सिंह जैसे संपन्न और शक्तिशाली व्यक्तित्व को भी नष्ट कर देता है । लोभ जितना अधिक बढ़ता है व्यक्ति का नाश उतना ही शीघ्र होता है । साधुजन लोभ के दास नहीं होते । वे प्रभु से उतना ही मांगते हैं, जितने से भूख की निवृत्ति हो सके । लोभ ज्ञानीजनों का दास होता है । कबीर ने भौतिक समृद्धि को माया बताया है । उनके अनुसार धन संपत्ति का लोभ मनुष्य को परमात्मा से विमुख करता है और सुख शांति छीन लेता है, अत लोभ त्याज्य है ।
मोह किसी प्राणी, किसी पदार्थ, किसी अपने पराये, किसी नाते रिश्तेदार से गहरा लगाव और आसक्ति 'मोह' है । मोह के कारण ही सभी जीव संसाररूपी वृक्ष पर मधुमक्खियों के छत्ते की तरह चिपके हुए हैं । संसार में नाश और निर्माण की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है । इसकी हर वस्तु नाशवान है । यहां जिससे भी मोह किया जाए, वह और स्वयं मोह करने वाला नाशवान है । इस प्रकार यहां किसी की आशा नहीं करनी चाहिये । मोह का संबंध क्षणिक सुख और भयंकर दुःख से है । व्यक्ति मोह में लिप्त रहने के कारण विषय वासना में चूर होकर कुमार्ग पर भटक जाता है । वह उसकी मूर्खता और घोर अज्ञानता का परिणाम है । वह यह नहीं सोचता कि यहां सबका जन्म मरण निश्चित है और किसी को अपना मान लेना भारी भूल है । मोह अर्थात् चाह के सारे सुख मृगतृष्णा हैं । मनुष्य मोह के भंवर में फंसकर घोर अनैतिक पाप कर्म करता है और अपने लिए दुःख पैदा करता है । मोह विषय सुख में आसक्ति है । परमात्मा को पाने के लिए विषय सुख की आसक्ति छोड़नी होगी मोह अशांति, असंतोष और चिंता का कारण है, इसलिए इसका त्याग आवश्यक है ।
अहंकार अहंकार अर्थात् मद, आत्म मोह की स्थिति है । अहंकार भी माया के रजोगुण से उत्पन्न होता है । यह एक भयंकर विकार है, जिससे जीवन में अनेक दिन, क्लेष, दुःख आदि सामने आते हैं । अहंकार कुवासनाओं का पोषक, निष्ठुर और कूर होता है । अहंकार निम्नतम श्रेणी से लेकर उच्चतम श्रेणी तक के जीवोंमें किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है । प्रत्येक व्यक्ति में अहंकार है । सभी 'मैं' के अहंकार से ग्रस्त हैं । 'अहं' भाव मनुष्य को परमात्मा से विमुख करता है, परंतु अहंकार को बढ़ाने में ही उसे सुख मिलता है । अहंकार मन के ऊपर सवार रहता है । इसे विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है । उदाहरण के लिए किसी को धन संपत्ति का अहंकार है, तो किसी को अपनी कुल जाति का, किसी को अपने कौशल का अहंकार है, तो किसी को अपनी शक्ति का । अहंकार मनुष्य को छलावे में रखकर उससे नाना प्रकार के न्याय अन्याय कराता है । प्राय वह अन्याय ही कराता है । व्यक्ति मद से ग्रस्त होकर अपनी सूझ बूझ खो देता है । अहंकार में वह अच्छे बुरे का ध्यान नहीं कर पाता । अहंकार के आवेश में हिंसा भड़क उठती है । अहंकार व्यक्ति को लज्जाहीन और अमानुष बना देता है । वह अपनी शक्ति का प्रयोग दूसरों को प्रताड़ित करने के लिए करता है । वह स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि समझने लगता है । वह भूल जाता है कि यदि वह ईश्वर का प्रतिनिधि है, तो दूसरे क्या हैं । सच्ची भक्ति के लिए 'अहंकार' को छोड़ना आवश्यक है । मद या अहंकार के छूटने पर मन की कठोरता समाप्त हो जाती है और मन पिघलकर गुरु के चरणों में पहुंच जाता है ।
यह पांच मन के भयंकर रोग, इनसान से बहुत बुरा काम करवाते हैं । पवित्र और महान् इनसान बनने के लिए इन दुर्गुणों का त्याग आवश्यक है । इन दुर्गुणों का प्रतिकार इनके विलोम भावनाओं से करना चाहिये । जैसे काम का प्रतिकार ब्रह्मचर्य तथा इंद्रियनिग्रह से क्रोध का प्रतिकार, क्षमा तथा परनिंदा त्याग से लोभ का प्रतिकार, संतोष तथा दान की भावना से मोह का प्रतिकार, विवेक तथा त्याग से अहंकार का प्रतिकार नम्रता तथा सेवाभाव से करना चाहिये ।
जब हम ऐसे व्यक्ति को देखते हैं, जो पश्चात्ताप कर रहा हो, तो कारण यही मिलता है कि उसने बीते हुए दिनों में इन्हीं पांच दोषों में किसी एक दोष से ग्रस्त होकर कोई गलत कार्य किया था । अगर हम अपने बीते समय को देखें और अपना विश्लेषण करें, तो पाएंगे कि इन पांच दोष काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से वशीभूत होकर हमने कितने गलत कार्य किए । ये दोष मनुष्य के निर्विवाद दुश्मन हैं । ये दोष मनुष्य को तनाव में रखते हैं और व्यक्ति द्वंद्वों में झूलता रहता है ।
इस पुस्तक में बहुत से द्वंद्वों के बारे में वर्णन किया गया है, जो कि हमारे जीवन में आते रहते हैं । इन द्वंदों को समझने और उनसे बाहर आने के लिए बहुत से अंश संत कबीर, स्वामी विवेकानंद और स्वामी शिवानंद द्वारा लिखित पुस्तकोंमें से लिए गए हैं । कुछ अंश श्रीमद्भगवद्गीता, पातंजलि योग सूत्रम् और अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों में से भी लिए गए हैं । मुख्य पुस्तकों की सूची इस पुस्तक के अंत में दी गई हैं ।
यह पुस्तक 'तनावमुक्त जीवन' लिखने का मुख्य उद्देश्य जीवन में द्वंद्वों को समझना हे । इन द्वंद्वों को समझने पर ही मनुष्य इन द्वंद्वों, जैसे सुख दुःख, पसंद नापसंद, लाभ हानि, आशा निराशा, निंदा स्तुति अमीर गरीब, सफलता असफलता, अच्छा बुरा, राग द्वेष, स्त्री पुरुष इत्यादि से ऊपर उठने का अभ्यास कर सकता है । मानव तब तक तनावमुक्त नहीं हो सकता है, जब तक वह इन द्वंद्वों के जाल से बाहर नहीं आ जाता । इस सामाजिक उद्देश्य कौ पूरा करने के लिए मैंने आध्यात्मिक विज्ञान की मदद ली है तथा तनाव उत्पन्न करने वाले द्वंद्वों का स्पष्ट वर्णन किया है । साथ ही इन द्वंद्वों से उत्पन्न तनाव को निर्मूल करने का प्रयास किया है तथा दृष्टांतों (नीति कथाओं या कहावतों) और प्रेरणात्मक कहानियों से उनका संपूरण भी कियो है ।
मुझे आशा है कि मेरा यह प्रयास पाठकों के मन की शंकाओं को दूर कर, उनके मस्तिष्क में उत्तम विचार लाएगा । एक विचार परिवर्तन बिंदु बन सकता है तथा जीवन में पूर्ण रूपांतर कर सकता है । एक विचार मनुष्य के भय और चिंता को निर्मूल करने और उसे साहसपूर्ण कठिन समस्या के साथ जूझने के लिए तैयार कर सकता है । मुझे आशा है कि सभी पाठक इससे लाभ उठाएंगे और दूसरों को भी लाभान्वित करेंगे ।
मैं आभारी हूं श्रीमती शांति गौतम का जिन्होंने इस पुस्तक में त्रुटियों को हटाने का प्रयास किया । फिर भी जो कुछ त्रुटियां इसमें रह गई हों, उसके लिए मुझे क्षमा करते हुए यदि आप अपने अमूल्य सुझावों से अवगत कराएंगे, तभी भविष्य में इसमें और भी सुधार कर पाना संभव हो सकेगा ।
यदि मैं प्रकाशदीप नहीं बन सकता, तो कम से कम प्रतिबिम्बक तो बन ही सकता हूं । धन्य हैं वे, जो प्रकाश को उत्पन्न करते हैं और उसे विकीर्ण करते हैं ।
अनुक्रम
1
सुख और दुःख
15
2
भूत और भविष्य
20
3
प्रेम और घृणा
24
4
नम्रता और घमंड
29
5
क्षमा और क्रोध
34
6
इच्छा और संतोष
37
7
इच्छा और त्याग
41
8
दान और कंजूसी
46
9
बंधन और शक्ति
51
10
डर और साहस
56
11
कामना और उदासीनता
59
12
आशावादी और निराशावादी
62
13
राग और द्वेष
64
14
विश्वास और संदेह
67
माया और अमाया
69
16
ईमानदारी और बेईमानी
72
17
उदारता और ईर्ष्या
75
18
आडंबर और सरलता
78
19
निराशा और प्रसन्नता
81
चिंता और शांति
83
21
जीवन और मृत्यु
86
22
अनुकूलीकरण और असहयोग
91
23
सत्य और झूठ
94
निश्चलता और चंचलता
98
25
मौन और बकवास
100
26
संयम और असंयम
103
27
स्वार्थ और परमार्थ
106
28
भलाई और बुराई
109
सत्संग और कुसंग
114
30
विदा और प्रशंसा
118
31
कथनी और करनी
124
32
प्रेम और वासना
128
33
विवेक और मनोभाव
132
भूल और पश्चात्ताप
35
किताबें और विवेक
136
36
शरीर और मन
140
भोजन और मन
145
38
मन और ध्यान
149
39
मन और सुमिरन
155
40
गुरु और शिष्य
162
संदर्भ ग्रंथ
172
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