अद्वैत वेदान्त में मायवाद: The Concept of Maya in Advaita Vedanta

FREE Delivery
$28.50
$38
(25% off)
Quantity
Delivery Usually ships in 5 days
Item Code: HAA200
Publisher: Vidyanidhi Prakashan, Delhi
Author: शशिकान्त पाण्डेय: (Shashikant Pandey)
Language: Hindi
Edition: 2024
ISBN: 8186700552
Pages: 471
Cover: Hardcover
Other Details 9.0 inch X 6.0 inch
Weight 700 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description

पुस्तक परिचय

मायावाद अद्वैत वेदान्त का कोई स्वतन्त्र सिद्धान्त नहीं है, अपितु वह अद्वैतवाद का एक अंग तत्व ही है । वस्तुत सिद्धान्त तो अद्वैतवाद है, जिसका मायावाद एक उपांग है । किन्तु वह माया कैसा तत्त्व है, इसकी स्पष्ट परिचिति अत्यन्त दुरूह है । आचार्य शङ्कर ने जिस अर्थ में माया शब्द का ग्रहण किया है, ठीक उसी अर्थ को उनके अनुयायी अदैूत वेदान्ती नहीं मानते हैं ।

मायावाद का सिद्धान्त शाङ्कर वेदान्त की आधारशिला है । अद्वैत वेदान्त के आधारभूत सिद्धान्तों के सम्यक् आकलन के निमित्त मायावाद के सिद्धान्त का विश्लेषणात्मक प्रतिपादन अनिवार्य है । मायावाद जैसे दुरूह और जटिल विषय पर लेखनी चलाना दुष्कर ही है, परन्तु फिर भी प्रस्तुत ग्रन्थ के माध्यम से इस सिद्धान्त को सुधीजनों के साथ साथ आम लोगों तक के लिए ग्राह्य बनाने का प्रयत्न किया गया है । इसमें अन्य दार्शनिक सम्प्रदायों में वर्णित मायावाद का भी तुलनात्मक परीक्षण किया गया है । माया के पर्यायभूत विविध शब्दों के साथ माया की अन्विति का परीक्षण प्रस्तुत करते हुए मायावाद के सिद्धान्त का उपस्थापन और उसके विनियोग पर विचार किया गया है । साथ ही साथ माया के मिथ्यात्व और अनिर्वचनीयत्व आदि विषयोंका सविस्तर वर्णन इस ग्रन्थ में प्राप्त होता है । निश्चित रूप से मायावाद का विवेचन अन्य अनेक ग्रन्यों में प्राप्त होता है, किन्तु समग्र रूप से एक ही स्थान पर अद्वैत वेदान्त के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय को सुधीजनों के सम्मुख ला पाने का एक लघु प्रयास प्रस्तुत ग्रन्थ के माध्यम से किया गया है ।

 

लेखक परिचय

डॉ. शशिकान्त पाण्डेय का जन्म बिहार राज्य के बक्सर जिलान्तर्गत नगरपुरा ग्राम में हुआ । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा डी. ए. वी. उच्च विद्यालय, कतरासगढ़, जिला धनबाद (झारखण्ड) में हुई । राँची कॉलेज, राँची से वर्ष 1992 में इन्होंने स्नातक ( संस्कृत) प्रतिष्ठा की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान प्राप्त किया । दिल्ली विश्वविद्यालय से 1994 में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर (संस्कृत) की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त उसी वर्ष इनका चयन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के जे. आर. एफ. के लिए हुआ । स्नातकोत्तर में व्याकरण इनके विशेष अध्ययन का क्षेत्र रहा है । प्रो. अवनीन्द्र कुमार, भूतपूर्व अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय के निर्देशन में भाषा दर्शन के क्षेत्र में शोध कार्य करते हुए इन्होंने वर्ष 1996 में एम. फिल्. की उपाधि (अतिविशिष्ट योग्यता के साथ) प्राप्त की तथा विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त किया । तदोपरान्त हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के ही संस्कृत विभाग के विद्वदाचार्य डॉ. कांशीराम जी की शिष्य परम्परा में सम्मिलित होने का सौभाग्य पाकर इन्होंने उनके निर्देशन में अद्वैत वेदान्त दर्शन के क्षेत्र में शोध कार्य करते हुए वर्ष 2000 में पी एच. डी. की उपाधि प्राप्त की । रिसर्च फैलो यू. जी. सी के रूप मे शोध कार्य रत इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में डिप्लोमा इन् संस्कृत पाठयक्रम में 4 वर्षों (1996 2000) तक अध्यापन कार्य भी किया । इन कक्षाओं में अध्यापन कार्य करते हुए इन्होंने कई विदेशी छात्रों को आंग्ल माध्यम से संस्कृत व्याकरण पढ़ाया ।

बिहार विश्वविद्यालय सेवा आयोग, पटना द्वारा वर्ष 2003 में व्याख्याता पद पर चयनित होने के उपरान्त सम्प्रति आप ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा की अंगी भूत इकाई आर. सी. एस. कॉलेज, मंझौल, बेगूसराय में संस्कृत विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं । इनकी अब तक 10 पुस्तकें तथा 4 शोध लेख प्रकाशित हो चुके हैं ।

 

प्राक्कथन

अघटितघटनापटीयसी माया अद्वैत वेदान्त का ऐसा तत्व है जिस पर उस दार्शनिक सम्प्रदाय का पूरा वितान खड़ा है । सामान्य व्युत्पत्तिजन्य अर्थ के द्वारा मा न् या , अर्थात् जो नहीं , इस अर्थ को अभिव्यक्त करने वाली माया वास्तव में कुछ नहीं है, फिर भी वही इस संसार चक्र के भ्रामण में एक मात्र तत्त्व है । मात्यस्यां विश्वमिति माया इस अर्थ की बोधिका माया अद्वैत वेदान्त के अनुसार सत् तथा असत् से विलक्षण होने के कारण अनिर्वचनीय है । अनिर्वचनीय होने के कारण यह स्वप्न, गन्धर्व नगर अथवा शशप्राङ्ग आदि कल्पनाओं से भी भिन्न है । इस माया तत्त्व से युक्त होकर ही परमेश्वर सृष्टिकर्त्ता बनता है । इसी कारण अद्वैत वेदान्त का ब्रह्म जगत् का उपादान कारण भी है और निमित्त कारण भी ।

यद्यपि माया शब्द का उल्लेख ऋग्वेद से लेकर अनेक उपनिषदों में प्राप्त होता है, किन्तु माया शब्द का जिस रूप में विवेचन आदि शंकराचार्य ने किया है, वह वेदों और उपनिषदों की माया से भिन्न ही है । यों ऋग्वेद में माया को सृष्टिकर्त्री शक्ति के रूप में सम्बोधित किया गया है और अद्वैत वेदान्त भी किसी न किसी रूप में जगत् की उत्पत्ति में माया की अपरिहार्यता को स्वीकार करता है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि दोनों स्थलों पर वर्णित माया एक ही है । प्रमुख उपनिषदों में भी कुक्के स्थलों में माया का उल्लेख हुआ है, किन्तु यह माया भी शंकराचार्य की माया से भिन्न कोटि की ही प्रतीत होती है । शंकर ने जिस रूप में माया के मिथ्यात्व का विवेचन किया है, उपनिषदों की माया वैसी नहीं है जिसकी निवृत्ति ज्ञान के द्वारा दर्शायी गयी हो । रज्जु में सर्प की प्रतीति की तरह शंकराचार्य का जगत् उस रूप का नहीं है । जार्ज थीबो और कोलब्रुक आदि विचारक इसी सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं कि उपनिषदों की माया की व्याख्या करने पर भी शंकराचार्य की माया उस औपनिषदिक माया से भिन्न ही है । कोलब्रुक तो थीबो से एक कदम आगे बढ़ते हुए स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अद्वैत वेदान्त में प्रतिपादित जगत् का मायात्व, मिथ्यात्व और स्वप्नावभासत्व आदि विचार उपनिषदों में प्राप्त नहीं होते हैं । मैक्समूलर भी मायावाद के सिद्धान्त को उपनिषदों के उत्तरकाल की ही देन स्वीकार करते हैं और कहते है कि उपनिषदों में माया को मिथ्या सिद्ध करने वाला सिद्धान्त प्राप्त नहीं होता है । अनेक आलोचक तो यहाँ तक कह डालते हैं कि न केवल मायावाद, अपितु शंकराचार्य का पूरा अद्वैतवाद आचार्य शंकर की अपनी कल्पना है, हाँ, उस कल्पना को रूप देने के लिए उन्होंने उपनिषदों और ब्रह्म सूत्र का सहारा लिया है ।

अद्वैत वेदान्त का मायावाद कोई स्वतन्त्र सिद्धान्त नहीं है, अपितु वह अद्वैतवाद का एक अंग तत्त्व ही है । वस्तुत सिद्धान्त तो अद्वैतवाद है जिसका मायावाद एक उपांग है । किन्तु वह माया कैसा तत्व है, इसकी स्पष्ट परिचिति अत्यन्त दुरूह है । यद्यपि माया शब्द का पूर्णतया सही सही पर्याय कोई भी शब्द नहीं है. फिर भी अनेक शब्द दर्शनग्रन्थों में अथवा शंकराचार्य की व्याख्याओं में भी मिलते हैं, जिनका परीक्षण माया शब्द के पर्याय के रूप में आचार्यों, विद्वानों, विचारकों और समीक्षकों ने किया है । माया के पर्याय के रूप में अविद्या शब्द का उल्लेख यत्र तत्र स्वयं शंकराचार्य ने भी किया है । ब्रह्म और जगत् में जो प्रार्थक्य हमारे मन में प्रतीत होता है, उस अविद्या रूप बीज शक्ति का विनाश विद्या के उदय से हो जाता है । जीवात्मा की यह स्वरूपस्थिति ब्रह्मत्व की प्राप्ति है । जीव पर जब तक अविद्या का साम्राज्य रहता है तब तक वह इस नामरूपात्मक प्रपह्यात्मक जगत् को सत्य समझते रहता है । शंकराचार्य के अनुसार यह अविद्या ही जगत्( की उत्पन्नकर्त्री बीजशक्ति है । अब यहाँ प्रश्न उठता है कि अविद्या और माया दोनों ही शब्द पूर्णतया एक ही अर्थ को यदि अभिव्यक्त करने वाले हैं तो शंकराचार्य ने दो शब्दों का उल्लेख क्यों किया? अनेक आलोचक यह मानते हैं कि माया शुद्धसत्त्वप्रधाना है और अविद्या मलिनसत्त्वप्रधाना तथा माया विषय रूप है और अभिका विषयीरूप, किन्तु कुछ चिन्तक इस भेद को स्वीकार नहीं करते हैं और यह भी सिद्ध करते हैं कि अविद्या और माया शब्द आचार्य शंकर के अनुसार एक ही अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं । आनन्दगिरि जैसे भाष्यकार भी दोनों के एकत्व का प्रतिपादन करते हैं । अनुशीलन करने पर हम पाते हैं कि शंकराचार्य ने यत्र तत्र माया के विषयरूपत्व अैर विषयीरूपत्व का प्रतिपादन किया है और अविद्या का भी । अत दोनों के प्रार्थक्य को दर्शाने के लिए कोई स्पष्ट रेखा का निर्धारण सम्भव नहीं है । हाँ, कहीं कहीं यह भी वचन मिलता है कि माया का ईश्वर से सम्बन्ध है और अविद्या का जीव से ।

इसी तरह अध्यास शब्द, जिसे सदानन्द आदि ने अध्यारोप शब्द से अभिहित किया है, भी अविद्या अथवा माया का पर्यायवाची प्रतीत होता है । ब्रह्मसूत्र भाष्य के उपोद्घात में शंकराचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा है कि इसी अध्यास को पण्डित लोग अविद्या नाम से कहते हैं । आचार्य शंकर ने अविद्या और अध्यास के अतिरिक्त माया को यत्र तत्र मिथ्याज्ञान, मिथ्याप्रत्यय, मिथ्याबुद्धि, अव्यक्त, महासुषुप्ति, आकाश और अक्षर आदि नामों से भी बोधित किया है । इसी तरह पंचपादिका में माया के लिए चौदह नामों का उल्लेख मिलता है । वे हैं नामरूप अव्याकृत, अविद्या प्रकृति, अग्रहण, अव्यक्त, तम, कारण, लय, शक्ति, महासुषुप्ति, निद्रा, अक्षर और आकाश । इन सभी शब्दों के द्वारा कहीं न कहीं जिस तत्व का विवेचन किया जाता है, वह माया ही है ।

अद्वैत वेदान्त के अतिरिक्त अन्य दर्शनों अथवा प्रस्थानों में भी माया शब्द का उल्लेख मिलता है और उन उन स्थानों पर इसका अभिप्राय भी प्राय भिन्न भिन्न ही है । काव्यों में भी यह , शब्द बहुश. विवेचित है जहाँ इसका अर्थ कपटता, दम्भ, अद्भुत क्षमता, आन्तरिक दुर्गुण आदि है । दूसरों को ठगने की इच्छा भी कहीं कहीं माया शब्द से बोधित होती है । भगवान् की कृपा या इच्छा भी माया शब्द से वर्णित है । भगवान् की विशिष्ट शक्ति के रूप में माया को वल्लभमतावलम्बी मानते हैं । विशिष्ठद्वैत में माया को त्रिगुणात्मिका प्रकृति माना गया है । शैवमतावलम्बी यह स्वीकार करते हैं कि माया शक्ति के कारण ही प्रलय के समय सारी सृष्टि का लय हो जाता है । शाक्त लोग काली अथवा चण्डी को ही आदि शक्ति मानते हुए उसे ही माया का पर्यायवाची घोषित करते हैं । इसे कहीं बुद्धि की वृत्ति कहा गया है तो कहीं परमेश्वर की विशिष्ट शक्ति ।

आचार्य शंकर ने जिस अर्थ में माया शब्द का ग्रहण किया है, ठीक उसी अर्थ को उनके अनुयायी अद्वैत वेदान्ती नहीं भी मानते हैं । कई अद्वैत वेदान्ती माया की व्याख्या करने में कुछ अपना अलग भी अभिमत प्रदान करते हैं । वे आचार्य अविद्या और माया के एकत्व पर भी अपना अलग विचार स्थापित करते हैं । इस प्रकार के आचार्यों में विवरणकार प्रकाशात्मयति विक्षेप शक्ति से युक्त को माया तथा आवरण शक्ति से युक्त को अविद्या सिद्ध करते हैं । विद्यारण्य के अनुसार सत्त्व की शुद्धि से माया और सत्व की अशुद्धि से अविद्या का जन्म होता है । वे यह मानते हैं कि माया जगत् के विविध कार्यों को उत्पन्न करने वाली है, किन्तु अविद्या जीवात्मा की बुद्धि पर आवरण डालने वाली होती है ।

सुरेश्वराचार्य विद्यारण्य स्वामी के मत से तादात्म्य रखते हुए कहते हैं कि विशुद्ध सत्त्वप्रधाना माया तमोगुण से युका है । विशुद्ध सत्त्वयुक्त होकर माया परमेश्वर की दासी है, जबकि अविशुद्ध सत्त्वयुक्ता माया अविद्या कहलाती है । यद्यपि अनेक अद्वैतवादी आचार्य माया का प्रतिपादन करने में कुछ भिन्न भिन्न मत रखते हैं, फिर भी अद्वैत वेदान्त के अनुसार माया अनादि, भावरूप, अनिर्वचनीय एवं सान्त है ।

मायावाद जैसे दुरूह और जटिल विषय पर लेखनी चलाना भी दुष्कर ही है, किन्तु मेरे अन्तेवासी डॉ. शशिकान्त पाण्डेय ने अपने प्रस्तुत मथ के माध्यम से अद्वैत वेदान्त के मायावाद को सफलतापूर्वक सुधीजनों के साथ साथ आम लोगों तक के लिए ग्राह्य बनाने का प्रयत्न किया है । यद्यपि मूलत इस ग्रन्थ में अद्वैत वेदान्त के मायावाद का विवेचन हुआ है, किन्तु एक अच्छे शोध कार्य की पहचान के रूप में इसमें अन्य दार्शनिक सम्प्रदायों में वर्णित मायावाद का भी तुलनात्मक परीक्षण किया गया है । डॉ. पाण्डेय ने मायावाद की पृष्ठभूमि का निर्धारण करते हुए उन तथ्यों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया है कि क्या इस वाद के मूल को वेदों तथा उपनिषदों में खोजा जा सकता है? अद्वैत वेदान्त में माया के पर्यायभूत विविध शब्दों के साथ माया की अन्विति का भी परीक्षण डॉ. पाण्डेय ने सुष्ठुतया सम्पादित किया है । इसी तरह विस्तार से विभिन्न अध्यायों के अन्तर्गत मायावाद के सिद्धान्त का उपस्थापन और उसके विनियोग पर विचार करते हुए माया के मिथ्यात्व और अनिर्वचनीयत्व आदि विषयों का सविस्तर वर्णन इस ग्रन्थ में प्राप्त होता है । निश्चित रूप से इस तत्व का विवेचन अन्य अनेक ग्रन्थो में प्राप्त होता है, किन्तु समग्र रूप से एक ही स्थान पर अद्वैत वेदान्त के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय पर डॉ. पाण्डेय ने जो कार्य प्रस्तुत किया है, यह श्लाध्य है । मैं प्रस्तुत कथ के लिए डॉ. शशिकान्त पाण्डेय को साधुवाद प्रदान करते हुए उन्हें आशीर्वाद भी प्रदान करता हूँ कि वे अपने जीवन में निरन्तर भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति के विषयों को समाज के सामने ले आने का प्रयास करते रहें ।

 

विषयानुक्रम

 

प्राक्कथन

v

 

संकेत सूची

ix

 

भूमिका

1

 

प्रथम अध्याय मायावाद की पृष्ठभूमि

11

1.1

माया की अनिर्वचनीयता

11

1.2

माया शब्द की व्यूत्पत्ति तथा इतिहास

13

1.3

माया की अनिवार्यता का प्रश्न

37

1.4

अद्वैत वेदान्त में मायावाद के सिद्धान्त की आवश्यकता

39

1.5

अद्वैत वेदान्त में माया का स्थान

48

1.6

शाङ्कर मायावाद का स्वरूप

54

1.7

मायावाद के प्रतिपादन की रीतियाँ

59

1.8

माया का अन्य आध्यात्मिक तत्त्वों से सम्बन्ध

64

1.8.1

माया और ईश्वर

64

1.8.2

माया और जीव

66

1.8.3

जीव और साक्षी

69

1.8.4

अविद्यानिवृत्ति और मुक्ति

72

1.8.5

माया और प्रपञच का विकास क्रम

77

1.8.6

माया और देशकाल की व्यावहारिकता

78

 

द्वितीय अध्याय अन्य भारतीय दर्शनों में मायावाद की समीक्षा

81

2.1

सांख्य की मूलप्रकृति की मायात्मकता

81

2.2

बौद्ध विज्ञानवाद तथा जगन्मिथ्यात्व

88

2.3

माध्यमिक दर्शन शून्य की अवधारणा

104

2.3.1

शून्यवाद पर विवाद

104

2.3.2

बौद्ध शून्यवाद तथा जगन्मिथ्यात्व

113

2.3.3

परमार्थ की अनिर्वचनीयता अद्वैतवादी तथा शून्यवादी

 

 

दृष्टिकोण, नेति नेति का स्पष्टीकरण

119

2.4

जैन दर्शन में माया सम्बन्धी वेदान्त मत की समीक्षा

125

 

तृतीय अध्याय अद्वैत वेदान्त में माया एवं अज्ञान/अविद्या निरूपण

142

3.1

भारतीय दर्शनों में अज्ञान की अवधारणा अज्ञान के विषय

 

 

वस्तु के सन्दर्भ में

142

3.2

विभिन्न दर्शनों में प्रतिपादित अविद्या का स्वरूप

154

3.3

अद्वैतवाद और शून्यवाद के अविद्या स्वरूप की तुलना

157

3.4

माया एवम् अविद्या में सम्बन्ध एवं नामकृत भेद (शाङ्कर तथा शाङ्करोत्तर वेदान्त के परिप्रेक्ष्य में)

159

3.5

माया की विषयमूलकता अथवा विषयि प्रधानता

164

3.6

अज्ञान के अस्तित्व में प्रमाण

165

3.7

अज्ञान संशय व मिथ्या ज्ञान का कारण

167

3.8

अज्ञान

168

3.8.1

अद्वैत सम्मत लक्षण

168

3.8.2

भावरूपता का विवेचन(भामती/विवरण प्रस्थान के सन्दर्भ में)

174

3.8.3

अज्ञान के भेद समष्टि, व्यष्टि रूप

186

3.8.4

अज्ञान की शक्तियों

189

3.8.5

एकत्व एवं नानात्व (भामती/विवरण प्रस्थान)

192

3.8.6

आश्रय एवं विषय

195

3.9

अविद्यावाद के विरुद्ध सप्त अनुपपत्तियों का निराकरण

206

 

चतुर्थ अध्याय मायावाद का सैद्धान्तिक उपस्थापन अध्यास/ भ्रम निरूपण

212

4.1

अध्यास भाष्य की आवश्यकता तथा उसका महत्व

212

4.2

भ्रम का महत्त्व

215

4.3

भ्रम की उत्पत्ति शङ्कराचार्य, भामती, विवरण के अनुसार भ्रम, उसकी सार्थकता, प्रकार एवं भ्रम का परिहार

218

4.4

चिदात्मा पर अध्यास की सम्भावना ( भामती प्रस्थान तथा विवरण प्रस्थान के अनुसार)

263

4.5

भ्रम सिद्धान्त (ख्यातिवाद) अन्य ख्यातिवाद सिद्धान्तों

 

 

का खण्डन तथा अनिर्वचनीय ख्यातिवाद की स्थापना

271

 

पञ्चम अध्याय अद्वैत वेदान्त में मायावाद के सिद्धान्त का विनियोग

300

5.1

जगत्प्रञच के मिथ्यात्व का विवेचन श्री हर्ष तथा चित्सुखाचार्य का मत

300

5.2

जगत् के प्रति ब्रह्म की निमित्तोपादान कारणता

306

5.3

जीव एवं ईश्वर का सम्बन्ध विवेचन

308

5.3.1

ईश्वर की अवधारणा की आवश्यकता

308

5.3.2

ईश्वर एवं जीव का स्वरूप एकजीववाद, अनेकजीववाद

311

5.3.3

विवर्तवाद

329

5.4

जीव एवं ब्रह्म का सम्बन्ध विवेचन

339

5.4.1

जीव और ब्रह्म में अभिन्नता

339

5.4.2

प्रतिबिम्बवाद, अवच्छेदवाद एवं आभासवाद

349

 

षष्ठ अध्याय माया की मिथ्यात्वरूप अनिर्वचनीयता का विवेचन

370

6.1

मिथ्यात्व खण्डन पूर्वपक्ष

 

6.1.1

न्यायामृतकार प्रोक्त मिथ्यात्व के 12 सम्भावित

 

 

लक्षण एवं उनका निरास

370

6.1.2

पूर्वपक्ष प्रोक्त अनुमान प्रमाण का खण्डन

376

6.1.3

पूर्वपक्ष द्वारा आगम प्रमाण का खण्डन

379

6.2

मिथ्यात्व का प्रतिपादन सिद्धान्तपक्ष प्रोक्त मिथ्यात्व के पण लक्षण

381

6.1

मिथ्यात्व में प्रमाण सिद्धान्तपक्ष

412

6.3.1

मिथ्यात्वानुमान

412

6.3.2

हेतु विचार दृश्यत्व हेतु, जडत्व हेतु, परिच्छित्रत्व हेतु

418

6.3.3

आगम प्रमाण

426

6.3.4

मिथ्यात्वमिथ्यात्वनिरुक्ति

439

 

उपसंहार

445

 

सन्दर्भ गन्ध सूची

 

 

 

 

 

 















Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at help@exoticindia.com
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through help@exoticindia.com.
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy

Book Categories