भारत विश्व का एक ऐसा अनूठा देश है, जहां सबसे पहले सभ्यता का उदय और विकास हुआ। इसकी सांस्कृतिक विरासत इसे एक महान एवं शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में पहचान देती है। प्राचीन काल में भारतीयों ने एक ऐसे अखंड भारत की कल्पना की, जिसमें ईरान, अफगानिस्तान, काबुल कंधार, वर्तमान पाकिस्तान, बांग्लादेश, तिब्बत, श्रीलंका, चीन के कुछ प्रदेश इत्यादि अनेक देश सम्मिलित थे। भरत, विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, हर्ष आदि सम्राटों ने भारतवर्ष में राजनीतिक एकता स्थापित की।
भारत की व्यवस्थित शिक्षा प्रणाली अथवा ज्ञान परम्परा 10,000 वर्ष से भी अधिक पुरानी है, जो वेद, उपनिषद्, आरण्यक, पुराण, रामायण, श्रीमद्भगवद्गीता आदि ग्रन्थों में प्रतिबिम्बित होती है। यहाँ के ऋषि-मुनियों और वैज्ञानिकों ने कठोर तप, चिंतन और निरंतर शोधों से चिकित्सा, रसायन, गणित, खगोल, ज्योतिष, दर्शन, वास्तुकला आदि के क्षेत्र में अनेक नए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया और उनका ज्ञान विश्व को दिया। ऐसे वैज्ञानिकों में अश्विनी कुमार, ऋषि भारद्वाज, कपिल, कणाद, सुश्रुत, जीवक, आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, चरक, पतंजलि आदि सम्मिलित थे। उस समय भारत में नालंदा, तक्षशिला, वल्लभी आदि अनेक विश्वविद्यालय स्थापित थे, जिनमें पूरे विश्व से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे।
भारत विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, भाषाओं, जातियों आदि का देश है, फिर भी यहाँ के लोगों में धार्मिक सद्भाव और सामाजिक-सांस्कृतिक एकता देखने को मिलती है। आर्यों द्वारा स्थापित सोलह संस्कार, ब्रह्मचर्य, विवाह, संयुक्त परिवार आदि आज भी भारतवर्ष में महत्वपूर्ण माने जाते हैं। यही कारण था कि प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति का प्रसार एशिया और यूरोप के अनेक देशों में हुआ।
प्राचीन काल में भारतीयों ने सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार माना और हमेशा विश्व कल्याण की बात कही। भारतवर्ष हर सुख दुःख में विश्व के सभी देशों के साथ खड़ा रहा है। यहाँ तक कि विश्व को गंभीर बीमारियों से बचाने के लिए प्राचीन काल में भारतवासियों ने पर्यावरण को स्वच्छ रखने पर बल दिया। पतंजलि जैसे ऋषियों ने लोगों को रोगमुक्त बनाने के लिए योग का ज्ञान दिया। भारतवर्ष विश्व का ऐसा विशिष्ट देश है, जहां नदियों, वृक्षों, पशु-पक्षियों आदि की पूजा की जाती है। इसके अतिरिक्त, प्राचीन भारत में कला का भी बहुत विकास हुआ। सिन्धु घाटी सभ्यता की भवन निर्माण कला विश्व में सबसे प्राचीन वास्तुकला मानी जाती है। यह कितने गर्व की बात है कि जब विश्व में सभ्यताओं का जन्म भी नहीं हुआ था, उस समय भारतीय शहरों में रहते थे। भारत की चित्रकला और मूर्तिकला भी सबसे प्राचीन मानी जाती हैं, जो प्रागैतिहासिक काल की गुफाओं की दीवारों, सिन्धु सभ्यता के स्थलों की खुदाई में मिले अवशेषों, अजंता - एलोरा की गुफाओं के साथ-साथ गांधार, मथुरा आदि कला-शैलियों के नमूनों में देखी जा सकती है।
डॉ. प्रीतम सिंह, डॉ. बी. आर. अंबेडकर अध्ययन केन्द्र, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में सहायक निदेशक के रूप में कार्यरत हैं। इनके पास शिक्षण एवं अनुसंधान का 21 वर्षों से अधिक का अनुभव है। उनके शोध का प्रमुख क्षेत्र दलित साहित्य, बौद्ध दर्शन, अंबेडकर दर्शन, एवं अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन दर्शन से संबंधित है। उन्होंने कई पुस्तकों का प्रकाशन किया है, जिनमें "अटल बिहारी वाजपेयी का जीवन दर्शन (2014), अमृत अटल (2019), सामाजिक संर्घष के प्रणेता, एसैज ऑन डॉ. बी.आर. अंबेडकर (2022) डॉ. अंबेडकर एवं महिला सशक्तीकरण (2022), डॉ. बी. आर. अंबेडकर्स विजन फॉर सेल्फ-रेलायेंट इंडिया ऑफ 21 सेंचुरी (2023) इत्यादि सम्मलित हैं। इसके अतिरिक्त, 15 शोध पत्र विभिन्न राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित है। ये राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में चालीस से अधिक शोध-पत्र प्रस्तुत कर चुके हैं। ये डॉ. अंबेडकर अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र सामाजिक न्याय एवं अधिकारित मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली के शिक्षण-शोध परामर्श समिति के सदस्य भी है। ये अन्तर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव सलाहाकार समिति हरियाणा के सदस्य, हरियाणा सरस्वती धरोहर विकास बोर्ड द्वारा गठित सरस्वती नदी के पाठ्यक्रम समिति के अध्यक्ष इत्यादि पदों पर मनोनीत हैं। इसके अतिरिक्त, मार्कण्डा नेशनल कालेज, शाहबाद के मनोनीत सदस्य के साथ-साथ विश्वविद्यालय की विभिन्न समितियों के सदस्य हैं। ये दिव्य कुरूक्षेत्र मिशन के संस्थापक सचिव भी है और इन्हें रेड क्रास, विधा भारती के. डी.बी., रोटरी क्लब, लायन्स क्लब आदि विभिन्न सामाजिक संस्थाओं द्वारा उनकी सामाजिक सेवाओं के लिये सम्मानित किया गया है।
भारतवर्ष विश्व का सबसे प्राचीनतम् देश है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ की भूमि खुली, विस्तृत एवं प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर थी, जहां अक्सर विभिन्न युगों में विभिन्न दिशाओं से लोगों की धाराएं आती थीं और इस पावन देश में बस जाती थीं। यही कारण है कि भारतवर्ष में विदेशी लोगों एवं उनकी संस्कृतियों को अपने में आत्मसात करने की भावना विकसित हुई। कुछ पश्चिमी एवं मार्क्सवादी इतिहासकारों एवं विचारकों ने यहां की भूमि और लोगों की समझ से सम्बन्धित अपनी व्याख्याओं को विभिन्न प्रकार से प्रस्तुत किया, जिन्हें कुछ ने स्वीकार किया और कुछ ने अस्वीकार। भारतवर्ष शब्द भारतीयों के लिए एक पवित्र शब्द है, विशेषकर उनके लिए जो आधुनिक भारत की भौगोलिक सीमा में निवास कर रहे हैं। यह शब्द उतना ही प्राचीन है, जितना भारत देश। भारतवर्ष एक भौगोलिक सीमा में निर्मित राज्य मात्र ही नहीं है, बल्कि एक सांस्कृतिक अधिष्ठान पर खड़ा विश्व का एक गौरवशाली महान राष्ट्र है। इसकी सांस्कृतिक विरासत इसे एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में पहचान देती है। भारत के लोग इससे भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। इस प्रकार 'भारत' भूमि का टुकड़ा न होकर माँ भारती के रूप में जीवन्त राष्ट्र है। ऋषि-मुनियों एवं अनेक देशी एवं विदेशी विद्वानों ने भारतवर्ष को स्वर्ग से भी महान माना है। अथर्ववेद के एक मन्त्र में कहा गया है कि 'माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्यांः।' अर्थात् मातृ भूमि मेरी माता है और मैं मातृ भूमि का पुत्र हूँ। यह मन्त्र प्राचीन ऋषियों ने भारत राष्ट्र को माँ के रूप में संपूजित किया है। स्वर्ग के देवता भी यह मानते हैं कि कितने भाग्यशाली हैं वे लोग, जिनका जन्म भारतवर्ष में हुआ हुआ है। इसलिए देवगण भी समय-समय पर भारत भूमि पर अवतरित होते रहे हैं।
भारतीय राष्ट्र की अवधारणा विश्व में सबसे प्राचीन है। अथर्ववेद के 'पृथ्वीसूक्त' को विश्व का पहला राष्ट्रगान माना जाता है। महाभारत नामक महाकाव्य के 'भीष्म पर्व' में राष्ट्रीय भाव के दर्शन होते हैं। कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में लिखा है कि हिमालय और दक्षिण समुद्र के बीच निवास करने वाला हर मनुष्य भारतीय है। विवेकानन्द के अनुसार, अनेक तथाकथित प्राचीन राष्ट्रों का विश्व में कहीं भी अब कोई चिह्न या अवशेष नहीं रहा है।
भारतवर्ष ऐसा देश है, जहां से विकसित सभ्यता का सूर्य उदित हुआ। वैदिक संस्कृति ने समूचे विश्व का विविध रूप में नेतृत्व किया। हमारे गुरुदेव प्रमुख स्वामी जी महाराज कहते थे कि शास्त्र, मंदिर और संत भारतीय वैदिक संस्कृति के तीन आधार हैं। उसमें शास्त्रों की भव्य परंपरा वैदिक काल से प्राप्त है। हमारे ऋषि-मुनियों एवं विद्वानों ने ऐसे ग्रंथों की रचना की, जो विश्व का आज भी मार्ग दर्शन कर रहे हैं। ऐसे ग्रंथों में वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रंथ, पुराण, श्रीमद्भगवद्गीता, रामायण, महाभारत तथा जैन और बौद्ध साहित्य आदि सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त, भारतीय संस्कृति में आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिल्पशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र आदि शास्त्रों का भी आविष्कार हुआ। इन शास्त्रों से हम भारतीय ज्ञानगरिमा का अनुमान कर सकते हैं। गणित, विज्ञान, खगोल, भूगोल, मनोविज्ञान, संगीत, कला आदि कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, जिसकी पराकाष्ठा को भारतीय ज्ञान परंपरा ने प्राप्त न की हो। इन विषयों के साथ साथ भारतवर्ष दर्शनों की भी भूमि रही है। सांख्य दर्शन, योग दर्शन, न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, पूर्वमीमांसा दर्शन तथा वेदांत दर्शन इन षड्दर्शनों का आविर्भाव भारत में हुआ। जैन दर्शन तथा बौद्ध दर्शन ने भी भारत में आकार लिया। उसमें भी वेदांत दर्शन की शाखाओं के रूप में भारतीय संस्कृति में अद्वैत दर्शन, विशिष्टाद्वैत दर्शन, द्वैत दर्शन आदि दर्शनों का आविर्भाव हुआ। इसी वेदांत दर्शन की श्रृंखला में आज परब्रह्म स्वामिनारायण प्रबोधित अक्षरपुरुषोत्तम दर्शन भी प्रसिद्ध हो चुका है। इन शास्त्रों ने हमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मार्गदर्शन किया है।
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