लेखक परिचय
हिन्दी नाटक साहित्य में प्रसाद जी का एक विशिष्ट स्थान है । इतिहास, पुराण कथा और अर्द्धमिथकीय वस्तु के भीतर से प्रसाद ने राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल को पहली बार अपने नाटकों के माध्यम से उठाया । दरअसल उनके नाटक अतीत कथा चित्रों के द्वारा तत्कालीन राष्ट्रीय संकट को पहचानने और सुलझाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं । 'चन्द्रगुप्त' 'स्कन्दगुप्त' और 'ध्रुवस्वामिनी' का सत्ता संघर्ष राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न से जुड़ा हुआ है ।
प्रसाद ने अपने नाटकों की रचना द्वारा भारतेन्दुकालीन रंगमंच से बेहतर और संश्लिष्ट रंगमंच की माँग उठायी । उन्होंने नाटकों की अन्तर्वस्तु के महत्व को रेखांकित करते हुए रंगमंच को लिखित नाटक का अनुवर्ती बनाया । इस तरह नाटक के पाठ्य होने के महत्त्व को उन्होंने नजरअन्दाज नहीं किया । नाट्य रचना और रंगमंच के परस्पर सम्बन्ध के बारे में उनका यह निजी दृष्टिकोण काफी महत्वपूर्ण और मौलिक है ।
प्रसाद जी के नाटक निश्चय ही एक नयी नाट्य भाषा के आलोक के चमचमाते हुए दिखते हैं । अभिनय, हरकत और एक गहरी काव्यमयता से परिपूर्ण रोमांसल भाषा प्रसाद की नाट्य भाषा की विशेषताएँ हैं । इसी नाट्य भाषा के माध्यम से प्रसाद अपने नाटकों में राष्ट्रीय चिन्ता के संग प्रेम के कोमल संस्पर्श का कारुणिक संस्कार देते है ।
अनुक्रम
प्राक्कथन
उर्वशी चम्पू
1 से 36
सज्जन
37 से 52
प्रायश्चित
53 से 64
कल्याणो परिणय
65 से 84
करुणालय
85 105
राज्यश्री
107 से 146
विशाख
147 से 196
अजातशत्रु
197 283
जन्मेजय का नाग यज्ञ
287 से 362
कामना
393 से 431
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य
433 से 558
एक त्रूंट
559 से 583
चन्द्रगुप्त
585 739
ध्रुवस्वामिनो
741 से 782
अग्निमित्र
783 से 792
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