जयशंकर प्रसाद के विपुल नाट्यसाहित्य में इतिहास, धर्म, संस्कृति, दर्शन, शास्त्र आदि इस प्रकार बिखरा हुआ है कि उसकी समुचित व्याख्या या विश्लेषण सरल कार्य नहीं है; क्योंकि ये नाटक भारतीय इतिहास के कई हजार वर्षों की बड़ी घटनाओं, गतिविधियों, उथल-पुथल आदि से भरे पड़े हैं। यह आश्चर्यचकित कर देनेवाली बात है कि जयशंकर प्रसाद ने जहां अपने नाटकों में इतिहास, धर्म, दर्शन, पुराण, संस्कृति आदि को आधुनिकता प्रदान की है, वहां अपने नाटको के पात्रों के मनोभावों को प्रस्तुत करने में यह सिद्धा कर दिया कि जयशंकर प्रसाद मानव मनोविज्ञान की भी अत्यन्त सूक्ष्म समझ रखते थे। बड़े-बड़े नाटकों में हजारों वर्षों के इतिहास के उलझे, विडम्बनापूर्ण, संश्लिष्ट प्रसंगों में मनोभावों के चित्रण में जिस अन्तर्द्वन्द्वात्मकता की सृष्टि की है, वह नाटक की अनिवार्यता तो है ही, साथ ही प्रसाद की सजग और श्रेष्ठ नाट्यप्रतिभा की भी परिचायक है। इन नाटकों के पात्रों, परिस्थितियों, संवादों, शिल्प योजना, भाषा आदि सभी अवयवों में यदि कोई महत्वपूर्ण तत्व है, तो वह है अन्तर्द्वन्द्व, जिसकी सघन अनुभूति प्रमाता किये बिना नहीं रह पाता। यही अन्तर्द्वन्द्व नाट्य विधा में अलग-अलग नाट्य विद्वानों द्वारा अनेक प्रकार से व्याख्यायित किया जाता रहा है। अपने नाटकों में अन्तर्द्वन्द्व के विशद और वैविध्यपूर्ण चित्रण के द्वारा जयशंकर प्रसाद ने जिस संसार की सृष्टि की है वह बेहद मार्मिक और पूर्णतः विश्वसनीय है। इतिहास के जटिल से जटिल और दुरुह से दुरुह प्रसंग को भी प्रसाद ने बड़ी खूबी से नाटकीय बनाया है और वह भी अन्तर्द्वन्द्व की आधारशिला पर। प्रस्तुत पुस्तक में अन्तर्द्वन्द्व के विभिन्न सरोकारों को एक अनिवार्य, नाट्य-तत्त्व के रूप में विश्लेषित कर अन्तर्द्वन्द्व और जयशंकर के नाटकों में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध स्थापित किया गया है। प्रसाद के नाटकों में अन्तर्द्वन्द्व की व्याप्ति अनेक स्तरों और स्वरूपों में संगुंफित मिलती है। प्रस्तुत पुस्तक में अन्तर्द्वन्द्व के रेशे रेशे को अलग-अलग कर, सुलझे रूप में उसकी नाट्य-धर्मी, समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक ऐतिहासिक, दार्शनिक, धार्मिक आदि संदभों में व्याख्या अत्यन्त सारगर्भित और सरल रूप में प्रस्तुत की गई है।
जन्म : 23 जुलाई, 1952, दिल्ली के प्रतिष्ठित चांदीवाला कपूर खत्री परिवार में।
शिक्षा : स्कूली शिक्षा दिल्ली में; बी.ए. ऑनर्स (हिंदी) मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1972; एम.ए. (हिंदी) मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1974; पी-एच.डी. 'जयशंकर प्रसाद के नाटकों में अन्तर्द्वन्द्व' विषय पर, दिल्ली विश्वविद्यालय, 19851 बचपन से ही संगीत और अभिनय में रुचि। रेडियो तथा टेलीविजन के प्रारंभिक दौर में कई नाटकों तथा अन्य कार्यक्रमों में हिस्सेदारी ।
रंगमंच पर भी नाट्याभिनय का अनुभव ।
मिरांडा हाउस की पत्रिका 'मिरांडा' का सम्पादन तथा सत्यवती कॉलेज (सांध्य) की 'सत्य' पत्रिका का सम्पादन ।
सम्प्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज, सत्यवती कॉलेज (प्रातः) तथा कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज में कई वर्ष अध्यापन; 1990 से दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज (सांध्य) के दिल्ली विभाग में रीडर।
जयशंकर प्रसाद आधुनिक युग के विविधमुखी प्रतिभा-सम्पन्न साहित्यकार थे। उनका नाट्य रचना काल सन् 1910-1933 ई. तक रहा है। इन वर्षों में उन्होंने हिन्दी नाट्य साहित्य को अनेक ऐतिहासिक, पौराणिक और प्रतीकात्मक नाटक दिए। प्रसाद की प्रारंभिक नाट्य रचनाओं और परवर्ती नाट्य रचनाओं को समग्रतः देखने पर उनकी नाट्य यात्रा में विकास के संकेत स्पष्टतः देखे जा सकते हैं। प्रथम चरण में उनके प्रारम्भिक नाटक हैं जिनमें उन्होंने नाट्यक्षेत्र में प्रयोग करना आरम्भ किया था, 'सज्जन', 'करूणालय' तथा 'प्रायश्चित' उनके इसी काल के नाटक हैं। ये अति संक्षिप्त, सामान्य तथा एकांकी रचनाएँ हैं। इनमें विस्तार और वैविध्य का अभाव है। इसके बाद उनके नाटकों के विषय तथा पात्र-संख्या में विस्तार दिखाई पड़ता है। जिनमें 'राज्यश्री' और 'विशाख' लिए जा सकते हैं। इन्हें प्रयोगकालीन अथवा संक्रमणयुगीन रचनाएँ कहा जा सकता है। इनके पश्चात् प्रसाद की प्रोढ़ रचनाएँ प्रकाश में आती हैं जिनमें 'अजातशत्रु', 'कामना', 'जनमेजय का नागयज्ञ', 'एक घूँट', 'चंद्रगुप्त', 'स्कन्दगुप्त' तथा 'ध्रुवस्वामिनी' हैं। अतः प्रसाद की नाट्य-प्रतिभा का विकास इन तीन चरणों में देखा जा सकता है।
प्रसाद के नाटकों की आलोचना, समीक्षा और विवेचन-विश्लेषण की दृष्टि से अनेक शोध-प्रबन्ध और पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। इन सभी पुस्तकों में प्रसाद की नाट्य रचनाओं के विषय में नवीन तथ्य, नए आयाम तथा दृष्टिकोण प्राप्त होते हैं। शास्त्रीय और ऐतिहासिक विवेचना की दृष्टि से डा. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा का शोध प्रबन्ध 'प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन' एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। डा. जगदीश चन्द्र जोशी की 'प्रसाद के ऐतिहासिक नाटक' तथा डा. धनञ्जय की 'प्रसाद के ऐतिहासिक नाटक' आलोचना पुस्तकों में प्रसाद के नाटकों की ऐतिहासिकता का विवेचन हुआ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रन्थ में, डा. नगेन्द्र ने 'प्रसाद की कला' नामक पुस्तक में अपने निवन्ध में तथा डा. बच्चन सिंह ने 'हिन्दी नाटक' नामक अपनी आलोचनात्मक पुस्तक में प्रसाद को रोमांटिक लेखक तथा भारतीय और पाश्चात्य नाट्य तत्त्वों का समन्वयकार माना है।
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