नेह के नाते अनेक: Collected Essays

$10.20
$17
(20% + 25% off)
Quantity
Delivery Ships in 1-3 days
Item Code: NZD136
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author: कृष्णबिहारी मिश्र (Krishna Bihari Mishra)
Language: Hindi
Edition: 2011
ISBN: 8123609989
Pages: 135
Cover: Hardcover
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 260 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description

पुस्तक के विषय में

प्रख्यात ललित निबन्धकार कृष्णबिहारी मिश्र के ये निबन्ध, संस्मरण विद्या के आसाधारण उदाहरण हैं जो साहित्य के कृती व्यक्तियों की जीवन-घटनाओं और अनुभवों को लोक-व्यापारी अर्थ देते हैं। विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, नन्दुलारे वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विदी, वाचस्पति पाठक, .ही. वात्सयायन 'अज्ञेय', प्रभाकर माचवे, ठाकुरप्रसाद सिंह, धर्मवीर भारती, शिवप्रसाद सिंह, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह जैसे लेखकों पर लिखेशे निबन्ध साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं। लेखक के लिए संस्मरण केवल अतीत-स्मृति नहीं, 'ग्लान पड़ रही जीवनप्रियता को रससिक्त कर पुनर्नवा' करने वाले हैं। इन्हें पढ़कर 'ध्यान आता है कि किस बिन्दु से चलकर, राह की कितनी विकट जटिलता से जूझते हम कहाँ पहुङचे हैं'; सचमुच इससे 'लोकयात्रा की थकान' थोड़ी कम हो जाती है।

वर्तमान और भविष्य को काफी हद तक आश्वत करने वाले, संकटों से घिरी सृजनशील ऊर्जा की याद को ताज़ा करते, इन संस्मरणों में लेखक ने विरासत के मार्मिक तथ्यों के माध्यम से, कुछ तीखे सवाल भी खड़े किये हैं, जो नये विमर्श के लिए मूल्यवान सूत्र सिद्ध हो सकते हैं।

लेखक के विषय में

डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र

जन्म :1 जुलाई 1936, बलिहार, बलिया, उत्तर प्रदेश।

शिक्षा : एम. . (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)

पी-एच.डी. (कलकत्ता विश्वविद्यालय)1996 में बंगाली मार्निंग कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से सेवा-निवृत।

प्रकाशित कृतियाँ : ललित निबन्ध-संग्रह:बेहया का जंगल, मकान उठते हैं, आँगन की तलाश।

पत्रकारिता : जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण-भूमि, हिन्दी।

पत्रकारिता : राजस्थानी आयोजन की कृती भूमिका, गणेश शंकर विद्यार्थी, पत्रकारिता: इतिहास और प्रश्न, हिन्दी पत्रकारिता: जातीय अस्मिता की जागरण-भूमिका, हिन्दी साहित्य की इतिहास-कथा, आस्था और मूल्यों का संक्रमण, आलोकपन्था, सम्बुद्धि।

सम्पादन : 'समिधा' (पद्मधर त्रिपाठी के साथ) और 'भोजपुर माटी'

भूमिका

हँसमुख साँझ

कमियाँ तब भी थीं जिस समय के चरित्रों के चित्र इन निबन्धों में हैं, मगर सद्भाव के दारिद्रय का आज जैसा अनुभव पहले के समय ने शायद नहीं किया था । वर्तमान संस्कारहीन समय की संवेदना-रिक्तता के त्रासद परिदृश्य से आहत लोगों को अतीत में केवल उज्ज्वलता ही दिखाई पड़े तो यह अस्वाभाविक तो नहीं है, पर 'सुधा' के दिसम्बर, 1930 के अंक में बड़ी वेदना और क्षोभ के साथ निराला ने लिखा था-' 'हिन्दी में तृप्ति की साँस लेते हुए साहित्य-सेवा करनेवाले जितने लोग दीख पड़ते हैं, अधिकाश स्पष्टवादिता से बाहर केवल दलबन्दी के बल पर साहित्य का उद्धार करनेवाले चचा-भतीजे हैं हू. .यह साहित्य के क्षेत्र में महाअधम कार्य है । करीब-क़रीब सभी इस तरह की हरक़त ताड़ जाते हैं । पर, समय कुछ ऐसा है कि जमात ठगों की ही ज़ोरदार है । भले आदमियों को कोई पूछता नहीं । साहित्य के मशहूर लच्छ आचार्य माने जाते हैं-हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ लेखक ।' ' स्पष्ट है कि अपने समय से शिकायत पहले भी उन तमाम लोगों को थी,. जो मूल्यों के पक्षधर थे, साधना के पक्षधर, अगवाह राह के राही नहीं, और जो व्यवस्था-प्रवीण लोगों के उन्नत हो रहे वर्चस्व को लक्ष्य कर निराला की तरह दुःखी थे । तथ्य है कि दूध से धुले लोगों की वह पीढ़ी नहीं थी, श्यामता का गहरा स्पर्श आदर्श के राग में जीनेवाला समय भी ढो रहा था, 'अभिशाप के रूप में । श्री रामनाथ 'सुमन', पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' और राय कृष्णदास के संस्मरण इसी तथ्य की सम्पुष्टि करनेवाले साक्ष्य हैं । जो बड़ी बात थी उस पीढ़ी के साथ वह उनका सर्जनशील जीवट था, जो संमय की चुनौतियों को पीठ न दिखाकर अपनी जुझारू साधना से आनेवाले लोगों के लिए राह बना रहा था; समय कै लिए रोशनी रच रहा था ।

यथार्थ के नाम पर कालिख-कलुष बटोरना-परोसना शिविर-विशेष द्वारा प्रगतिशील भूमिका मानी जा सकती है, पर हमें तलाश रहती है उस उज्ज्वल रोशनी की जो विचलित कर देनेवाले झंझावातों का मुक़ाबला करते खँडहरों में दबे दीये की बाती बनकर जल रही होती है, समय को तमस से उत्तीर्ण होने की राह दिखाने के लिए । और इसी उम्मीद में हम विरासत के पन्नों को उलटते-पलटते हैं । राख के लिए नहीं, ऊष्मा के लिए हम साहित्य से जुड़ते हैं ताकि ठिठुरती-पथराती संवेदना टाँठ और गत्वर हो सके ।

बुढ़ौती लोकयात्रा का ऐसा संवेदनशील पड़ाव है, जिसे स्पर्श करते ही व्यतीत की सुधि तीव्र हो जाती है । बूढी साँझ सामान्यत: उदास होती है । और सुधि में सीझना बूढ़ों की नियति बन जाती है, यह अनुभवी बताते हैं । मगर साँझ-वेला में अकसर जागनेवाली सुधि केवल उदास ही नहीं बनाती, उस लोक से भी मन को जोड़ती लै?, जिसने हमारे जीवन-अनुशासन को रचा है और जागतिक अन्धड़ से पंजा लड़ाने की कला सिखायी है । अपने व्यतीत की पड़ताल करते उन परिदृश्यों, चेहरे-चरित्रों की बरबस याद आती है, जो सहृदयता की ऊष्मा से हमें आश्वस्त करते रहे हैं, और जो हमारे सपने थे, अपने थे और जिनके अन्तरंग सान्निध्य में साँस लेते विकट प्रत्यूहों से टकरा-टकराकर हम अपनी ज़मीन तैयार करते रहे हैं ।

अतीत-स्मृति का आस्वाद वर्तमान के स्वाद को हर समय फीका ही नहीं करता, प्लान पड़ रही जीवन-प्रियता को रससिक्त कर पुनर्नवा भी करता है । और तब हम अपने सौभाग्य का साक्षात्कार कर साँझ की हँसमुख मुद्रा की सहज प्रेरणा से अवसाद की आँच में सीझने से स्वयं को बचा पाते हैं । सर्जनशील ऊर्जा की रक्षा ही स्व की सुरक्षा की समुचित विधि है । कृती पुरुषों के अनुभव बताते हैं कि व्यतीत की सुधि नये सपने भी रचती है और उपलब्ध समय का आस्वाद भी समृद्ध करती है । जब ध्यान आता है कि किस बिन्दु से चलकर राह की कितनी विकट जटिलता से जूझते हम कहीं पहुँचे हैं तो लोकयात्रा की थकान थोड़ी कम होती है, और तब हम अपने वर्तमान और भविष्य के प्रति काफ़ी हद तक आश्वस्त हो पाते हैं ।

सन्तों की दुनिया का सत्य होगा कि अतीत-भविष्य को न देखकर वर्तमान पर ध्यान केन्द्रित करना सुख का रास्ता है । मगर आम आदमी इस अनुशासन को सहज ही स्वीकार नहीं कर पाता । और न तो रचनाकार अतीतजीवी कहे जाने के आतंक से उस कीर्तिशेष जगत् को बलात् भूल जाने का स्वाँग करता है, जिसने जगत् के अक्षर बाँचनेवाली संवेनशील आँख दी है । जागरूक पाठक भी उन कृती पुरुषों के अन्तरंग जीवन के प्रच्छन्न-प्रकट रूप का सटीक परिचय पाने को सहज ही उत्सुक रहते हैं, जिनके साहित्य से उनका समीपी परिचय होता है । बाबू राय कृष्णदास, आचार्य शिवपूजन सहाय, श्री रामनाथ 'सुमन' और पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' का व्यक्तिपरक लेखन और परवर्ती काल में महादेवी वर्मा के संस्मरण, अज्ञेय की 'स्मृतिलेखा' तथा आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की पुस्तक 'हंसबलाका' में संकलित व्यक्तिपरक निबन्ध हिन्दी संस्मरण-साहित्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिनके माध्यम से उस काल के रचनाशील जगत् की तस्वीर उजागर हो जाती है । बाद की पीढ़ी के पण्डितों-रचनाकारों ने मार्मिक संस्मरण लिखकर इस विधा को सम्पन्नतर किया । काशी-प्रवास काल पर केन्द्रित मेरे लेखों को पढ़कर श्री से. रा. यात्री, श्री कर्मेन्दु शिशिर और डी. अवधेश प्रधान ने उापने प्रेरक पत्र द्वारा संस्मरण-निबन्ध लिखने का आग्रह किया तो मैं कर्तव्य-सचेत हुआ कि जिनकी आत्मीय उपस्थिति मेरी संवेदना में उजास रचती रही है, उन स्मृतिशेष लोगों का तर्पण जरूरी दायित्व है । और पुराने प्रसंगों को टाँकते समय जीवन का व्यतीत आस्वाद एक बार ताज़ा हो गया, और जम्हाई लेती साँझ यकायक हँसमुख लगने लगी ।

इस संकलन के निबन्ध जिन चरित्रों पर केन्द्रित हैं, उनकी भौतिक अनुपस्थिति में लिखे गये हैं। इसलिए अपने समय की संवेदना को विभिन्न बिन्दुओं के माध्यम से आँकते जो भी प्रसंग मेरे लेखन में आये हैं, उसके मैं स्वयं को उत्तरदायी मानता हूँ। विशेष कुछ दावा न कर नम्रतापूर्वक इतना निवेदन करना जरूरी जान पड़ता है कि भरसक सजग रहा हूँ ताकि मेरा भी शब्द तथ्य का धरातल न छोड़। पुराने प्रसंग को टाँकते समय सुधि-शिल्पी का चेहरा हर चरण पर दिखाई पड़ता है; आरोपण का आग्रह नहीं, लेखक की लाचारी कदाचित् असहज नहीं लगेगी और सहृदय-क्षम्य होगी।

प्रसंगवश मन में कई प्रश्न जगे हैं-नयी पीढ़ी के प्रति शुभ-चिन्ता के आग्रह से, जिन्हें जस-का-तस प्रकट कर दिया है। मेरे प्रश्नों का उद्देश्य किसी की अवमानना कतई नहीं है । इन्हे नये विमर्श-मंच के रचनात्मक आमन्त्रण के रूप में लिया जाय, शायद तभी लेखक के प्रति न्याय होगा। और प्रश्न अपेक्षित प्रभाव जगा सके तो उसे मैं अपने लेखन की उपलब्धि मानूँगा । उपलब्धि किसे काम्य नहीं होती ।

स्मृति का दायरा बड़ा है । और जब संस्मरण-निबन्ध लिखना शुरू किया तो अपने विद्या-परिवार के कई आत्मीयजन की अनायास याद आयी । ज्येष्ठजन और अन्तरंग मित्रों की याद । पूरी ऊर्जा के साथ जो परिणत वय में भी सक्रिय हैं, ऐसे अनेक आत्मीय लोगों के बारे में भी निबन्ध लिखे । उन निबन्धों को दूसरे स्वतन्त्र संकलन में प्रस्तुत करना उचित जान पड़ा ।

सक्रिय बने रहने के लिए बुढ़ौती सहारा खोजती है । मगर आज की भागाभागी वाली जीवन-चर्या में साँस लेनेवाले के लिए किसी और के लिए अवकाश निकाल पाना प्राय: असम्भव हो गया है । अन्तर्वैयक्तिक रिश्ते की ढाही से आक्रान्त आज के कठकरेजी युग में भी मेरे प्रीतिभाजन रामनाथ महतो जैसै संस्कारी युवक अपने सक्रिय सहयोग से आश्वस्त करते हैं कि संवेदनशीलता अभी, क्षीण रूप में ही सही, जीवित है । आयुष्मान रामनाथ के सहयोग से ही पुस्तक की प्रेस कॉपी तैयार हो सकी । सद्भाव और आशीर्वाद का यदि कुछ भी मूल्य है तो वह मूल्य चुकाने में मैंने कभी कोताही नहीं की है ।

इस पुस्तक को प्रकाशित करने. के लिए मैं भारतीय ज्ञानपीठ का आभारी हूँ । प्रूफ संशोधन में मेरे प्रीतिभाजन श्रीराम तिवारी ने अपेक्षित सहयोग दिया ।

सक्रियता सान्ध्य-वेला को हँसमुख बनाती है । जिस ब्याज और जिनकी प्रेरणा से मेरी सक्रियता क़ायम है, उन सबके प्रति कृतज्ञ हूँ ।

 

अनुक्रम

1

काशी के अन्तरंग रिश्ते को याद करते हुए

13

2

दुःख सबको माँजता है (आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र)

22

3

बौद्धिक आभिजात्य की राजस मुद्रा (आचार्य नन्दगुलारे वाजपेयी)

37

4

लालित्य की अन्तरंग आभा (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी)

60

5

सहृदयता की विरल रोशनी (श्री वाचस्पति पाठक)

67

6

मौन का सर्जनशील सौन्दर्य (श्री स. ही. वाल्मायन 'अज्ञेय')

77

7

अभिज्ञता का मुखर उल्लास (डॉ. प्रभाकर माचवे)

91

8

सर्जक सद्भाव की सुधि (श्री ठाकुरप्रसाद सिंह)

103

9

'सव्यसाची' अन्तत: हार गया (डॉ. धर्मवीर भारती)

110

10

जो अस जरे सो कस नहीं महके (डॉ. शिवप्रसाद सिंह)

117

11

आग्नेय धरातल की संवेदना (श्री कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह)

128

Sample Page


Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at help@exoticindia.com
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through help@exoticindia.com.
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy

Book Categories