चौरासी लाख योनियों में मानव की श्रेष्ठता प्रायः सभी मानते है। मानव अपने आचरण से सबका प्रिय तथा आदरणीय बन जाता है। आचरण में उत्तमता संस्कार से आती है और संस्कार बाल्यावस्था से ही प्राप्त होता है। कभी किसी का जन्मान्तरीय संस्कार भी प्रसंगवश उद्भूत हो जाता है। आचरण वही श्रेष्ठ है, जिससे भय, उद्विनता से रहित परिस्थितियाँ बने। वास्तव में आचरित कर्म भी भगवान की पूजा है- "तत्कर्म हरितोष यत्' (- श्रीमद्भागवत्) - जीवात्मा के हितकारी परमात्मा भगवान् श्रीहरि जीवों को सर्वप्रथम सत्कर्म की ही प्रेरणा देते है। जीवों पर परम अनुग्रह करने के लिये ही भगवान् अवतार ग्रहण करके लीला तथा उपदेश के माध्यम से मानव जीवन के लक्ष्य को दशति है। निद्रा, भोजन तथा विषयसुख पशु आदि को भी उसके भाग्यानुसार प्राप्त होते रहते हैं। यदि मानव ने भी इन्हीं के लिये प्रयास किया, तो फिर मानव और पशु में अन्तर क्या रह गया? संसार के सुख तो वैसे ही प्राप्त हो जाते हैं. जैसे भाग्य का दुग्ख विना प्रयास के आ जाता है। मानव जीवन भगवान की प्रसत्रता और कृपा से प्राप्त होता है तथा उन्हीं भगवान को प्रसन्न करने के लिये प्रयास करना-यही मानव जीवन का लक्ष्य है। जीव, परमात्मा का अंश है" ममेवांशों जीव लोके" (गीता) "अंशो नानाण्यपदेशान् (ब्रह्मसूत्र) 'विस्फुलिंगा यथा वहने (उपनिषद्) इत्यादि प्रमाणों से भी यही ज्ञान होता है।
जीव जब तक अपने अंशीस्वरूप परमात्मा को प्राप्त नहीं करता, तब तक संसार के क्लेशों से त्रस्त होता है। अशीस्वरूप आनन्दकन्द परमात्मा को प्राप्त कर जीव परमानन्द में सदा-सदा के लिये निमग्न हो जाता है। इन्हीं गूढ़ रहस्यों को प्रकट करने के लिये समय-समय पर भगवान श्रीकृष्ण, आचार्य रूप से प्रकट होते हैं-" आचार्य माम् विजानीयात्" (श्रीमद्भागवत)। संवत् १५३५ में भूतल का सौभाग्य जागा, जब भगवान् ने अंतिम आचार्य रूप से अपने को प्रकट किया। श्रीवल्लभाचार्य का प्राकट्य हुआ। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने भगवान के अनुग्रहमार्ग 'पुष्टिमार्ग" का प्रवर्तन किया। इस पुष्टिमार्ग के अनुसार निःसाधन जीवों पर भी उनकी देन्यता से प्रसत्र होकर भगवान् उन पर अनुग्रह करके उनको अपना लेते हैं।
देवी जीवों के उद्धार के लिये प्रकट हुए जगद्गुरु महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य जी ने सम्पूर्ण भारतवर्ष की तीन वार पैदल प्रदक्षिणा करते हुए पुष्टिमार्ग का संस्थापन किया। इस प्रदक्षिणा के क्रम में आचार्य श्रीवल्लभ ने अनेकों जीवों पर अहेतुकि अनुग्रह किया तथा उन्हें आत्मनिवेदन का लाभ कराया। महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य के शिष्यों में चौरासी शिष्य (वैष्णव) प्रधान हुये जिन्हें भगवत् कृपा का साक्षात् अनुभव प्राप्त हुआ तथा जिन्होंने पुष्टि सिद्धान्त को हृदयंगम किया और भगवत् सहानुभावता का परमानन्द प्राप्त किया।
महाप्रभु के कृपापात्र इन सभी वैष्णवों का चरित्र मानवमात्र के लिए सदा अनुकरणीय है। महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य के ही वंशज परमप्रतापी गोस्वामी श्री गोकुल नाथ जी ने इन वैष्णवों के जन्मान्तरीय चरित्रों के साथ-साथ इनके उन वर्तमान जन्म के चरित्रों को प्रकट किया एवं जिसमें छिपे रहस्यात्मक भाव का प्रकाश श्रीहरिराय जी ने किया।
बालकों में संस्कारों के सम्पादक इन चरित्रों को परम भगवदीय श्रीविठ्ठलदास पारीख एवं श्रीगोपालकृष्ण पाठक ने सार रूप से हिन्दी में लेखन का प्रशंसनीय कार्य किया है। आशा है भगवद् अनुग्रह से आगे भी ऐसा ही कार्य करते रहेंगे और समाज को लाभ प्राप्त होता रहेगा।
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