आपका जन्म राजस्थान के नागौर जिले के ग्राम मेहराणा में 1 जनवरी 1952 को हुआ। आपने प्रारम्भिक शिक्षा अपने ग्राम में ही पूरी की, जिसके उपरान्त आपने कई शहरों में आजीविका के लिए कार्य करते हुए एक लम्बे समय तक अपना जीवन हैदराबाद में व्यतीत किया। आपका जीवन शुरू से ही सादा और सरल रहा है। जीवन और मृत्यु आदि के अनगिनत सवाल इनके मन में शुरू से ही उठते आये है, जिनके जवाबों को ढूंढने के लिए ये सदैव ही सज्जन और ज्ञानी पुरूषों का सानिध्य इन्होंने प्राप्त किया। प्राप्त ज्ञान के आधार पर ही इन्होंने अपनी प्रथम पुस्तक "आर्यावत ब्रह्म ज्ञान" सन् 2017 में लिखी थी। जिसके बाद इन्होंने अपने जीवन के 5 साल वेद अध्ययन व उनके चिन्तन मनन में बिताये और इन्ही 5 साल की तपस्या के उपरान्त इन्होंने ये पुस्तक 'चतु र्वेदामृत' लिखी।
जीवन के आरम्भ से लेकर अंत तक ऐसे अनगिनत सवाल मेरे और आप सभी के मन-मष्तिष्क में आये होंगे कि आत्मा और परमात्मा क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है? कर्मों का फल कैसे प्राप्त होता है। पुर्नजन्म क्यों और कैसे मिलता है? तो क्या आप सभी सज्जन लोगों ने इन सभी प्रश्नों के बारे में विचार करते हुये अपने मन-मस्तिक पर जोर दिया है? इन सभी सवालों के जवाब ढूंढने पर एक बार जरूर ध्यान में आयेगी कि इन सभी सवालों के बारे मे हमारे पूर्वजों के क्या विचार थे, क्या उनको इन सभी सवालों के जवाब मिल पाये अगर हाँ तो इनके जवाब हमारे पूर्वज कहाँ छोड गये?
किसी भी देश समाज का सही मायने में अगर कोई खजाना होता है, तो वह उस देश और समाज का साहित्य और कला होती है और हमारा भारत वर्ष भी सदियों से अब तक ऐसा ही महान खजाना छुपाये बैठा है। इसी खजाने का आधार स्तम्भ हमारे पूर्वजों ने वेदों को बनाया है। हमारे पूर्वजों की ज्ञात और अज्ञात जिज्ञासा तथा उसके समाधान का प्रमुख स्रोत हमारे चार वेद ही है।
ठीक उसी प्रकार हमारे पूर्वजों की उन्नति व विकास का आधार, चारों वेदों की उपयोगिता से वैदिक विद्या थी जिसके अभाव मे आज हम सभी प्राणी मात्र बिना जल के पौधे के समान ही बिना वैदिक विद्या के कारण जल रहे है जो आज फिर अपने आर्यावर्त आर्य पूर्वजों की वैदिक विद्या को प्राप्त करने के लिये तत्पर है।
मनुष्य मात्र के उद्धार के लिये ज्ञान, कर्म, उपासना व विज्ञान जो चारो वेदों से प्राप्त होने वाला ग्रन्थ है जो साधक के लिये उपयोगी पूरे जीवन की सामग्री इस ग्रन्थ में हैं, चाहे किसी भी देश का, किसी भी वेष का, किसी भी समुदाय का, किसी भी संप्रदाय का, किसी भी वर्ण का, किसी भी आश्रम का, सभी मानव जाति के लिये उपयोगी है। इसमे किसी भी समुदाय, किसी भी सम्प्रदाय, विशेष की निन्दा या प्रंशसा नहीं है। यह ग्रन्थ सभी मानव जाति का मूल ग्रन्थ है। जो उपयुक्त वास्तविक तत्व का ही वर्णन है, जो परिवर्तनशील प्रकृति जन्य पदार्थों से सर्वथा अतीत और सम्पूर्ण देश काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि में नित्य अजर अमर अनिवाशी एक परमात्मा ही है तथा मनुष्य जहा है और जैसा है और वैसा ही वास्तविक तत्व वहा वैसा ही पूर्ण रूप से विद्यमान है परन्तु परिवर्तनशील प्रकृतिजन्य वस्तु, व्यक्तियों में राग, द्वेष के कारण उसका अनुभव नहीं होता है। सर्वथा राग द्वेष रहित होने पर उसका स्वतः अनुभव हो जाता है। जो किसी भी परिस्थिति मे परमात्मा प्राप्ति से वंचित न रहें। क्यों कि जीव मात्र का मनुष्य योनियों मे जन्म केवल अपने कल्याण के लिये ही हुआ है। जीव में एक तो चेतन परमात्मा का अंश है और एक जड़ प्रकृति का अंश है। चेतन अंश की मुख्यता से वह परमात्मा की इच्छा करता है और जड की मुख्यता से वह संसार की इच्छा करता है।
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